सोमवार, 9 जुलाई 2012

बत्तियां बुझाओ शीशमहल की


बत्तियां बुझाओ शीशमहल की

श्यामनारायण मिश्र

बस्तियां जलीं,
     बत्तियां बुझाओ
          शीशमहल की।

लोग
तिलमिलाने को
नाच समझ बैठे हैं
     कैसा यह जलसा है अगुआ?
चेहरे तो
बर्फ़ हो रहे
     भीड़ है कि, खेल रही फगुआ।
किसको?
     यह सनक उठी
          चहल-पहल की।

क्या होगा?
इतने वर्दी-गणवेशों का
इनसे अंत्योदय का
          द्वार नहीं खुलना।
नाग नहीं,
अजगर है
दंड के हिलने से
          इसे नहीं डुलना।
दलदल से
     उठती है बात
          बस कमल की।

इस अरने भैंसे को
देखा ही क्या है
     सींग अभी खौर नहीं पाया।
इतना आतंकित है
वन इसके भय से
     महुआ तक बौर नहीं पाया।
तुम हो कि,
     सोच रहे
          सोन फसल की।

देखो!
उस पर्वत से
पुरखे थे आए
     कंधों पर लादकर नदी।
चलो!
वहीं लौट चलें
लेकर यह
     बची-खुची बीसवीं सदी।
चुक गई
     यहां तो
          बूंद-बूंद जल की
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

21 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही प्रभावी बन पडा है गीत मनोज भाई

    जवाब देंहटाएं
  2. मिश्र जी को पढवाने के लिए आभार आपका !

    जवाब देंहटाएं
  3. इस गीत में नागार्जुन और गोपाल सिंह नेपाली जी की कविता सा आह्वान है... बहुत बढ़िया गीत.... अभी तो शीशमहल में रौशनी बढ़ ही गई है..और सब रौशनी आम घरो से निकली गईं है...

    जवाब देंहटाएं
  4. मिश्र जी के रचना-संसार से विशेष नेह जुड़ता जा रहा है..जैसे-जैसे उनसे मिलना हो रहा है..

    जवाब देंहटाएं
  5. अच्छी प्रस्तुति |

    बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर ||

    जवाब देंहटाएं
  6. अभिव्यक्ति की ताज़गी और नई उद्भावनाये
    विसंगतियों क और मुखर कर रही हैं !

    जवाब देंहटाएं
  7. देखो!
    उस पर्वत से
    पुरखे थे आए
    कंधों पर लादकर नदी।
    चलो!
    वहीं लौट चलें
    लेकर यह
    बची-खुची बीसवीं सदी।
    चुक गई
    यहां तो
    बूंद-बूंद जल की।

    bahut sundar ....

    जवाब देंहटाएं
  8. देखो!
    उस पर्वत से
    पुरखे थे आए
    कंधों पर लादकर नदी।
    चलो!
    वहीं लौट चलें
    लेकर यह
    बची-खुची बीसवीं सदी।
    चुक गई
    यहां तो
    बूंद-बूंद जल की।

    खुबसूरत भावों से सजी सुन्दर रचना श्यामनारायण जी को सादर नमन ..

    जवाब देंहटाएं
  9. चलो!
    वहीं लौट चलें
    लेकर यह
    बची-खुची बीसवीं सदी।
    चुक गई
    यहां तो
    बूंद-बूंद जल की।..बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति..श्यामनारायण जी को सादर नमन ..आभार

    जवाब देंहटाएं
  10. मिश्र जी की एक और लाजबाब रचना पढ़ कर आनंद आ गया,,,,,,

    RECENT POST...: दोहे,,,,

    जवाब देंहटाएं
  11. इतना आतंकित है
    वन इसके भय से
    महुआ तक बौर नहीं पाया।

    बहुत उम्दा. हर बार कुछ नया मंतव्य.

    बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  12. ब्लॉग पर पधारने और उत्साहवर्धन का धन्यवाद.स्नेह इसी तरह मिलता रहेगा , ऐसी अपेक्षा है .
    बहुत सुन्दर सृजन, सुन्दर भाव, बधाई.

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।