सोमवार, 26 नवंबर 2012

थानेदार बदलता है

थानेदार बदलता है

श्यामनारायण मिश्र



कितना ही सम्हलें लेकिन हर क़दम फिसलता है
जाने  क्यों हर  बार  हमें  ही  मौसम  छलता  है।

खेतों खलिहानों में मंडी की दहशत फैली
बनिया  सीख गया है साहू सेठों की शैली
ज़मींदार था स्थिर, थानेदार बदलता है।

गौशाले  की  सांठ  -  गांठ   है   बूचड़ख़ाने   से
फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
दूध  नहीं  चूल्हे  पर  अब  तो ख़ून उबलता है।

पात - पात  संगीत  डाल  कंदील कसी थी
रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
उजड़ा  हुआ  सवेरा  बरगद को खलता है।

27 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही दमदार पंक्तियाँ...प्रणाम..

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  2. कितना ही सम्हलें लेकिन हर क़दम फिसलता है
    जाने क्यों हर बार हमें ही मौसम छलता है। ................. आरम्भ लाजवाब।

    खेतों खलिहानों में मंडी की दहशत फैली
    बनिया सीख गया है साहू सेठों की शैली
    ज़मींदार था स्थिर, थानेदार बदलता है। ....... स्थिर को 'इस्थिर' करके पढ़ा ... तभी गीति बनी रह पायी।

    गौशाले की सांठ - गांठ है बूचड़ख़ाने से
    फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
    दूध नहीं चूल्हे पर अब तो ख़ून उबलता है। .............. कम्माल की पंक्तियाँ !!!

    पात - पात संगीत डाल कंदील कसी थी
    रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
    उजड़ा हुआ सवेरा बरगद को खलता है। ................... पहले से कुछ कमतर आस्वाद।

    @ गीत में गीतितत्व/ उसकी ध्वनि ने गीत की सराहना करने को बाध्य कर दिया।

    जब इस ओजमयी गीति का आनंद आने लगता है तभी कुछ देर में ही रसभंग हो जाता है। स्वाद या आस्वाद वाला कुछ भी हो थोड़ा अधिक ही होना चाहिए .... ये प्रसाद जैसा लगा। इस शैली की लम्बी कवितायें मुझे बहुत सुहाती हैं। :)

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  3. आपकी उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 27/11/12 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका चर्चा मंच पर स्वागत है!

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  4. बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ ...मज़ा आ गया

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  5. गौशाले की सांठ - गांठ है बूचड़ख़ाने से
    फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
    दूध नहीं चूल्हे पर अब तो ख़ून उबलता है।

    बहुत सुंदर रचना .... आभार इसे पढ़वाने का ।

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  6. बढ़िया प्रस्तुति |
    बधाई आदरणीय ||

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    1. बरगद के नीचे कई, गई पीढ़िया बीत |
      आते जाते कारवाँ, वर्षा गर्मी शीत |
      वर्षा गर्मी शीत, रीत ना बदल सकी है |
      चूल्हा जाया होय, आत्मा वहीँ पकी है |
      मिला क़त्ल का केस, हुआ थाना फिर गदगद |
      जड़-गवाह चुपचाप, आज भी ताके बरगद ||

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  7. खेतों खलिहानों में मंडी की दहशत फैली
    बनिया सीख गया है साहू सेठों की शैली
    ज़मींदार था स्थिर, थानेदार बदलता है।
    सुंदर रचना ......

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  8. पात - पात संगीत डाल कंदील कसी थी
    रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
    उजड़ा हुआ सवेरा बरगद को खलता है
    Behad sundar!

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  9. बहुत ही बढ़िया सशक्त लेखन....

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  10. मुझे आपसे ईर्ष्या होने लगती है जब यह सोचता हूँ कि ऐसे समय से आगे के कवि का सान्निध्य आपको प्राप्त हुआ और हमारे उनकी कविता-प्रेम के पनपने के पूर्व ही उन्होंने यह नश्वर देह त्याग दी! उनकी लेखनी को सादर नमन!! जब भी इनकी रचना यहाँ पाता हूँ, बिना चमत्कृत हुए नहीं रह पाता हूँ!!

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  11. कितना प्रखर और जाग्रत है कवि
    सारी स्थितियों के बाद -
    'पात - पात संगीत डाल कंदील कसी थी
    रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
    उजड़ा हुआ सवेरा बरगद को खलता है।'
    ये पंक्तियाँ और अधिक उद्वेलित कर जाती हैं!

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  12. पात - पात संगीत डाल कंदील कसी थी
    रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
    उजड़ा हुआ सवेरा बरगद को खलता है।

    गेयता अर्थ छटा नव भाषिक प्रयोग सभी मोहते हैं .

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  13. गौशाले की सांठ - गांठ है बूचड़ख़ाने से
    फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
    दूध नहीं चूल्हे पर अब तो ख़ून उबलता है।

    भावपूर्ण,सुन्दर पंक्तियाँ !

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  14. शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन.
    बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी.बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  15. क्या बात है लेखनी क्या नही कर सकती..इतना सुंदर वर्णन मन के भावों का ..सुंदर गीत प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत आभार..

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