सोमवार, 25 जून 2012

प्यास औंधे मुंह पड़ी है घाट पर


प्यास औंधे मुंह पड़ी है घाट पर

श्यामनारायण मिश्र



शांति के
शतदल-कमल तोड़े गए
     सभ्यता की इस पुरानी झील से।
लोग जो
ख़ुशबू गए थे खोजने
     लौटकर आए नहीं तहसील से।

चलो उल्टे पांव भागें
     यह नगर रंगीन अजगर है।
होम होने के लिए
आए जहां हम
     यज्ञ की बेदी नहीं बारूद का घर है।
रोशनी के जश्न की
ज़िद में हुए वंचित
     द्वार पर लटकी हुई कंदील से।

हवा-आंधी बहुत देखी
     धूल है बस धूल है, बादल नहीं।
प्यास औंधे मुंह पड़ी है घाट पर
     इस कुएं में बूंद भर भी जल नहीं।
दूध की
अंतिम नदी का पता जिसको था,
मर गया वह हंस लड़कर चील से।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

शनिवार, 23 जून 2012

फ़ुरसत में ... 106 : झूठ बोले कौआ काटे


फ़ुरसत में ... 106
झूठ बोले कौआ काटे
-- मनोज कुमार




पिछले सप्ताह जो पोस्ट लगाई तो सबसे पहले वाणी जी का मेल आया। http://manojiofs.blogspot.in/2012/06/105.html

something wrong while displaying this webpage ...इस ब्लॉग पर यह वार्निंग आ रही है !

मुझे समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है? मेरे कंप्यूटर पर तो ब्लॉग खुल रहा था। फिर एक-दो और मित्रों ने यह शिकायत की। इस बीच कुछेक टिप्पणियां आ चुकी थीं। इसलिए उन मित्रों की शिकायत पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। लगा उनके कंप्यूटर में ही कोई समस्या होगी। जब बुधवार को एक मित्र ने जानकारी दी कि ब्लॉग खुल नहीं रहा और चेतावनी दे रहा है, तो मेरा माथा ठनका। मैंने अपने कंप्यूटर पर जब इस ब्लॉग को खोलने की कोशिश की तो मेरे कम्प्यूटर पर भी यही दशा थी। अपने अल्प तकनीकी ज्ञान से ब्लॉग को खोलने की कोशिश की पर असफल रहा। तब मुझे संकट मोचक की याद आई।  आप सभी जानते हैं बीएस. पाबला जी संकट की घड़ी में “ही” याद आते हैं। इस “ही” को इनवर्टेड कॉमा में रखने का कारण मैं आगे बताऊंगा, इसमें पाबला जी का दर्द भी छुपा है।

उन्हें (पाबला जी को) मेल किया और उन्होंने मेरे मेल का पांच मिनट के अंदर जवाब दिया।

मनोज जी नमस्कार
ब्लॉग के टेम्पलेट से पराया देश संबंधित कोई विजेटनुमा सामग्री है. उसे हटा दें  
ठीक हो जाएगा
गनीमत है अभी आपका ब्लॉग गूगल की ब्लैक लिस्ट में नहीं आ पाया है. वरना आपके ब्लॉग की सामग्री वाले ब्लॉग खुलने बंद हो जायेंगे  

विस्तृत उपाय, विधि तथा अन्य जुगाड़ तो http://www.blogmanch.com/ पर ही दे पाऊँगा. सॉरी

उनके बताए उपाए से पांच मिनट के अंदर मेरा ब्लॉग चालू हो गया। लेकिन मेरा दिमाग उनके द्वारा लिखे गए अंतिम वाक्य पर अटक गया। इसमें एक छुपा हुआ तथ्य था --- कि ब्लॉगमंच पर तो आते नहीं और जब मुसीबत में फंसते हो तो मेरी याद आती है। ख़ैर वहां गया तो देखा कि बग़ैर इसका सदस्य बने ज़्यादा लाभ नहीं उठाया जा सकता मैं फ़ौरन उसका सदस्य बन गया।

इसके बाद काफ़ी देर उनसे (पाबला जी से) मेल का आदान-प्रदान और बातें होती रही। उन्होंने एक और बात कही
ब्लॉग मंच को ब्लॉगरों के लिए बनाया है, लेकिन कोई तवज्जो ही नहीं देता दिखा तो अनचाहे मन से कठोरता का प्रदर्शन कर उस ओर इशारा करना पड़ रहा :-(”

यही वह “ही” लिखने का सार है। संकट की घड़ी में तो हम उन्हें याद करते हैं लेकिन उनके द्वारा किए जा रहे सामाजिक (ब्लॉग जगत के संदर्भ में) कार्य को हम कोई खास तवज्जो नहीं देते। यह मंच उन्होंने 2011 में हमारे लिए खोला था। यहां जाकर आप इसके बारे में विशेष जानकारी हासिल कर सकते हैं।

पाबला जी ने “कठोरता का प्रदर्शन” शब्दों का प्रयोग किया है। सच ही कहा है उन्होंने। यदि कठोरता का प्रदर्शन न किया जाए तो कई बार मनवांछित हल नहीं मिलता। कई लोग कठोरता प्रदर्शन को स्ट्रेटजी की तरह इस्तेमाल करते हैं। सरकारी महकमें तो यह बड़ा आम है। आइए आपको एक अनुभव सुनाता हूं। गोपनियता की दृष्टि से पात्रों के नाम और स्थान बदल दिए गए हैं।

एक दिन सुबह सुबह दफ्तर पहुंचा तो माहौल विचित्र था। सीपी काफी तमतमाया हुआ इधर से उधर घूम रहा था और कुछ बड़बड़ाए जा रहा था। पी.ए. से पूछा तो मालूम हुआ कि सीट पर बैठते ही सीपी के हाथों अर्दली ने ट्रांसफर आर्डर थमा दिया। कोलकाता से कटनी ट्रांसफर का आदेश देख कर उसका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और तब से वह अपने शब्‍दकोश के सारे सभ्‍य सुशील शब्‍दों का बड़े असंयत भाव से प्रयोग कर रहा है।

खैर मैं अपने दैनिक कार्यों का निपटारे करने में लग गया और एक महत्‍वपूर्ण फाइल जिस पर बड़े साहब से चर्चा करनी थी, को लेकर उनेक दफ्तर में गया और विचार-विमर्श करने लगा।

थोड़ी ही देर बीते थे कि अपना सीपी अनुमति लेकर भीतर प्रवेश किया और बड़े साहब के बैठने का इशारा किए जाने के बावजूद खड़े-खड़े अपनी अत्‍माभिव्‍यक्ति करने लगा।

सर दिस इज नौट फेयर ! मिड ऑफ़ द सेशन में मेरा तबादला....? दिस इज़ अन जस्‍ट !”

बैठो........ बैठो........

व्‍हाट सर? दिस इज द रिवार्ड व्हिच आय एम गोइंग टू गेट आफ्टर गिविंग माई बेस्‍ट ट्वेंटी थ्री इयर्स ऑफ सर्विस एट दिस स्‍टेशन।

इतने सालों से तुम यहां थे, इसलिए तो तुम्‍हारा तबादला हुआ है। जो बीस सालों से अधिक एक ही कार्यालयों में थे उनका ही तबादला किया गया है|”

नही सर यह हमारे ऊपर अन्‍याय है। हमने पूरी कोशिश की आपको खुश रखने की। पर ....... लगता है कुछ लोग (मेरी तरफ इशारा था) मुझसे ज्‍यादा स्‍मार्ट निकला ठीक है सर आप न्‍याय नहीं दे सकते तो भगवान देगा। आप के पास कुछ कहने से होगा नहीं

सीपी ने एक लंबा (pause) पौज मारा और ऊपर की जेब से एक पेपर साहब की तरफ बढ़ाते हुए बोला –“ये रहा मेरा पेपर....... इसे कंसीडर कर दीजिएगा। आई एम नो मोर इंटरेस्‍टेड इन सर्विंग द ऑर्गनाइजेशन। बिफोर रिलिजिंग मी, मेरा वी.आर एक्‍सेप्‍ट कर लीजिएगा।" और वह दन्‍न से मुड़ा। वहां से निकल गया।

बड़े साहब के चेहरे पर कुछ ऐसे भाव थे जो मैं पढ़कर भी अनजान बना रहा।

उन्‍होंने मुझसे कहा- तुम अभी जाओ बाद में चर्चा करेंगे।

मैं जब बड़े साहब के दफ्तर से बाहर निकल रहा था तो मेरे होठों से एक गाना निकल रहा था -अरे! झूठ बोले कौआ काटे , काले कौवे से डरियो। मैं माइके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो।

ये "मैं माइके चली जाऊंगी" वाली धमकी, पहले तो मुस्‍कान ला देता है चेहरे पर, फिर बाद में देखा जाता है कि यह इफेक्‍टिव/प्रभावशाली/कारगर भी काफ़ी होता है। मन चाही मुराद पूरी हो जाती है!

सीपी ने अपने तेइस साल के सर्विस कैरियर में पहले भी तीन बार इस तरह का पांसा फेंका है। और हर बार दांव उसके पक्ष में गया है। इस बार देखें क्या होता है?

खैर मैं अपने ऑफिस में आ गया। शाम होते-होते मेरे टेबुल पर एक आंतरिक आदेश पहुंचा। सीपी का वी आर एप्‍लीकेशन अण्‍डर कंसीडरेशन है और ट्रांसफर आर्डर केप्‍ट इन अबेयांस टिल फर्दर ऑर्डर!!
***

गुरुवार, 21 जून 2012

आँच – 114 – सोनागाछी (कहानी)


आँच – 114 – सोनागाछी (कहानी)

हरीश प्रकाश गुप्त


विभिन्न ब्लागों पर की गईं उनकी टिप्पणियों से ही अब तक कौशलेन्द्र जी से मेरा परिचय था। अभी तक उनके ब्लाग पर जाना हुआ नहीं था, सो उनके रचनात्मक लेखन के बारे में भी अधिक जानकारी नहीं थी। पिछले सप्ताह श्री मनोज कुमार जी ने उनकी एक कहानी का लिंक दिया था। कहानी पढ़ी तो इसकी शैली और इसके भाषिक स्तर के माध्यम से लेखकीय प्रस्तुति ने बहुत प्रभावित किया। आँच स्तम्भ पर लगातार हो रही कविताओं पर चर्चा की एकरसता को भंग करने के इरादे से तथा एक उत्तम कृति को अधिकाधिक पाठकों के समीप पहुँचाने के प्रयास के क्रम में आज की आँच में कौशलेन्द्र जी की कहानी सोनागाछी को लिया जा रहा है। यह कहानी उनके ब्लाग बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना पर पिछले सप्ताह दो अंकों में प्रकाशित हुई थी।

सोनागाछी विषय नया नहीं है। बहुत से रचनाकारों ने इस विषय पर अपनी  कलम चलाई है और अनेक कहानियाँ और उपन्यास इस विषय पर आ चुके हैं। कुछ में एकरूपता और एकरसता है, तो कुछ सोनागाछी को एक नई दिशा में परिभाषित करते हैं, नवीन प्रश्न उठाते हैं, सोचने को विवश करते हैं तथा समाधान प्रस्तुत करते हैं। यह लेखक की अभिनव दृष्टि है। अतिसामान्य हो गए विषय को लेखक का नवीन दृष्टि से देखना और अपने कौशल से सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करना ही पाठक को आकर्षित करता है। 

शायद ही ऐसा कोई हो जिसने सोनागाछी के विषय में न सुना हो। बंगाल का सोनागाछी पूर्वी भारत में देह व्यापार के लिए प्रसिद्ध है। सतही तौर पर देखने पर सोनागाछी ऐसे ही रूप में सामने आता है जो न केवल घृणित और गंदे व्यवसाय का पर्याय है बल्कि सभ्य समाज पर एक धब्बे की तरह है, वर्ज्य है, त्याज्य है। यह सोनागाछी, जिन्हें हम सभ्य समाज के लोग कहते हैं, उनके ही भोग-विलास का साधन है और उनके ही महत्वपूर्ण कार्यों-कार्यक्रमों की सफलता का अनिवार्य उपक्रम सा है। तथापि अपने पास आने वालों को शारीरिक और आत्मिक सुख देने वाले सोनागाछी की पीड़ा अनभिव्यक्त रह जाती है। कम ही लोगों ने इस सोनागाछी के अन्तस में झाँकने की कोशिश की है, इसके इतर पहलू को समझा है। यहाँ महत्वपूर्ण यह नहीं है कि लोग सोनागाछी को क्या समझते हैं बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि सोनागाछियों की अनुभूति क्या है, उनकी पीड़ा क्या है, उनकी मजबूरी क्या है। क्या उनके भीतर भी सुख-दुख की सह-अनुभूति है, सम्वेदना है, क्या वे इस बेड़ी से मुक्त होना चाहती हैं और मुक्त होकर वे क्या पाना चाहती हैं। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने सोनागाछी के इसी अनभिव्यक्त पहलू को विस्तार से तथा बहुत ही मार्मिक ढंग से उद्घाटित किया है।

देश का विभाजन, बांगलादेश का निर्माण, विस्थापन, गरीबी, रोजगार की तलाश, शोषण और मजबूरी आदि ऐतिहासिक संदर्भ में अनेक ऐसे प्रामाणिक तथ्य मौजूद हैं जो सोनागाछी के निर्माण और उसके अस्तित्व को तार्किक पुष्टि देते हैं। लेखक ने इस कहानी में इन सभी अंगों पर सजगता से दृष्टिपात किया है।  

कहानी का प्रारम्भ विभाजन-जनित मर्मान्तक पीड़ा को पुष्ट करती पृष्ठभूमि से हुआ है। फिर लेखक ने बड़ी चतुराई से भ्रम उत्पन्न कर टर्न दिया है और कहानी कुशलता से पाठकों को दूसरी पृष्ठभूमि की ओर ले जाती है। यह प्रस्तुति पाठक के मस्तिष्क में सोनागाछी के स्वरूप और उसकी विवशता का सजीव चित्र खींचती है, जिसमें पाठक मंत्रमुग्ध सा कहानी में खो जाता है। कहानी में सोनागाछियों के स्वप्नों की मूक अभिव्यक्ति भी है जिसे भाषिक सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत किया गया है।

लेखक की लेखनी निसन्देह समर्थ और निरपवाद है। पूरी कहानी में शब्दों का सम्मोहन है। कथोपकथन उपयुक्त और प्रभावशाली हैं। एकाधिक स्थानों पर उक्तियाँ अति दर्शनीय बन गईं हैं। वर्णन में लेखक की क्षमता पर प्रश्न नहीं। तथापि यही वर्णन कुछएक स्थानों पर कहानीपन पर भारी प्रतीत होता है। वहाँ कहानी स्वयमेव कथानक की अनुगामी नहीं बन सकी है बल्कि इसने कुछ-कुछ लेखकीय सम्बोधन/सम्भाषण का रूप ले लिया है। इसका यह भी एक कारण हो सकता है कि कहानी में कथाकार स्वयं वाचक की भूमिका में आ गया है जो कहानी की श्रेष्ठता को कमतर करता है। जबकि कथाकार को स्वयं पक्ष बनने से बचना चाहिए और अपनी ही उक्ति, विचारों को व्यक्त करने के लिए किसी चरित्र को गढ़ना चाहिए, उसका आश्रय लेना चाहिए, तब शायद यह अधिक संगत होता। प्रायः स्वयं को आदर्श चरित्र के रूप में प्रस्तुत करने की लेखक की मनोवृत्ति कहीं सीमा तक खुद को श्रेष्ठ रूप में प्रस्तुत करने की होती है और सजग पाठक को यह संदेश ग्रहण करने में अधिक कठिनाई नहीं होती। रचनाकार तो निरपेक्ष होता है अतः जब वह घटनाक्रम से स्वयं को अलग रखकर परिदृश्य को देखता और दिखलाता है तो यह आदर्श स्थिति होती है।

एक और छोटी सी बात, जिससे सम्भवतः लेखक भी सहमत होंगे, लेखक ने कहानी में एक से अधिक स्थानों पर नेत्रों या नेत्रों से झरना बहने जैसे प्रयोग किए हैं। नेत्र बहुत ही रूक्ष और कर्कश शब्द है जिससे आँसू बहना सुसंगत नहीं लगता। नीर तो नयनों से ही बहता हुआ ही अधिक संगत है और नेत्रों से ज्वाला। कुछ अशुद्धियाँ भी हैं जिन्हें लेखक स्वयं यदि कहानी का निरपेक्ष रूप से पाठ करेंगे तो उन्हें दूर कर देंगे। कथानक की भावभूमि के प्रभाव में सूक्ष्म अशुद्धियाँ दृष्टि से प्रायः ओझल हो जाती हैं। इसके बावजूद कौशलेन्द्र की यह कहानी वर्णन की शैलीगत विशिष्टता और इसमें उनकी सामर्थ्य की छाप छोड़ती है। यह समाज की विसंगति को उजागर करती हुई तमाम प्रश्न उठाती है जो पाठक के मन-मस्तिष्क में कौंधते हैं। यही कहानी की सफलता है। यह कहानी सोनगाछियों की नारीगत विवशता, उनकी मर्माहत कर देने वाली पीड़ा और इसके बावजूद उनके अंदर पल रहे सपनों के पूरे होने की आकांक्षा की सफल प्रस्तुति है। इस कहानी पर पाठकों को एक बार दृष्टिपात कर लेना चाहिए।

मंगलवार, 19 जून 2012

तेजाबी शहरों में


तेजाबी शहरों में

श्यामनारायण मिश्र


छूट गये पीछे
रस के वे निर्झर
केशर की घाटी, 
कुंकुम के टीले।
अमरपुरी के नक्शे
हाथ में लिए
तेजाबी शहरों में आ बसे क़बीले।

गली-गली
लोहे की दुदुंभी बजी
माटी को भूल गई पीढ़ी।
लड़कों को
ताड़ पर चढ़ा कर हम
     नीचे से काट रहे सीढ़ी।
दूध-दही वाली
नदियों में घोल रहे
यंत्रों के बचे-खुचे द्रव काले-नीले।

पर्वत से
नगरों तक पुरखों की लिखी हुई
     मंत्र पत पगडंडी लापता हुई।
इस नई
सुबह की दुधमुंही किरण-कली
जराजीर्ण फैशन की
          ब्याहता हुई।
मधुवन के अते-पते
सूझते नहीं
द्वारे से दते हुए कैक्टस कटीले।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

रविवार, 17 जून 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 116


भारतीय काव्यशास्त्र – 116

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में चर्चा की गई थी कि सुरत के आरम्भ में बातचीत के दौरान द्वयर्थक पदों के प्रयोग से व्रीडाजनित अश्लीलता दोष नहीं होता, बल्कि गुण हो जाता है। इस अंक में जुगुप्सा और अमंगल जनित अश्लीलता एवं अन्य दोषों के परिहार की स्थितियों पर चर्चा अभीष्ट है। 

वैराग्य पर चर्चा के दौरान जुगुप्सा को व्यंजित करनेवाले पद अश्लील दोष काव्यदोष न होकर गुण हो जाते हैं। जैसे-
उत्तानोच्छूनमण्डूकपाटितोदरसन्निभे।
क्लेदिनि स्त्रीव्रणे सक्तिरकृमेः कस्य जायते।।

अर्थात् उतान लेटी हुई फूले मेढक के फटे पेट के समान बहते मवाद (मदनजल युक्त) वाले स्त्री की योनि में कीड़ों के अलावा किसका अनुराग हो सकता है, अर्थात किसी का नहीं।

     यहाँ घृणा-व्यंजक पद वैराग्य की चर्चा होने के कारण काव्यदोष न होकर गुणाधायक हो गए हैं।

     इसी प्रकार श्लेषालंकार द्वारा अमंगल सूचक पद अमंगल जनित अश्लीलत्व दोष न होकर काव्य के गुण हो जाते हैं। निम्नलिखित श्लोक वेणीसंहार नाटक से लिया गया है। इसमें पाण्डवों की विजय तथा कौरवों के भावी अमंगल का वर्णन किया गया है-   
निर्वाणवैरदहनाः  प्रशमादरीणां  नन्दन्तु  पाण्डुतनयाः  सह  माधवेन।
रक्तप्रसाधितभुवः क्षतविग्रहाश्च स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुताः सभृत्याः।।

अर्थात् शत्रुओं का विनाश हो जाने के कारण जिनके वैर की अग्नि शान्त हो चुकी है, वे पाण्डव कृष्ण के साथ आनन्द करें। पूरी पृथ्वी पर शासन करनेवाले (अपने रक्त से  पृथ्वी को सींचनेवाले) क्षत-विक्षत अंगवाले कौरव युद्ध के शान्त हो जानेपर अपने चाहनेवले परिजनों (नौकर-चाकर) के साथ स्वस्थ हों (स्वर्ग में निवास करें)।

     यहाँ दोनों पक्षों की मंगल-भावना व्यक्त की गयी है। परन्तु श्लेष के द्वारा रक्तप्रसाधितभुवः (अपने रक्त से भूमि को रंग देनेवाले), क्षतविग्रहाः (घायल शरीरवाले) कौरव स्वस्थ हो। स्वस्थ का यहाँ दूसरा अर्थ स्वर्ग में निवास करे, अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हों, यह भावी अमंगल-सूचक अर्थ इस श्लोक में अमंगल-सूचक अश्लीलत्व दोष न होकर गुणवाचक हो गया है।

     वाच्य के प्रभाव से व्याजस्तुति अलंकार में पर्यवसित होने से नियत अर्थ की प्रतीति होनेपर कहीं-कहीं संदिग्धत्व दोष भी काव्य का गुण हो जाता है। निम्नलिखित श्लोक एक निर्धन कवि की उक्ति है जिसमें एक राजा स्तुति की गयी है-
पृथुकार्तस्वरपात्रं   भूषितनिःशेषपरिजनं   देव।
विलसत्करेणुगहनं सम्प्रति समवायवोः सदनम्।।

अर्थात् हे राजन, इस समय हम दोनों का घर एक जैसा है। आपका भवन बड़े-बड़े सोने के पात्रों से युक्त है (पृथुकार्तस्वरपात्र) मेरा घर रोते बच्चों का स्थान है, आपके भवन में नौकर-चाकर आभूषणों से अलंकृत हैं (भूषितनिःशेषपरिजन) किन्तु मेरे घर में परिवार के सारे लोग जमीन पर पड़े रहते हैं और आपके भवन झूमती हुई हाथियों से भरा है  (विलसत्करेणुगहन), जबकि मेरा घर चूहों के बिलों की धूल से भरा हुआ है।

इस श्लोक में पृथुकार्तस्वरपात्र (1.पृथूनि कार्तस्वरस्य पात्राणि यस्मिन्, 2.पृथुकानां आर्तस्वरस्य  पात्रं यस्मिन), भूषितनिःशेषपरिजन (1. भूषिताः सर्वे परिजनाः यस्मिन्, 2. भुवि उषिताः सर्वे परिजनाः यस्मिन्) और विलसत्करेणुगहन (1. विलसन्तीभिः करेणुभिः गहनम्, 2. विलान् निर्गता धूलिः तया पूर्णम्) पदों में समास-विग्रह करके दो-दो अर्थ किए गए हैं, जिनमें से एक राजा के ऊपर लागू होता है और दूसरा निर्धन कवि पर। यहाँ कौन सा अर्थ लिया जाय, यह संदिग्ध है। परन्तु दो भिन्न नियत स्थितियों की अभिव्यक्ति होने के कारण स्तुति के बहाने राजा की निन्दा की गयी है- कि तुम्हारे राज्य प्रजा की कैसी दुर्दशा है। अतएव यहाँ संदिग्धत्व दोष काव्य का गुण बन गया है।

            इस अंक में इतना ही। अगले अंक में काव्यदोषों के परिहार संबन्धी कुछ अन्य परिस्थितियों पर चर्चा होगी।
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