मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

आत्मविश्वास

आत्मविश्वास

कालिदास ने कुमारसंभवम में कहा है, ‘प्रायः प्रत्ययमाधत्ते स्वगुणेषूमादरः’ अर्थात्‌ बड़े लोगों से प्राप्त सम्मान अपने गुणों में विश्वास उत्पन्न कर देता है।

ऐसे लोग वही कहते हैं जो जयशंकर प्रसाद जी ने चन्द्रगुप्त में कहा है,
“अतीत की सुखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य के लिए भय क्यों, और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूंगा, फिर चिंता किस बात की?”

इसे आत्मविश्वास कहते हैं। आत्मविश्वास - यानी अपने-आप पर विश्वास। यह एक मानसिक शक्ति है। इसीलिए स्वेट मार्डन ने कहा है, ‘आत्मविश्वास में वह बल है, जो सहस्रों आपदाओं का सामना कर उन पर विजय प्राप्त कर सकता है।’ एमर्सन की मानें तो, Self-trust is the first secret of success.’ अर्थात्‌ आत्मविश्वास सफलता का प्रथम रहस्य है।

महात्मा गांधी ने कहा है, ‘आत्मविश्वास का अर्थ है अपने काम में अटूट श्रद्धा।’ तभी तो इसके कारण महान कार्यों के सम्पादन में सरलता और सफलता मिलती है। शिवाजी ने आत्मविश्वास के बल पर ही 16 वर्ष की उम्र में तोरणा का किला जीत लिया था। साधारण कद-काठी वाले महात्मा गांधी ने आत्मविश्वास के बल पर ही विशाल साम्राज्य वाले अंग्रेजों से लोहा लिया और ‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो’ का नारा लगाकर अंग्रेज शासकों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया।

आत्मविश्वास, आत्मज्ञान और आत्म संयम सिर्फ़ यही तीन जीवन को बल और सबलता प्रदान कर देते हैं। निर्धन मनुष्यों की सबसे बड़ी पूंजी और मित्र उनका आत्मविश्वास ही होता है।

इन्द्र विद्यावाचस्पति ने अपने ‘पत्रकारिता के अनुभव’ बताते हुए कहा है, ‘साहसिक कार्य बड़ा हो या छोटा, उसे कभी दूसरों के बलबूते पर आरंभ न करो। अपने भरोसे पर, पार जाने के लिए गंगा में भी कूद पड़ो, परन्तु केवल दूसरे के सहारे का भरोसा रखकर घुटनों तक के पानी में भी पांव न रखो।’

साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम ज़िन्दगी में विनम्र बनें आक्रामक नहीं। विनम्र रहने से आत्मविश्वास बढता है।

आत्मविश्वास और आक्रामकता के बीच की रेखा बहुत महीन होती है।

माधव गोवलकर ने कहा है, ‘मनुष्य के अहंकार और आत्मविश्वास में पहचान करना कई बार बड़ा कठिन होता है।’

अधिक आत्मविश्वास कभी-कभी स्वाभिमान को अभिमान की तरफ़ धकेल देता है।

स्वाभिमान बार-बार ठोकरें खाने के बाद भी हमें गिरने नहीं देता, कर्म पथ से, संघर्ष से पलायन नहीं करने देता। अलका में कहे गए निराला के शब्दों में कहें तो, ‘जो गिरना नहीं चाहता, उसे कोई गिरा नहीं सकता।’
अभिमान ... तो .... सम्हलने ही नहीं देता।

लाख योग्यता हो, अपार बल हो, असीम बुद्धि हो, लेकिन अगर अभिमान भी हो हमारे पास .. तो ये सारी योग्यताएं, ये सारे बल, ये सारी बुद्धि, ये सारी शक्ति मिट्टी में मिल जाती है।

और .. स्वाभिमान ... हमें सर उठाकर जीना सिखाता है। अभिमान सर नीचा कर देता है।

स्वाभिमान से हमें खुद पर भरोसा बढता है, अभिमान से हम दूसरों का भी भरोसा खो बैठते हैं।

स्वाभिमान से हम मुसीबतों से लड़ते हैं, अभिमान करके मुसीबतों से घिरते हैं।

महात्मा गांधी याद आते हैं मुझे, जिन्होंने कहा था,
“आत्मविश्वास रावण का-सा नहीं होना चाहिए जो समझता था कि मेरी बराबरी का कोई है ही नहीं। आत्मविश्वास होना चाहिए विभीषण-जैसा, प्रह्लाद-जैसा।”

गेटे ने फ़ाउल में कहा है, ‘यदि तुम अपने पर विश्वास कर सको तो दूसरे प्राणी भी तुम में विश्वास करने लगेंगे।’
अपनी योग्यता और क़ाबिलियत पर सभी को भरोसा होता है। लेकिन हमें दूसरों की योग्यता पर भी भरोसा दिखाना चाहिए।

ज़िन्दगी में आत्मविश्वास जितना ज़रूरी है, उतनी ही ज़रूरी है अपने पर दूसरों का विश्वास हासिल करना।
जो आत्मविश्वासी होता है वह हमेशा सीखने को उत्सुक होता है।

सफलता के लिए जो सबसे अनिवार्य गुण होता है वह है हर स्थिति में सीखने की योग्यता का होना।

वहीं आक्रामकता या अभिमान इंसान को कुछ भी सीखने से रोकता है।

श्रेष्ठता या सफलता कोई मंज़िल नहीं बल्कि एक यात्रा है।

मनुष्य को हमेशा रचनात्मक और कल्पनाशील होना चाहिए।

कुछ दिलचस्प तथ्य यह है कि
- आइंस्टीन की दिलचस्पी जितनी विज्ञान के शास्त्र में थी उतनी ही संगीत में भी थी।
- बट्रेंड रसेल जितने बड़े दार्शनिक थे उतने ही बड़े गणितज्ञ भी।

इससे यह साबित होता है कि रचनात्मकता और सर्वोत्कृष्टता साथ-साथ चलती है। आत्मविश्वास से विचारों की स्वाधीनता प्राप्त होती है, जो हमारी रचनात्मकता को सर्वोत्कृष्टता की ओर ले जाती है।

जीवन में सफलता पाने के लिए आत्मविश्वास का होना बहुत ज़रूरी है। आत्मविश्वास ही सफलता की चरम सीमा पर पहुंचाने वाला एकलौता मार्ग है। यह हमारी बिखरी हुई शक्तियों को संगठित करके उसे दिशा प्रदान करता है। यह हमें ख़ुद पर, ख़ुद की क्षमताओं पर विश्वास करना सिखाता है। पेड़ की शाखा पर बैठा पंछी कभी भी इसलिए नहीं डरता कि डाल हिल रही है, क्योंकि पंछी डालों पर नहीं अपने पंखों पर भरोसा करता है। अतः आत्मविश्वास में कभी कमी नहीं आनी चाहिए। पंचतंत्र में कहा गया है आत्मविश्वासी व्यक्ति ही समुद्र के बीचों-बीच जहाज के नष्ट हो जाने पर भी तैरकर उसे पार कर लेता है। अपने आत्मविश्वास में वृद्धि के लिए हमें सकारात्मक सोच रखनी चाहिए। जैसे विचार हम रखते हैं, दिमाग वही सोचने लगता है। इसलिए अतीत की असफलताओं और भूलों को भूल कर आत्मविश्वास के साथ लक्ष्य को हासिल करने का सतत प्रयास करते रहना चाहिए। आत्मविश्वास हमारे उत्साह को जगाकर हमें जीवन में महान उपलब्धियों के मार्ग पर ले जाता है।
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सोमवार, 2 मार्च 2015

रंगारंग फ़ागुन में...

रंगारंग फ़ागुन में...

- करण समस्तीपुरी



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सूना मोरा देश रंगारंग फ़ागुन में।

पिया बसे परदेस रंगारंग फ़ागुन में॥
छत पर कुजरे काग, कबूतर, कोयलिया,
ले जाओ संदेश, रंगारंग फ़ागुन में॥



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फ़ूले सरसों गदराया महुआ का तन।
बौरी अमराई में भँवरों का गुंजन॥
पहिर चुनरिया धानी धरती अँगराई
ले दुल्हन का वेश, रंगारंग फ़ागुन में॥


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खन-खन चूरी, कंगन चुभे कलाई में।
अंग-अंग सिहरे सनन-सनन पुरबाई में॥
होंठों की लाली भी अब अंगार हुई,
यौवन करे क्लेश, रंगारंग फ़ागुन में॥

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गाए देवर फ़ाग, ननदिया ताने दे।
बैरी सास-ससुर पीहर न जाने दे॥
कटा टिकट तत्काल पकड़ लो ट्रेन सुबह,
राजधानी एक्स्प्रेस, रंगारंग फ़ागुन में॥

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(रंग लूटऽ... हो... लूटऽ ! आ गइल फ़गुआ बहार.... !!)  

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

फ़ुरसत में ... मोती की याद!

फ़ुरसत में ... 122

मोती की याद!

मनोज कुमार

पशु-पक्षियों की भी अपनी भाषा होती है। उनका भी अपना एक संप्रेषण सिद्धान्त होता ही होगा। जब संप्रेषण होगा, तो नामकरण भी वे कर ही लेते होंगे। वैसे तो प्रकृति द्वारा ये जीव स्वतंत्र विचरण और स्वच्छंद जीवन के लिए रचे गए हैं, लेकिन हम मनुष्य उन जीवों की स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का हरण कर उन्हें पालतू बना लेते हैं, और अपनी सुविधा और रूचि के अनुरूप उनका नाम तय कर देते हैं।

जब हम छोटे थे, तो पालतू पशुओं की संख्या और जाति/ प्रजाति बड़ी सीमित हुआ करती थी। गाएँ और भैंसें – बकरी – घोड़े आदि तो इतने पालतू होते थे कि यदा-कदा परीक्षाओं में हमारे पाठ्यक्रम में निबन्ध के विषय होते थे। बिल्लियों ने तब सामाजिक प्राणी होने का दर्ज़ा तो प्राप्त कर लिया था, लेकिन उन्हें घर में प्रवेश की खुली आज़ादी नहीं मिली थी। चोरी छिपे उनके प्रवेश को भी बड़ी हिकारत की नज़र से देखा जाता था, और कुछ विशेष पेय पदार्थों को सिक्के के ऊपर रखा जाता ताकि वह उनकी पहुंच से दूर हो। कुत्ते तो सही अर्थों में कुत्ते ही थे, और गली तक ही सिमट कर कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते रहने का पर्याय बने रहते थे। आम तौर पर गली में फेंके हुए दानों पर निर्भर रहने वालों कुत्तों में से एकाध कुत्ता या उसका पिल्ला कभी कभार हमारे साथ-साथ टहलते-टहलते हमारे घर तक चला आता, तो उसे घर के लोगों की विशेष कृपादृष्टि से कुछ खाने-पीने को भी मिल जाता। एक से अधिक बार इस क्रम के दुहराए जाने के पश्चात उसे मुफ़्त खाने की चसक लग जाती और उसका हमारे घर के समीप आने-जाने का क्रम बढ़ जाता। धीरे-धीरे उसे हमारे यहां आकर खाने की और हमें उसके आने की आदत हो जाती। अब इस आदत को आप पालतू बनाने की प्रक्रिया कहना चाहें तो कह लें! हां इस आने-जाने के क्रम में सहसा उसका नामाकरण भी हो जाता। उन दिनों अधिकांश ऐसे पालतू (फालतू अधिक उपयुक्त होगा) कुत्तों का नाम ‘मोती’ हुआ करता था!! आज के जैसे अनोखे और अलग (something different) नामों का प्रचलन तो उस दौर में था नहीं।

हम कुत्ते को कुत्ता ही कहते थे। बहुत प्यार हुआ तो ‘कुकुर’ भी कह लेते थे। आज अगर किसी पालतू कुत्ते को कुत्ता कह दीजिए तो कुत्ते से पहले उसका स्वामी भौंकेगा – उसे डौगी कहिए, नहीं तो वह बुरा मान जाएगा। और यदि आपने उसके स्वामी द्वारा रखा नाम लिया तो हो सकता वह आपके पैर चाटे या आपकी गोद में भी बैठ कर आपको कृतार्थ करे। इन पालतू जीवों के कई नाम जैसे बौस्की, टाइगर, जैक्सन, आदि प्रचलन में आकर पुराने हो चुके हैं। आज के इस दौर में मेरा भाई जयंत अपने पालतू कुत्ते को ‘घंसू’ कहता है। शायद वह भी ‘पुरातन युग’ में जी रहा है।

अपने छुटपन की बात है। ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी के अपने मकान के बारामदे से सड़क को जाती सीढ़ियों पर बैठा ‘अलुहा’ खा रहा था। तभी एक कुत्ते का पिल्ला कहीं से घूमता-फिरता आ गया। मेरी नज़र उस पर गई। बड़ी प्यारी-सी सूरत थी उसकी। ... सीरत भी ! एक-दो कुलांचे उसने भरी, तो हम उसके आकर्षण के बंधन में बंध गए। उसके कुछ करतबों के एवज़ में हमने ‘अलुहे’ का एक टुकड़ा उसे खिलाया। शायद उसे पसंद आया। उसने कई और करतब दिखाए। सबसे ज़्यादा मज़ा आया जब मेरे पैरों पर गिर-गिर कर वह लोट-पोट करने लगा। हम उसे अलुहा खिलाते गए, - वह हमारा होता गया।

उस दिन से ही अपनी प्यारी सूरत और मृदु व्यवहार के कारण वह हमारे घर का सदस्य बन गया। हमारे बालमन का उत्साह चरम पर था। उसके रहने की जगह निर्धारित की गई। उस जगह को ईंट से घेरा गया। नीचे चट्टी बिछाई गई। और जाड़े की ठंड से उसे बचाने के लिए बोरे का इंतज़ाम किया गया। जब बारी उसके नामकरण की आई तो ‘मोती’ से उपयुक्त कोई नाम हमें नहीं सूझा। इस तरह हम उससे निश्चिंत हुए।

निश्चिंत क्या हुए? पढ़ाई-लिखाई छोड़ हर तीसरे-चौथे मिनट हम उसे झांक आते। सोने के बीच उठ-उठ कर उसके दर्शन करते। किसी तरह रात बीती। सुबह उठा तो पाया कि घर में उस पिल्ले ने यत्र-तत्र मलमूत्र का त्याग करना शुरू कर दिया था। सफाई पसंद मां का सख़्त फरमान ज़ारी हुआ कि उसके द्वारा अपवित्र कर दी गई जगहों की सफाई मुझे करनी होगी। इस फरमान को मुझे अपने सिर माथे पर उठाना पड़ा। इस फरमान के कारण मेरे दैनिक कार्यों में इस एक काम का इज़ाफ़ा हुआ।

इस नए काम को अपनी प्रसन्नता का अंश बनाकर मैं निर्वाह किए जा रहा था। प्यारा-सा वह जीव हमारे दिन-रात का हिस्सा बना हुआ था। लेकिन एक नई मुसीबत सामने आई। रोटी-दूध आदि दिए जाने पर वह उन्हें हाथ लगाता ही नहीं था। उसके उदरपूर्ति की समस्या ने हमें चिन्तित कर दिया। समय से भोजन न पाने के कारण उसकी गतिविधियां कम हो गई थी। हम सब उसका समाधान ढूंढ़ने में व्यस्त हो गए। तभी मुझे कल का वाकया याद आया। वह तो अलुहे का दीवाना बन चुका था। हमने उसे फिर से अलुहा परोसा और वह उस पर टूट पड़ा। इसके साथ हमारे सामने यह चुनौती तो थी ही कि इसे इसके भोजन के स्वाद का परिवर्तन भी करवाना होगा।

एक दिन अपने स्कूल से जब सायं काल लौटा तो देखा कि घर का वातावरण गंभीर-सा है। घर का कोई सदस्य मुझसे बात नहीं कर रहा है। मैं सबसे पहले मोती के आश्रय स्थल पर पहुंचा। वह वहां नहीं था। घर-आंगन छान मारा, वह कहीं नहीं दिखा। घर के लोगों के द्वारा सूचना मिली कि वह भाग गया है। मुझे इस पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। मेरे ज़ोर देने पर लोगों ने बताया कि दिन में घर में मछली बनी थी। जूठन जहां फेंका जाता था वहां पर मोती गया। फेंके गए जूठन में मछली के अंश भी थे। उसका स्वाद उसे भा गया। वह उसे ग्रहण करने लगा। थोड़ा-सा खाने के बाद वह ‘कूं-कूं’ करते इधर-उधर दौड़ने लगा। शायद मछली का कोई कांटा उसके गले में फंस गया था। उसने खून की उल्टी की और बेचारा दूसरी दुनिया के लिए कूच कर गया।

घर के वातावरण से उदासी के आवरण को छंटने में काफी समय लगा। घर के हरेक सदस्य ने यह प्रण किया कि अब इस प्राणी से उतना स्नेह नहीं किया जाएगा। लेकिन ‘होनी’ को कुछ और ही मंज़ूर था। ... फ़र्स्ट नाइट की ड्यूटी (सायं 4 से मध्यरात्रि 12) से घर लौटते वक़्त आधे रास्ते से ही एक श्वान पिताजी की साइकिल के पीछे-पीछे साथ हो लिया। घर तक उसने उनका साथ नहीं छोड़ा। जब पिताजी साइकिल के साथ घर के अन्दर प्रवेश कर रहे थे, तो वह ओसारे के किनारे बैठ गया। पिताजी ने उसे भगाना उचित नहीं समझा होगा। ख़ुद के लिए निकाले गए भोजन में से एक रोटी उसे दी, तो वह उस पर ऐसे टूटा मानों कई दिनों से भूखा हो। अपने हिस्से की रोटियों में से आधे से ज़्यादा उस श्वान को खिला बाक़ी ख़ुद खा सोने चले गए। सुबह उठे, तो देखा वह अतिथि श्वान हमारे गार्डेन में चहलकदमी कर रहा है। बिना किसी फूल-पत्तियों को नुकसान किए उस प्राणी का हमारी बगिया में स्वतंत्र भाव से विचरण करते देख हमें उसके प्रति आकर्षण हुआ। सुबह के नाश्ते में बनी रोटी के एक भाग पर मानों उसका भी अधिकार हो। मां के हाथों परोसी गई रोटियां खाकर व तृप्त हो कुछ देर के लिए वह गायब हो गया। दोपहर के भोजन के वक़्त वह फिर हाज़िर था।

इस प्रकार अनायास ही वह हमारे घर का सदस्य बन गया। नामकरण उसका भी मोती ही हुआ। हम उसके साथ खेलते, वह हमारे साथ। रात्रि के समय घर की पहरेदारी करता। अनजान आने-जाने वाले पर भौंकता भी। वह हमारे घर से प्राप्त आहार को छोड़कर कहीं से कुछ भी दिए गए पदार्थ को स्पर्श नहीं करता। उसके कई इसी तरह के व्यवहार उसे गली के अन्य कुत्तों से अलग करते। परिवार के सभी सदस्यों से घुल मिल जाने के बावज़ूद उसने ओसारे की लक्ष्मण रेखा लांघने की कोशिश तक नहीं की। भूख की व्याकुलता में भी वह अपने लिए निर्धारित मिट्टी के पात्र में भोजन परोसे जाने की प्रतिक्षा करता।

कुछ ही दिनों में वह हमारे दिल के क़रीब हो गया था। पिताजी की जब लास्ट नाइट ड्यूटी (मध्यरात्रि 12 से सुबह 8) होती तो वह उन्हें रेलवे कॉलोनी के बाहर तक छोड़ आता – खासकर उस इलाक़े के बाद तक जहां श्मशान होता था। फ़र्स्ट नाइट की ड्यूटी में उन्हें उस सीमारेखा से रिसीव कर घर तक लाता। उस दिन पिताजी की फ़र्स्ट नाइट की ड्यूटी थी। वे साढ़े बारह तक घर पहुंचे थे। खा-पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे कि एक सज्जन दरवाज़े के पास प्रकट हुए। मोती के भौंकने की आवाज़ थम नहीं रही थी। उन सज्जन ने पिताजी से शिकायत की कि आपने कैसा कुत्ता पाल रखा है? मेरे ऊपर भौंके ही जा रहा है। कुछ काम की थकान कुछ नींद की वजह से पिताजी पहले ही परेशान थे। उसपर से बेवजह इस आई शिकायत से वे कुछ खिन्न हुए। मोती को चुप रहने का आदेश दिया। पर घर का वह रखवाला उस दिन किसी की सुनने के मूड में नहीं था। उसके लगातार भौंकने के दुस्साहस ने नींद से बोझिल पिताजी के मन को क्रोधित किया। पिताजी ने गुस्से में आकर मोती पर छड़ी से वार किया और उसे भाग जाने को कहा। मोती वहां से चला गया। वे सज्जन अपने क्रोधयुक्त स्वरों को और तेज़ करते अपनी नसीहतों का पिटारा देते हुए चले गए। पिताजी भी सोने चले गए।

सुबह पिताजी जब सैर करने निकले तो लगभग पांच का समय था। रेलवे लाइन के किनारे सड़क थी। उसी पर वे सुबह की सैर करते थे। थोड़ी दूर पर कुछ लोगों की भीड़ थी। निकट पहुंचने पर उन्होंने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए पूछा, “क्या बात है?” किसी ने बताया – .. आपका मोती ... ।

पिताजी ने निकट जाकर देखा ... मोती का धड़ पटरी के इस पार और सिर उस पार था।

हम समझ नहीं पाए कि वह दुर्घटना थी या आत्महत्या! लेकिन उसके इस बलिदान को हम आज तक भूल नहीं पाए हैं। उनकी वफ़ादारी तो जगज़ाहिर है, पर कुत्ते में इतनी संवेदनशीलता हो सकती है यह हमें अचंभित किए दे रही थी।

***

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

कैसा विकास है...?


कैसा विकास है...?

-    करण समस्तीपुरी


कैसा विकास है, ये कैसा विकास है?
सूखा-सा सावन है, जलता मधुमास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??



मंगल पर जा बैठे, मँगली को मारते।
सरेआम देवियों की इज्जत उतारते।
पाकेट में इंटरनेट, घर में उपवास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

मानवता गिरवी है धर्म की दुकानों में।
भारत माँ रोती है, खेत-खलिहानों में।
मिलती है बूँद नहीं, सागर की प्यास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

बिकता है न्याय यहाँ कानून दोगला है।
संसद से ऊँचा अंबानी का बँगला है।
गरीबों के रहने को इंदिरा आवास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??





बचपन झुलसता है ईंटों की भट्ठी में।
यौवन सिसकता है गिद्धों की मुट्ठी में।
बेबस बुढ़ापे को वृद्धाश्रम-वास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

हरिया चलाता मिनिस्टर की कार है।
बाबा ने लिक्खा है, मैय्या बीमार है।
कल से बहुरिया की सूरत उदास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

मुफ़्त की मलाई से किसको परहेज है?
सस्ती है दुल्हन और महँगा दहेज है।
इंजिनियर बिटिया को वर की तलाश है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??



नफ़रत उपजती सियासत की मिट्टी में।
करते शिकार खूब धोखे की टट्टी में।
कारनामें काले हैं, उजला लिबास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

अच्छे दिन आएँगे, काल-धन लाएँगे।
सीमा पर दुश्मन के छक्के छुड़ाएँगे।
क्या अपनी बातों पे तुमको विश्वास है?
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

आँखों की देखी जुबानी मैं कहता हूँ।
पानी को खून नहीं पानी मैं कहता हूँ।
फिर भी तुम कहते हो कविता बकवास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??