शनिवार, 2 अगस्त 2014

फ़ुरसत में ... नैना मिलाइके

फ़ुरसत में ... 119

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मनोज कुमार

किसी ने क्या ख़ूब कहा है - जिसकी प्यास एक सुराही से न बुझे वह लाख दरिया को चूमे प्यासा का प्यासा ही रह जाएगा। अब ये बात कहने वाले ने किस सन्दर्भ में कही उसे जाने दीजिये, हमारे सरकारी दफ़्तरों के मामले में तो यह बात कुछ ज़्यादा ही माक़ूल साबित होती है।

न्यू मार्केट में कुछ काम था। वरिष्ठ अधिकारी से कुछ देर की मोहलत मांगी कि वह काम घंटे-डेढ़ घंटे में करके आ जाऊं, तो साहब का फ़रमान ज़ारी हुआ कि आधे दिन की सी.एल. (आकस्मिक अवकाश) लेकर जाऊं। हद है! संवेदन-शून्य होते जा रहे हैं हमारे अधिकारीगण। अब ज़रा-ज़रा से काम के लिए अवकाश की अर्ज़ी देनी होगी। दफ़्तर में मशीनों का कब्ज़ा क्या हुआ, इनकी मानवता भी मशीनी हो गई। कार्यालय में काम तो वही है, उतना ही है, पर हमारे आने-जाने के समय की आज़ादी पर यांत्रिक पाबंदी!!??

lunapic_134388108529867_5पहले प्रवेश द्वार पर कोई खास पाबंदी नहीं रहती थी, तो कभी-भी आते-जाते और घुस जाते, निकल जाते। गेट का दरबान जान-पहचान का तो होता ही था। उसे भी किसी स्थायी कर्मचारी से पंगा लेना उचित न लगता। लेकिन जब से ये मुआ EARS लगा है, तब से ऑटोमैटिक बंद और खुलने वाला दरवाज़ा लग गया है, जो नैनों की भाषा यानि आंखों की पुतली की ज़बान ही समझता है। आंखें चार हुईं तो खुलेगा, खुल जा सिम सिम की तरह। दरबान भी अब कहाँ रहे, उनकी जगह प्राइवेट सिक्यूरिटी वाले आ गए हैं, जो शरीर के अंग-अंग का स्पर्श कर प्रवेश करने की अनुमति देते हैं। डटे रहते हैं किसी निर्मोही की तरह अपनी ड्यूटी पर। यूनियन वालों ने भी ज़्यादा प्रतिरोध नहीं किया। उन्हें बता दिया गया कि ऊपर से आदेश आए हैं। लगाना ही पड़ेगा। व्यवस्था में सुधार होगा, तभी तो अच्छे दिन आएंगे।

कब से आस लगाए बैठे थे कि अच्छे दिन आने वाले हैं। मगर आए क्या खाक, अच्छे दिन! हर तरह की आज़ादी पर पाबंदी लगा कर अच्छे दिन का मायाजाल किस काम का! इस यंत्र के प्रवेश से हृष्ट-पुष्ट कार्यालय की काया क्षीण हो जाएगी, यह शायद नीति निर्धारकों ने सोचा भी न होगा। ऊपर से जब फ़रमान जारी हुआ कि अनुशासन व्यवस्था में सुधार के लिए कठोरतम उपाय अपनाए जाने चाहिए, तो प्रशासनिक अधिकारियों की नज़र सबसे पहले इलेक्ट्रॉनिक अटेंडेंस सिस्टम (EARS) की तरफ़ ही क्यों गई? उनका तर्क था, इसके न रहने से लोग दफ़्तर आने-जाने में मनमानी करते हैं। जिसके जब जी में आया – आया, और जब मन किया – गया। अगर EARS लगा दिया तो ऐसे मनचलों की सारी चहलकदमी दूर हो जाएगी। लेकिन हुआ क्या? हुआ यह कि पहले से ही रुग्ण सरकारी दफ़्तर और बीमार हो गया। जो लोग अपने सरकारी समय में अपना निजी काम भी कर लिया करते थे, उनपर आधे दिन CL की पाबंदी लगी, तो लोग सारा-सारा दिन की ही छुट्टी लेने लगे। दफ़्तर में उपस्थिति की काया क्षीण होने लगी।

हमारे यहां भी सरकारी औपचारिकताओं के बाद आंखों की पुतली के वीक्षण/सर्वेक्षण के आधार पर प्रवेश की अनुमति देने वाला स्वचालित यंत्र स्थापित किया जाना सुनिश्चित हुआ। स्थापना के पूर्व बड़े साहब ने विधि एवम परम्पराओं द्वारा स्थापित नारियल फोड़ने की विधिवत रस्म-अदायगी भी पूरी की। जब पहले दिन पहली खेप में प्रवेश पाने/लेने वाले वाले कर्मचारियों के दिल हर्ष से बल्लियों उछल रहे थे, तभी मेहता जी ने घोषणा कर दी थी कि यह हर्ष क्षणभंगुर है। यह तो वैवाहिक हर्ष है, ज़रा हनीमून पीरियड ख़त्म होने दो, तब पता चलेगा कि यह कैसा गठबंधन है। यहाँ तक कि लिफ़्ट के सामने बैठे रहने वाले श्यामू की बीड़ी भी न जाने कहां गुम थी और बीड़ी की जगह उसकी उंगलियों में फंसी सिगरेट भी मानो उस दिन मेहता जी का मुंह चिढ़ाती हुए कह रही हो कि देखो इस यंत्र के आ जाने से मेरा भी स्टेटस हाई हो गया है। किंतु भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है यह वह क्षुद्र प्राणी क्या जाने। उसे तो यह भी अन्देशा न था कि आने वाले दिनों में उसका भी सामान्य रक्तचाप लो होने वाला था।

हुआ भी ऐसा ही। यह उत्साह दूध में आए उफान की तरह ज़्यादा दिनों तक टिका न रह सका। लोगों का वह हाई स्टेटस, जो समुद्र में आए ज्वार की तरह अचानक हाई हो गया था, पानी में मिट्टी की तरह बैठ गया। जिसे सभी गहना समझ बैठे थे, वो तो बेड़ियाँ निकलीं! लोगों के लिए यह तरक्की कम पाबंदी ज़्यादा साबित हुई। शाम में जाने के पहले और सुबह में आने के वक़्त उस मशीन से गलबहियां कर नैना मिलाना शादी के बाद बीवी द्वारा स्थापित की जाने वाली पाबंदियों की तरह साबित हुई। जो पद्धति चालू हुई थी उसमें न तो किसी मानवीय दखल की आवश्यकता थी और न ही अवसर। रिपोर्ट सीधे बड़े साहब के कम्प्यूटर तक पहुंच जाती थी। देरी से अंखिया मिलाने वालों की गुस्ताख़ी की वे आधे दिन के CL लेने के आदेश से भरपाई करते और जो इस उपहार से बचना चाहते वे ग़ैर-हाज़िर रहना ही बेहतर समझते। परिणाम यह हुआ कि घंटा या डेढ़-दो-घंटा में निपट जाने वाले काम को पूरा करने के फेर में दफ़्तर के कर्मचारी सारा दिन ही गायब रहने लगे और उसीका नतीजा था कि आज दफ़्तर की काया क्षीण हो चली थी।

जब कर्मचारी कम होते हैं तो दफ़्तर में काम भी कम ही होता है। और जब दफ़्तर में काम कम हो, तो ये पाबंदी तो हद से गुज़र जाती है। उस दिन भी ऐसा ही कुछ हो रहा था अपन के साथ। दफ़्तर में समय से घुसना मज़बूरी बन गई थी। और जाना भी छह से पहले होने वाला नहीं था। ऑफिस की फाइलें रजाई में मुंह घुसाए राजकुमारी की तरह अंगड़ाई ले रही थीं। ऑफिस सन्नाटे के गले में बांहें डाले सो रहा था। मन में आलस की नागिन बलखा रही थी। समय बिताने के लिए कितनी देर तक इंटरनेट पर सर्फ़िंग किया जाए! मन तो एक-डेढ़ घंटे में ऊबने लगता है। अभी तो चार-पांच घंटे और काटने होंगे।

इधर आलम यह था कि वक़्त कोर्स की किताबों की तरह ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। टाइम पास करने के लिए जब आप फ़ुरसत से भी फ़ुरसत में हों, तो बरसाती घास की तरह उग आए रचनाकार अपनी विद्वता सिद्ध करने का कोई अवसर नहीं चूकते। ऐसे में मिसिर जी ने अपनी नई रचना का स्वाद चखाते और हमारी मुफ़्त की वाह-वाही लूटते-लूटते अपनी रचनाओं की ऐसी झड़ी लगा दी कि हमारा मन कोसने लगा कि ऐसे दिमाग भक्षियों के लेखन का रसास्वाद करने से तो बेहतर था कि कुछ ऑफिस का ही काम कर लेते। तभी राजेश भाई ने बरसाती दिनों में गरमा-गरम पकौड़ों की प्लेट की तरह सामने प्रस्ताव रख दिया – ‘सामने जो मॉल है, उसमें चलकर ‘किक’ लगाया जाए। सस्ते में टाइम पास हो जाएगा।’ सुझाव ग़ौरतलब था, यानी इन पकौड़ों पर हाथ साफ किया जा सकता था। क्योंकि दोपहर में मल्टिप्लेक्स की फ़िल्मों की टिकट सस्ती हुआ करती हैं। हम चारों की निकल पड़ी और हम निकल पड़े!

लगभग ढाई घंटे की फ़िल्म और आधा घंटा इधर-उधर गुज़ार कर हम वापस कार्यालय पहुंचे। देखा, सब तरफ़ अमन-चैन है। हमें महसूस हुआ हमारी तलाश की ही नहीं गई, वरना रामलाल आते ही बोलता बड़े साहब खोज रहे थे। अब तो इस मशीनी दौर में हमें सुबह घुसते और शाम में निकलते वक़्त ही पूछा जाता है। पहले जो हमारे बॉस हमारे इस तरह के अनियमित व्यवहार पर हमें आंखें दिखाते थे, आज के इस बदले दौर में हमें ‘नैनामिलाइके’ जाने देते हैं।

उस दिन भी आख़िरकार हम समयानुसार नैना मिलाने के लिए नीचे आ ही गए थे। लगा कि सच में हमारी तरक्क़ी हुई है और अच्छे दिन आ ही गए हैं। ‘नैना मिलाने’ के बाद हम यह गुनगुनाते हुए घर की तरफ़ निकल पड़े –

“तरक्क़ी    पे तरक्क़ी हुई है,

ग़ुलामी और पक्की हुई है!”

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