शुक्रवार, 30 मई 2014

मुक्तक - करण समस्तीपुरी

नमस्कार !अनायास कुछ तुकबंदी हो गई। एक मित्र को सुनाया तो उन्होंने कहा, "वाह मियाँ ! अब रुबाइयाँ भी लिखने लगे हो।" कुछ और लिख लिया। कभी अकेले में खुद ही गुनगुना भी लेता हूँ। सोचा कि आप से शेयर कर लूँ तो कुछ बात बने! तो पेश-ए-खिदमत है मेरे मुक्तक। 


मैं दरिया हूँ समंदर की लहर को छोड़ आया हूँ।
उफ़नती मौज़ से साहिल से नाता तोड़ आया हूँ॥
छुपा लाया हूँ अपनी आँख में कतरा समंदर का,
मगर माझी की आँखों में समंदर छोड़ आया हूँ॥

अगर मुमकिन हो तो इक पल को मेरा साथ दे देना।
दिवाली हो तेरी मुझको अमावस रात दे देना॥
मैं तेरे ख्वाब में भर दूँगा सारे रंग फ़ागुन के,
तू मेरी आँख को सावन की एक बरसात दे देना॥

शरीफ़ों की शराफ़त पे यकीं अब हम नहीं करते।
अदीबों की अदाबत से जरा भी हम नहीं डरते॥
मेरे दिल को अगर समझो मेरी आँखों में ये पढ़ लो,
मोहब्बत में कोई सौदा-सियासत हम नहीं करते॥



तू अपनी डायरी में इक जरूरी काम लिख लेना।
हमारे वास्ते दामन पे इक इल्ज़ाम लिक लेना॥
रहूँ मैं या रहूँ न जब तेरी शहनाई गूँजेगी,
तू अपने हाथ में मेहंदी से मेरा नाम लिख लेना॥

उसे पलकों में भर लेना नहीं तो छूट जाएगा।
खुली जो आँख तो सपना सुहाना टूट जाएगा॥
बड़ी नाज़ुक सी डोरी है इसी को प्यार कहते हैं,
जरा सी बात पे बचपन का साथी रूठ जाएगा॥

सरे-बाज़ार होता क़त्ल पर क़ातिल नहीं मिलता।
जिसे माझी डूबोता है उसे साहिल नहीं मिलता॥
मोहब्बत में भी हैं मजबूरियाँ कितनी मेरे हमदम,
कहीं आँखें नहीं मिलती कहीं पे दिल नहीं मिलता॥

रविवार, 18 मई 2014

सत्याग्रह फिर आरम्भ

गांधी और गांधीवाद-158

1913

सत्याग्रह फिर आरम्भ

DSCN1361सत्याग्रह आंदोलन में काफ़ी सूक्ष्म विचार से काम लिया जा रहा था। नीति के विरुद्ध कोई भी क़दम न उठाया जाए इस पर विशेष ध्यान रखा जाता था। जैसे ख़ूनी क़ानून केवल ट्रांसवाल के भारतीयों पर लागू किया गया था, तो इस आंदोलन में केवल ट्रांसवाल के भारतीय ही दाखिल किए गए थे। लड़ाई भी इस क़ानून को रद्द कराने तक सीमित थी। हालांकि भारतीयों की ओर से मांग होती थी कि अन्य कष्टों को भी इस लड़ाई के उद्देश्यों में शामिल किया जाए, लेकिन गांधी जी का कहना था कि इससे सत्य भंग होता है। उनका कहना था कि सत्याग्रही के लिए एक ही निश्चय होता है, वह उसे न घटा सकता है, न बढ़ा सकता है। इससे सत्याग्रहियों की संख्या कमती गई, फिर भी जो मुट्ठी भर सत्याग्रही बचे रहे थे, वे युद्ध का त्याग न कर सके। उन दिनों फिनिक्स आश्रम में बार-बार यह प्रश्न उठता रहता था कि अब आगे लड़ाई कौन लड़ेगा? सात-सात साल से लोग ट्रांसवाल की लड़ाई लड़ रहे थे। वे निरुत्साह हो रहे थे। गांधी जी ने पाया कि सत्याग्रहियों की संख्या अब 40-50 के आसपास ही रह गई थी। गांधी जी के प्रति इन लोगों की निष्ठा निर्विवाद थी। वे तो प्राणों की बाजी लगा देने वाले योद्धा थे। गांधी जी ने ऐलान किया, “इन चालीस को साथ लेकर मैं अंत तक लड़ सकता हूं। ये चालीस तो चालीस हज़ार के बराबर हैं। अगर कोई साथ नहीं देगा तो मैं अकेला ही झोंपड़ी-झोंपड़ी जाकर लोगों को तीन पौंड के अनैतिक कर का विरोध समझाऊंगा, लेकिन यह सत्याग्रह बंद नहीं होगा। सल्तनत ने भारतीय कौम और गोखले जी का अपमान किया है। यह असह्य है।”

वचन भंग हुआ

उस समय के प्रख्यात भारतीय राजनीतिज्ञ गोपाल कृष्ण गोखले ने 1912 में दक्षिण अफ्रीका की यात्रा की और जनरल स्मट्स तथा मंत्रिमण्डल के अन्य सदस्यों से भारतीयों की समस्याओं पर बातचीत की। जब वह भारत लौटे तो वह समझते थे कि एशियाटिक रजिस्ट्रेशन ऐक्ट (एशियावासियों से सम्बद्ध पंजीकरण विधेयक) और गिरमिट-मुक्त मजदूरों पर लगाया गया तीन पौण्ड का घृणित कर रद्द कर दिया जाएगा। उन्हें लगता था कि उनके जाने के बाद यूनियन पार्लियामेंट का जो अधिवेशन होगा उसमें उसे उठा देने के क़ानून का मसविदा पेश कर दिया जाएगा। ऐसा हुआ नहीं। गोखले जी के जाने के बाद एक वर्ष के भीतर ही सरकार की तरफ़ से वचन भंग हुआ। जनरल स्मट्स और जनरल बोथा अपने दिए आश्वासनों से मुकर गए। उसने यूनियन पार्लियामेंट में कहा, “गांधी जैसा चाहते हैं, वैसी मांगें पूरी करना असंभव है। नेटाल के यूरोपियन यह कर उठाने को तैयार नहीं हैं। यूनियन सरकार गिरमिटयुक्त भारतीय मज़दूरों और उनके परिवारों पर लगाए गए तीन पौंड के कर को रद्द करने का क़ानून पास करने में असमर्थ है।”

वचन-भंग की बात गांधी जी ने गोखले जी को लिखी और कहा, आप निश्चिंत रहें, हम मरते दम तक लड़ेंगे और इस कर को रद्द कराके रहेंगे। गोखले जी ने गांधी जी से पूछा था, तुम्हारे पास अधिक से अधिक और कम से कम कितने लड़ने वाले हो सकते हैं। गांधी जी ने जवाब भेजा था, अधिक से अधिक 65-66 और कम से कम 16। उन्होंने यह भी लिखा कि इतनी छोटी से तादाद के लिए मैं भारत से पैसे की मदद की अपेक्षा नहीं रखूंगा। गोखले जी का जवाब आया, “जैसे तुम लोग दक्षिण अफ़्रीका में अपना फ़र्ज़ समझते हो वैसे हम भी कुछ अपना फ़र्ज़ समझते होंगे। हमें क्या करना उचित है, यह तुमको बताने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो महज वहां की स्थिति जानना चाहता था। हमारी ओर से क्या होना चाहिए इस बारे में सलाह नहीं मांगी थी।” इन कड़े शब्दों का मर्म गांधी जी समझ गए थे। इसंमें आश्वासन भी था, चेतावनी भी। उन्होंने इसके बाद चुप रहना ही बेहतर समझा।

स्मट्स ने असेम्बली भवन में यह घोषणा करके कि नेटाल के यूरोपीय लोग गिरमिटियों पर से तीन पौंड का वार्षिक कर हटाए जाने के लिए तैयार नहीं हैं, अंतिम संघर्ष को और क़रीब ला दिया। इससे इस क्रूर कर को युद्ध के कारणों में शामिल कर लेने का सुयोग गांधी जी को सहज ही मिल गया। चलती लड़ाई के बीच सरकार की ओर से कोई वचन दिया जाए और फिर से उस वचन का भंग किया जाए तो यह वचन भंग चलते सत्याग्रह के कार्यक्रम में दाखिल कर लेना नीति विरुद्ध नहीं था। उससे भी बड़ी बात यह थी कि भारत के गोखले जी सरीखे प्रतिनिधि को दिया हुआ वचन तोड़ा जाए तो यह उनका ही नहीं, सारे भारत का अपमान था और यह अपमान सहन नहीं किया जा सकता था। इसलिए तीन पौंड कर को सत्याग्रह के युद्ध में शामिल कर लिया गया और इससे गिरमिटिया भारतीयों को भी सत्याग्रह में शामिल होने का मौक़ा मिल गया। अब तक ये लोग आंदोलन के बाहर ही रखे गए थे। 1913 में फिर सत्याग्रह आंदोलन छिड़ गया। इस बार सत्याग्रह का दायरा बड़ा था। इकरारनामे की अवधि ख़त्म होने पर भी दक्षिण अफ़्रीका में बसे भारतीयों पर तीन पौण्ड का कर लगाया गया था। इसके ख़िलाफ़ भी सत्याग्रह छिड़ा। भारतीय में ज़्यादातर ग़रीब थे और बमुश्किल एक महीने में 10 शिलिंग कमा पाते थे। तीन पौण्ड का कर उनके लिए बहुत ज़्यादा था। जब इसके ख़िलाफ़ सत्याग्रह शुरु हुआ, तो लगभग सारे भारतीय इसमें शामिल हो गए और सत्याग्रह सही मायने में जनआंदोलन बन गया।

सरकार की इस वादाख़िलाफ़ी ने सत्याग्रह आंदोलन में नई जान फूंक दी। गांधी जी ने तैयारियां शुरू कर दी। इस बार की लड़ाई में शांति से बैठना तो हो ही नहीं सकता था। सज़ाएं भी लंबी होनी तय थी। इसलिए टॉल्सटॉय फ़ार्म को बंद कर देने का निश्चय किया गया। वैसे भी मर्दों के जेल से छूटने के बाद वे अपने परिवार के साथ अपने-अपने घर चले गए थे। जो लोग बचे थे, उनमें से अधिकांश फीनिक्स के थे। इसलिए निश्चय हुआ कि सत्याग्रहियों का केन्द्र फीनिक्स हो। फिर भी समस्या तो यह थी ही कि जो आंदोलन एक बार ठण्डा पड़ गया था उसके लिए उत्साह कैसे जुटाया जाए। किंतु सरकार ने ही उसके लिए वो मौक़ा जुटा दिया। सरकार के एक नए फैसले के अनुसार दक्षिण अफ़्रीका में क्रिश्चियन रीति के अलावा की गई सारी शादियां, और वे शादियां जिनका रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ था, निरस्त कर दी गईं थीं।

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रविवार, 11 मई 2014

काम करती मां

काम करती मां

--- --- मनोज कुमार

जब मां आटा गूंथती थी

तो सिर्फ अपने लिए ही नहीं गूंथती थी,

सबके लिए गूंथती थी,

झींगुर दास के लिए भी !

 

मां जब झाड़ू देती थी

तो सिर्फ घर आंगन ही नहीं बुहारती थी

ओसारा, दालान और

झींगुर दास का प्रवास क्षेत्र भी बुहार देती थी।

 

मां जब बर्तन धोती थी

तो सिर्फ अपना जूठन ही नहीं धोती थी

घर के सभी लोगों के जूठे बर्तन धोती थी

झींगुर दास के चाय पिए कप को भी !

 

यह सब करके मां का चेहरा

खिल उठता था फूल की तरह

जिसकी सुगंध पर सबका हक़ था

झींगुर दास का भी !

 

अब बहू आ गई है

बहू ने अपने घर में बाई को रख लिया है

वह झाड़ू, पोछा, चौका-बर्तन कर देती है

पर मां अपना घर आज भी बुहार रही है।

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मंगलवार, 6 मई 2014

खंजन - लगातार दुम ऊपर-नीचे हिलाते रहने वाला पक्षी

खंजन - लगातार दुम ऊपर-नीचे हिलाते रहने वाला पक्षी

अंग्रेज़ी में नाम : White Wagtail

वैज्ञानिक नाम : Motacilla alba

{L. motacilla, a wagtail,-cilla, hair, alba : L. albus, white.}

स्थानीय नाम : हिंदी में इसे धोबन भी कहा जाता है। पंजाब में इसे बालकटारा, बांग्ला में खंजन, आसाम में बालीमाटी और तिपोसी और मलयालम में वेल्ला वलकुलुक्की कहते हैं।

विवरण व पहचान : बड़े प्यारे और सुंदर दिखने वाले इस पक्षी का आकार गोरैयों के बराबर, लगभग 8 इंच लंबा और रंग में चितकबरा होता है। ये पतली होती हैं। इन्हें खड़रिच भी कहा जाता है। नर और मादा रूपरंग में प्राय: एक से ही होते हैं। नर के शरीर ऊपरी हिस्सा राख के रंग का और नीचे का सफेद होता है। सिर के ऊपर का हिस्सा काला होता है। इसकी छाती पर एक काला चन्द्राकार चित्ता भी रहता है। डैने काले होते हैं, जिन पर सफेद धारियां बनी होती हैं। किन्तु उनके सिरों पर सफेदी रहती है। यह पक्षी साल में कई बार अपना रंग बदलता है। जाड़ों में इसके नर के सिर के पीछे एक काला चकत्ता रहता है जो गले के चारों ओर फैल जाता है। सिर का ऊपरी भाग और शरीर का निचला हिस्सा सफेद होता है जिसमें थोड़ी कंजई झलक रहती है। ऊपर का हिस्सा हल्का सिलेटी और डैने काले होते हैं। डैने के परों के किनारे सिलेटी और सफेद होते हैं ; दुम काली होती है जिसके दोनों बाहरी पंख सफेद रहते हैं। गरमी आते ही नर का सारा वक्षस्थल चमकीला काला हो जाता है और मादा का धूमिल होती हैं और शरीर पर की चित्तियां चटक नहीं होती। आंख की पुतलियां भूरी और चोंच और पांव काले होते हैं। भौंहें सफेद होती हैं। जाड़े में, जब इनका प्रजनन काल नहीं होता, आगे का वक्ष पर का काला भाग सफेद हो जाता है। ठोड़ी और गला भी नीचे की तरह सफेद हो जाता है।

व्याप्ति : जाड़े में समस्त भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के घास वाले मैदानी इलाक़ों में पाया जाता है। हमने इसकी तस्वीरें राजगीर, नालंदा और गंगासागर में ली थी।

अन्य प्रजातियां : भारत में पाई जाने वाली इसकी प्रमुख क़िस्में निम्नलिखित हैं –

1. Forest Wagtail – Dendronanthus indicus

2. चितकबरी – ख़ूबसूरती के लिए मशहूर – Large Pied Wagtail – M. maderaspatensis इसे ममोला और कालकंठ भी कहते हैं। यह सफेद खंजन से कुछ बड़ा और उससे अधिक चितकबरा होता है। यह भारतवर्ष का बारहमासी पक्षी है और अपना देश छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाता।

gray_wagtail3. भूरी – Grey Wagtail – M. cinerea इसे खैरैया भी कहते हैं। यह जाड़ों में उत्तर और पश्चिम की ओर से आता है और हिमालय से लेकर धुर दक्षिण तक फैल जाता है। यह अपनी लंबी दुम, निलछौंह स्लेटी पीठ और पीले पेट के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। गर्मियों में यह पक्षी स्वदेश लौट जाता है।

 

 

yellow wagtail4. पीली – Yellow Wagtail – Motacilla flava इसे पिल्किया भी कहते हैं। यह खंजनों में सबसे सुंदर कहा जाता है। इस जाति का खंजन जाड़ों में अगस्त महीने के आसपास उत्तर और पश्चिम से आते हैं और जाड़ा समाप्त होने पर अप्रैल तक उसी ओर लौट जाते हैं।

citrine wagtail (2)5. नीम्बू के रंग का - Citrine Wagtail – M. citreola

6. Eastern Yellow Wagtail – M. tschutchensis

 

आदत और वास : ये सितम्बर अक्तूबर में आ जाते हैं और मार्च-अप्रैल में वापस चले जाते है। काफ़ी चंचल होते हैं। घने जंगलों में ये शायद ही नज़र आएं। अधिकतर ये दिनभर जलाशयों के किनारे या खेत-खलिहानों, पगडंडियों पर या मानव-आवास के बीच, गोशाला, घर के आंगन में आदि स्थानों पर लगातार अपनी दुम ऊपर-नीचे हिलाते हुए इधर-उधर कीड़ों-मकोड़ों के लिए दौड़ लगाते रहते हैं। यह दौड़कर चलता है, अन्य पक्षियों की भाँति फुदकता नहीं। खतरे का आभास मिलने पर उड़ जाता है किंतु थोड़ी ही दूर के बाद पुन: जमीन पर उतर आता है। इसकी उड़ान लहराती हुई होती है और उड़ते समय ‘चिट् चिट्’ जैसी बोली बोलता रहता है। सामान्यत: यह पक्षी दो चार की ही टोली में देखा जाता है किंतु गरमी आते ही जब वे अपने स्थायी स्थानों पहाड़ों की ओर लौटते हैं तो इनका एक बड़ा समूह बन जाता है। गर्मी और बरसात ये पहाड़ों पर या हिमालय की घाटियों में बिताते हैं। वहीं अंडे देते है और शरद ऋतु में इनका फिर से मैदानों और आबादी वाले क्षेत्रों में आगमन होता है। इस प्रकार ऋतु के अनुसार इतनी इतनी दूरियों का स्थानांतरण प्रकृति का एक आश्चर्यजनक चमत्कार ही कहा जाएगा। इस पक्षी को धोबिन भी कहा जाता है। कपड़े धोती महिलाओं के बीच खुद भी मज़े से टहलता रहता है। यह अत्यंत मधुर तान छेड़ता है।

भोजन : यह छोटे-छोटे कीड़ों, मकोड़ों, मच्छरों और नम भूमि से इकट्ठा किए गए सूंड़ियों को अपना आहार बनाता है। कभी-कभी यह घास चरने वाले जानवरों द्वारा परेशान किए गए उड़ते कीड़े को भी पकड़ता है।

प्रजनन : वसंत के समाप्त होते ही ये पक्षी पहाड़ों की ओर चले जाते हैं। वहीं, हिमालय की गोद में पत्थरों के कोटरों में मई से जुलाई के बीच यह अपना प्यालानुमा घोंसला बनाता है। घोंसला सूखी घास, जड़ें, दूब, और इसी तरह के कर्कटों से बना होता है। प्रजनन काल में नर कई मिनटों तक सुरीले गीत गाता है। इसके अंडों की संख्या साधारणतः 4-6 होती है। अंडे चौड़े-अंडाकार होते हैं। छोटे किनारे की तरफ़ नुकीले होते हैं। नर और मादा दोनों मिलकर अंडों की देखभाल करते हैं। चूजों को प्रायः कीड़े खिलाए जाते हैं। नर और मादा द्वारा संतानों को पाल-पोस कर यह इस लायक कर दिया जाता है कि वे वर्षा के समाप्त होते ही नीचे उतर आएं।

संदर्भ

1. The Book of Indian Birds – Salim Ali

2. Popular Handbook of Indian Birds – Hugh Whistler

3. Birds of the Indian Subcontinent – Richard Grimmett, Carlos Inskipp, Tim Inskipp

4. Latin Names of Indian Birds – Explained – Satish Pande

5. Pashchimbanglar Pakhi – Pranabesh Sanyal, Biswajit Roychowdhury

6. हमारे पक्षी – असद आर. रहमानी

7. एन्साइक्लोपीडिया पक्षी जगत – राजेन्द्र कुमार राजीव

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