रविवार, 15 जुलाई 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 118

भारतीय काव्यशास्त्र – 118

Parashuram Rai की प्रोफाइल फोटोआचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में कुछ दोषों के गुण में रूपान्तरित होने या दोषों के परिहार की स्थितियों पर चर्चा हुई थी। इस अंक में कुछ ऐसी स्थितियों पर चर्चा करके काव्यदोष का प्रकरण समाप्त किया जाएगा।

यहाँ एक उदाहरण लिया जा रहा है जिसमें पदाधिक्य दोष न होकर काव्य का गुण हो गया है-

यद्वञ्चनाहितमतिर्बहु चाटुगर्भू कार्योन्मुखः कृतकं ब्रवीति।

तत्साधवो न न विदन्ति विदन्ति किन्तु कर्त्तुं वृथा प्रणयमस्य न पारयन्ति।।

अर्थात् अपना काम निकालने के लिए सज्जनों को धोखा देने के उद्देश्य से दुर्जन लोग जो खुशामदभरी बातें करते हैं, ऐसा नहीं है कि सज्जन उनके उद्देश्य को समझते नहीं। वे खूब समझते हैं, फिर भी अपनी सज्जनतावश वे उनकी इच्छा पूरी कर देते हैं।

यहाँ दूसरी बार प्रयोग किया गया विदन्ति पद का अर्थ है खूब समझते हैं, अर्थात् सज्जन लोग समझ तो सब जाते हैं, लेकिन इसे प्रकट नहीं करते। अतएव यहाँ विदन्ति पद का दुबारा प्रयोग अधिकपदत्व न होकर काव्य का गुण हो गया है।

इसी प्रकार वक्ता के हर्ष और भय की स्थिति के वर्णन में अधिकपदत्व काव्यदोष काव्य के गुण हो जाते हैं, जैसे-

वद वद जितः शत्रुर्न हतो जल्पंश्च तत्र तवास्मीति।

चित्रं चित्रमरोदीद्धा हेति परं मृते पुत्रे।।

अर्थात् बताओ बताओ वह शत्रु जीत लिया गया या नहीं। राजा के ऐसा पूछने पर सैनिक बताता है कि वह मारा नहीं गया, क्योंकि वह कहने लगा कि वह आपका दास है, परन्तु अपने पुत्र की मृत्यु पर वह खूब फूट-फूटकर रोया।

यहाँ भी प्रथम वाक्य में वद पद का दो बार प्रयोग हर्ष को और दूसरे वाक्य में चित्रम् पद का दो बार प्रयोग भय को व्यक्त करने के कारण अधिकपदत्व दोष काव्य का गुण हो गए हैं।

कथितपदत्व या पुनरुक्त दोष लाटानुप्रास अलंकार में काव्य का गुण हो जाता है, जैसे-

सितकरकररुचिरविभा विभाकराकार धरणिधर कीर्तिः।

पौरुषकमला कमला सापि तवैवास्ति नान्यस्य।।

अर्थात् हे सूर्य के समान प्रतापी पृथ्वीनाथ, चन्द्रमा की किरणों के समान शुभ्र कीर्ति, पराक्रमश्री और लक्ष्मी तीनों आपकी ही हैं, किसी और की नहीं।

इस श्लोक में कर, विभा और कमला पदों की आवृत्ति अर्थभेद के कारण पुनरुक्त दोष न होकर काव्य का गुण हो गया है। तात्पर्य भेद से शब्दानुप्रास (शब्द की आवृत्ति) लाटानुप्रास कहलाता है। अतएव यहाँ लाटानुप्रास होने से पुनरुक्तदोष काव्य का गुण हो गया है।

अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि में भी पुनरुक्तदोष काव्य का गुण हो जाता है, जैसे-

ताला जाअंति गुणा जाला दे सहिअएहिं घेप्पन्ति।

रइकिरणाणुग्गहिआइं होन्ति कमलाइं कमलाइम्।।

(तदा जायन्ते गुणाः यदा ते सहृदैर्गृह्यन्ते।

रविकिरणानुगृहीतानि भवन्ति कमलानि कमलानि।। संस्कृत छाया)

अर्थात् सहृदयों के द्वारा ग्रहण किए जाने पर ही गुण गुण होते हैं। (जैसे) सूर्य की किरणों से अनुगृहीत होने पर ही कमल कमल होते हैं।

इस श्लोक में दूसरी बार प्रयुक्त कमलानि पद सौरभ, सौन्दर्य आदि विशिष्ट कमल के अर्थ का वाचक होने के कारण यहाँ अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि है। इसलिए इसमें कमलानि पद का दुबारा प्रयोग पुनरुक्त दोष न होकर काव्यगुण हो गया है।

इसी प्रकार विहित पद के अनुवाद्य होने पर भी पुरुक्तदोष काव्यदोष न होकर काव्य का गुण हो जाता है, जैसे-

जितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते।

गुणप्रकर्षेण जनोSनुरज्यते जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः।।

अर्थात् इन्द्रियों के वश में होने से नम्रता आती है, नम्रता से गुणों का प्रकर्ष प्राप्त होता है, गुणों के प्रकर्ष से लोग अनुरक्त होते हैं तथा लोगों की अनुरक्ति से सम्पत्ति प्राप्त होती है।

यहाँ पहले वाक्य में प्रयुक्त विनय पद विधेय है, जबकि दूसरे वाक्य में अनुवाद्य या उद्देश्य के रूप में प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार गुणप्रकर्ष पद भी दूसरे वाक्य में परिणाम के रूप में आया है, जबकि तीसरे वाक्य में कारण के रूप मे आया है। इस प्रकार विहित का अनुवाद्य होने के कारण यहाँ पुनरुक्तदोष न होकर गुण हो गया है।

गर्भितत्वदोष (जहाँ एक वाक्य के भीतर दूसरे वाक्य को प्रविष्ट किया गया हो) भी कहीं गुण हो जाता है। जैसे निम्नलिखित श्लोक में प्रतीहि (विश्वास कीजिए) पद एक वाक्य के भीतर प्रविष्ट कर दिया गया है-

हुमि अवहत्थिरेहो णिरंकसो अह विवेअरहिओ वि।

सिविणे वि तुमस्सि पुणो पत्तिहि भत्तिं ण पसुमरामि।।

(भवाम्यपहस्तितरेखो निरङ्कुशोSथ विवेकरहितोSपि।

स्वप्नेSपि त्वयि पुनः प्रतीहि भक्तिं न प्रस्मरामि।। संस्कृत छाया)

अर्थात् मैं भले ही मर्यादा को तोड़ दूँ या निरंकुश हो जाऊँ अथवा विवेकहीन हो जाऊँ। लेकिन मैं, आप विश्वास करें, आपकी अवज्ञा स्वप्न में भी नहीं कर सकता।

यहाँ प्रतीहि (विश्वास कीजिए) पद वाक्यार्थ को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए बीच में प्रयोग किया गया है। अतएव यह दोष न होकर काव्य का गुण हो गया है।

इस प्रकार के उदाहरण केवल इसलिए दिए गए हैं कि कुछ दोषों को छोड़कर अधिकांश दोष अनित्य हैं। केवल परिस्थिति विशेष में वे दोष होते हैं, पर दूसरी परिस्थिति में जहाँ उनकी अर्थवत्ता पुष्ट हो रही हो, वहाँ वे ही दोष या तो गुण हो जाते हैं या न तो दोष होते हैं और न ही गुण।

इस अंक में काव्यदोषों पर चर्चा यहीं समाप्त की जाती है। अगले अंक से काव्य के गुणों पर चर्चा प्रारम्भ होगी।

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11 टिप्‍पणियां:

  1. सादर प्रणाम |
    पाठ का नियमित विद्यार्थी हूँ-
    संस्कृत उदाहरण खूब भाते हैं-
    फिर भी,
    यदि संभव हो,
    कुछ हिंदी काव्य के उदाहरणों का समावेश करने की कृपा करे ||
    बहुत बहुत आभार ||

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    1. रविकर जी, मैंने हिन्दी बहुत कम पढ़ी है। साथ ही पुस्तकें भी नहीं है। इसके अतिरिक्त समय का अभाव भी एक कारण है। हिन्दी में कुछ काव्यशास्त्रियों ने प्रयास किया है। पर उन्होंने इन सभी तत्त्वों को इतने विस्तार से नहीं लिया है। डॉ. भगीरथ मिश्र ने काव्यशास्त्र पर काफी सराहनीय कार्य किया है। परन्तु गुण और दोष को उन्होंने छोड़ दिया है। इस विषय पर सबसे सराहनीय कार्य आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने किया है। किन्तु कुछ दोषों पर ही चर्चा किया है। हाँ, दोष कहाँ गुण होते हैं इसका संक्षेप में मात्र संकेत कर दिया है, सोदाहरण उन्हें स्पष्ट नहीं किया है। दोष प्रकरण पर लिखे गए इन लेखों में उनके दिए उदाहरण उपलब्धता के आधार पर दिए गए हैं।

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  2. पूरी श्रंखला बहुत सुंदर और ज्ञानवर्धक रही हम सबके लिये. आभार आचार्य जी.

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  3. क्या बात है वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि दिनांक 16-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-942 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  4. जब से पढ़ना सीखा काव्यों को केवल मंत्र मुग्ध होकर पढ़ा , आत्मसात किया पर अब काव्यशास्त्र को समझ कर पढने पर अर्थ अधिक स्पष्ट होते हैं और अतिआनंद भी आता है..इसके लिए आपलोगों का आभार..

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  5. पूरी श्रृखला का मनोयोग से अध्ययन किया गया और काव्य दोषों पर विस्तार पूर्वक चिंतन किया गया .सादर प्रणाम सुन्दर विवेचन के लिए

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  6. काश समय पर संस्कृत की तरफ थोड़ा सा भी ध्यान दिया होता । अब अफसोस होता है ।

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  7. काव्यशास्त्र का दे रहे, लोगों को जो दान।
    मुझको भी मिलने लगा, यहाँ काव्य का ज्ञान।।

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  8. भारतीय काव्यशास्त्र का.देते नित नित ज्ञान
    काव्य शास्त्र हित के लिए, कार्य करे महान,,,,,,

    बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,,

    RECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...

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  9. बहुत आनंद आता है इस श्रृंखला में और ज्ञान वर्धन भी खूब होता है.

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