रविवार, 1 जुलाई 2012


भारतीय काव्यशास्त्र – 117
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में जुगुप्सा और अमंगल जनित अश्लीलता एवं अन्य दोषों के परिहार की स्थितियों पर चर्चा अभीष्ट है। इस अंक में कुछ अन्य दोषों के परिहार की स्थितियों पर चर्चा होगी।
जहाँ कहीं आत्म-चिन्तन या परामर्श का काव्य में वर्णन किया गया हो, वहाँ अप्रतीतत्व दोष काव्यदोष न होकर काव्य का गुण माना जाता है। निम्नलिखित श्लोक मॆ प्रयुक्त नाड़ी, चक्र, शक्ति एवं शक्तिनाथ जैसे शब्द हठयोग और तंत्र शास्त्रों के हैं। परन्तु यह श्लोक कपालकुण्डला के आत्मचिन्तन के अवसर को प्रदर्शित करने के लिए लिखा गया है। अतएव यहाँ अप्रतीत्व दोष गुण बन गया है- 
षडधिकदशनाडीचक्रमध्यस्थितात्मा   हृदि  विनिहितरूपः  सिद्धिदस्तद्विदां यः।
अविचलितमनोभिः साधकैर्मृग्यमाणः स जयति परिणद्धः शक्तिभिः शक्तिनाथः।।
अर्थात् जो शक्तियों से युक्त शक्तिनाथ भगवान शिव आत्मा रूप में हृदय में सोलह नाड़ियों वाले चक्र के मध्य में निवास करते हैं, जो उन्हें जाननेवालों को सभी सिद्धियाँ प्रदान करते हैं और जिन्हें साधक स्थिर-चित्त होकर खोजते हैं, उनकी जय हो।
     इसी प्रकार यदि वक्ता अधम पात्र हो तो ग्राम्यदोष काव्यदोष न होकर काव्य का गुण हो जाता है। प्राकृत भाषा का निम्नलिखित श्लोक महाकवि राजशेखर द्वारा विरचित कर्पूरमञ्जरी नामक नाटिका से लिया गया है और यह विदूषक की उक्ति है-   
फुल्लुक्करं कलमकूरणिहं वहन्ति जे सिन्धुवारविडवा मह वल्लहा दे।
जे गालिदस्स महिसीदहिणो सरिच्छा दे किं च मुद्धविअहल्लपसूणपुंजा।।
(पुष्पोत्करं कलमभक्तनिभं वहन्ति ये सिन्धुवारविटपा मम वल्लभास्ते।
ते गालितस्य महिषीदध्नः सदृक्षास्ते किं च मुग्धविचकिलप्रसूनपुञ्जाः।। संस्कृत छाया)
अर्थात् जो चावल के भात के समान पुष्पगुच्छ धारण करते हैं, वे निर्गुंडी के वृक्ष मुझे प्रिय हैं। वैसे ही भैंस के दूध की निचोड़ी हुई दही के समान सुन्दर मल्लिका पुष्पों के गुच्छे भी मुझे अच्छे लगते हैं।
     यहाँ कलम (चावल), महिषी दधि आदि शब्द ग्राम्य कहलाते हैं। लेकिन विदूषक के द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण इसमें ग्राम्यदोष काव्य का गुण हो गया है।
     काव्य में पदों का न्यून होना न्यूनपदत्व दोष कहीं-कहीं गुण हो जाता है। निम्नलिखित श्लोक में न्यूनपदत्व दोष काव्य का गुण हो गया है-    
गाढालिङ्गनवामनीकृतकुचप्रोद्भूतरोमोद्गमा
सान्द्रस्नेहरसातिरेकविगलच्छ्रीमन्नितम्बाम्बरा।
मा मा मानद माSति मामलमिति क्षामाक्षरोल्लापिनी
सुप्ता किं नु मृता नु किं मनसि मे लीना विलीना नु किम्।।
अर्थात् प्रगाढ़ आलिंगन से जिसके स्तन छोटे हो गए हैं, आनन्दातिरेक से जिसे रोमांच हो गया है एवं स्नेहाधिक्य से जिसके सुन्दर नितम्बों से वस्त्र खिसक गया है और आनन्दातिरेक के कारण अस्पष्ट वाणी में ऐसा बोलती हुई कि हे मानद प्रियतम, बस करो, बस करो, मुझे और अब न सताओ, वह सो गई या मर गई अथवा मेरे मन में समा गई या मेरे अन्दर विलीन हो गई।
     इसमें मा मा (मत, मत) के बाद आयासय (करो) पद की कमी है और माति (अधिक मत) के बाद पीडय (पीड़ित करो) पद की। किन्तु हर्ष एवं सम्मोहन का अतिरेक के कारण तुरन्त इनकी प्रतीति हो जाने के कारण यहाँ न्यूनपदत्व काव्य का गुण हो गया है।
कहीं-कहीं न्यूनपदत्व न तो दोष होता है और न ही गुण। जैसे निम्नलिखित श्लोक पुरुरवा की उक्ति है। उर्वशी के अचानक चले जाने के बाद व्यग्र पुरुरवा उर्वशी के दिखाई न पड़ने का कारण कोई निश्चित कारण नहीं ढूँढ़ पाता है। उसे पहले एक शंका होती है और उसका निराकरण पाता है, फिर दूसरी शंका और उसका नराकरण, फिर तीसरी....
तिष्ठेत्कोपवशात्प्रभावपिहिता दीर्घं न सा कुप्यति
स्वर्गायोत्पतिता भवेन्मयि पुनर्भावार्द्रमस्या मनः।
तां हर्तुं विबुधद्विषोपि न च मे शक्ताः पुरोवर्तिनीं
सा चात्यन्तमगोचरं नयनयोर्यातेति कोSयं विधिः।।
अर्थात् कहीं कुपित होकर वह छिप तो नहीं गई है? लेकिन बहुत देर तक वह कुपित नहीं रहती। कहीं स्वर्ग में तो नहीं चली गयी? नहीं, नहीं वह ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि मेरे लिए उसके हृदय में प्रगाढ़ प्रेम है। कहीं कोई अपहरण तो नहीं कर लिया? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि राक्षस भी उसे अपहरण करने का साहस नहीं कर सकते। फिर भी वह मुझे दिखाई नहीं पड़ रही है, ऐसा क्यों?
            उपर्युक्त श्लोक में पिहिता (छिप गई) पद के बाद नैतद्यतः (ऐसा नहीं है, क्योंकि) पद की कमी है। लेकिन यहाँ पद की कमी कोई चमत्कार नहीं उत्पन्न करती। अतएव इसे गुण नहीं माना जा सकता। दूसरी बात कि हर शंका के बाद दिया गया समाधान स्वतः इन पदों-नैतद्यतः (ऐसा नहीं है, क्योंकि)- के अर्थ की प्रतीति करा देता है। इसलिए इसे न्यूनपदत्व दोष भी नहीं कहा जा सकता। न्यूनपदत्व दोष वहीं मानना चाहिए, जहाँ पदों की कमी के कारण अर्थ की प्रतीति में कठिनाई आए।
     इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में कुछ इसी प्रकार की चर्चा के साथ मिलेंगे।   
*****

6 टिप्‍पणियां:

  1. गुण और दोषों की सुन्दर व्याख्या संग्रहणीय ...

    जवाब देंहटाएं
  2. मनोज जी आप तो बेहद गुणी व्यक्ति हैं आप का लेख देखा अति सुन्दर है,आभार

    जवाब देंहटाएं
  3. हर बार की तरह सुंदर ज्ञान वर्धक जानकारी. आभार आचार्य जी और मनोज का.

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।