सोमवार, 26 नवंबर 2012

थानेदार बदलता है

थानेदार बदलता है

श्यामनारायण मिश्र



कितना ही सम्हलें लेकिन हर क़दम फिसलता है
जाने  क्यों हर  बार  हमें  ही  मौसम  छलता  है।

खेतों खलिहानों में मंडी की दहशत फैली
बनिया  सीख गया है साहू सेठों की शैली
ज़मींदार था स्थिर, थानेदार बदलता है।

गौशाले  की  सांठ  -  गांठ   है   बूचड़ख़ाने   से
फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
दूध  नहीं  चूल्हे  पर  अब  तो ख़ून उबलता है।

पात - पात  संगीत  डाल  कंदील कसी थी
रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
उजड़ा  हुआ  सवेरा  बरगद को खलता है।

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

दिवाली तब दिवाली हो


-- करण समस्तीपुरी  

दुआ हर ओर से आए, दिवाली तब दिवाली हो।
दिया हर घर में जल जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥

जले आहुतियाँ पहले सभी कलुषित विचारों की।
अँधेरा मन का मिट जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥


न जानें कौन से रस्ते से वन को थे गए रघुवर।
अवध में लौट कर आएँ, दिवाली तब दिबाली हो॥





विदेशी क़ैद में विष्णु-प्रिया बैठी सिसकती हैं।
जो अपने घर चली आए, दिवाली तब दिवाली हो॥

न माँगे भीख होरी, ना मरे बुधिया कुपोषण से।
मिले जब काम हाथों को, दिवाली तब दिवाली हो॥

ये भ्रष्टाचार, ये आतंक, ये महँगाई है 'केशव'।
इन्हें कोई मिटा जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥


-: ज्योति-पर्व की अनंत मंगल-कामनाएँ :-

सोमवार, 12 नवंबर 2012

बुद्धिजीवी किंकर्त्तव्यविमूढ़ है

बुद्धिजीवी   किंकर्त्तव्यविमूढ़   है

श्यामनारायण मिश्र

गज समस्या का उठाता सूंढ़ है
जीविका  का  प्रश्न  पूरा रूढ़ है

एक भद्दा  अंग  भी  ढंकता नहीं
चीथड़ों   की   हो   गई हड़ताल
मौत की मछली फंसाने के लिए
भूख बुनती  हड्डियों  के  जाल
वैताल सा निर्वाह लटका गूढ़ है

हर शहर है बागपत की आत्मा
अलीगढ़,  दिल्ली,  मुरादाबाद,
गांव की हर गली  में है घूमता
जातीयता का क्रूरतम उन्माद
हार  बैठा  मूढ़  छप्पर  ढूंढ़ है

राजनैतिक  दल  जलाने  को  खड़े
आसाम की यह अर्द्ध जीवित लाश
आदमी के तांडव की देख  क्षमता
तड़तड़ा    कर    टूटता   आकाश
बुद्धिजीवी   किंकर्त्तव्यविमूढ़   है
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!

सोमवार, 5 नवंबर 2012

उदासी के धुएं में


उदासी के धुएं में

श्यामनारायण मिश्र

लौट आईं
भरी आंखें
भींगते रूमाल-आंचल
      छोड़कर सीवान तक तुमको,
      ये गली-घर-गांव अब अपने नहीं हैं।

अनमने से लग रहे हैं
द्वार-देहरी
      खोर-गैलहरे
            दूर तक फैली उदासी के धुएं में।
आज वे मेले नहीं
दो चार छोटे घरों के
      घैले घड़े हैं
            घाट पर प्यारे प्यासी के कुएं में।
खुक्ख
सन्नाटा उगलती है
चौधरी की कहकहों वाली चिलम
नीम का यह पेड़,
      चौरे पर शकुन सी छांव अब अपने नहीं हैं।

पर्वतों के पार
घाटी से गुज़रती
      लाल पगडंडी
      भर गई होगी किसी के प्रणय फूलों से।
भरी होगी पालकी
फूलों सजी तुमसे
      औ’ तुम्हारा मन
            लड़कपन में हुई अनजान भूलों से।
झाम बाबा की
बड़ी चौपाल
रातों के पुराने खेल-खिलवाड़ें
      वे पुराने पैंतरे
            वे दांव अब अपने नहीं हैं।