शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

फ़ुरसत में ... स्मृति से साक्षात्कार

फ़ुरसत में ... 91 

स्मृति से साक्षात्कार

clip_image002

मनोज कुमार

ऑन लाइन पुस्तक की बुकिंग की थी। सप्ताह भी नहीं बीता, आ गई है। फ़ुरसत में हूं ही, पढ़ने लगता हूं, … पढ़ ही डालता हूं। पुस्तक अगर रोचक हो तो एक सांस में खतम हो जाती है। संस्मरण एक विशिष्ट विधा है। इस विधा को साधना एक कठिन कार्य है। जिस पुस्तक को मैं पढ़ रहा था, वह अलग और मौलिक इस रूप में है कि इसमें रचनाकार के सधे हुए शिल्प की निजी विशेषताएं समाहित हैं।

संस्मरण को हम सम्पूर्ण स्मृति कह सकते हैं। इस तरह की स्मृति जो हमारे आज को अधिक सार्थक, समृद्ध और संवेदनशील बना दे। हमारी स्मृति का एक सिरा हमारे वर्तमान से बंधा होता है, तो दूसरा अतीत से। संस्मरण अतीत और वर्तमान के समय-सरिता के बीच एक पुल है, जो दोनों किनारों के बीच संवाद का माध्यम बनता है।

मेरा फोटोपोस्टग्रेजुएशन करने के लिए वहां बिताए 1990-1996 के उन अनमोल पलों को स्मृतियों में रूस” पुस्तक के ज़रिए शिखा वार्ष्णेय अपने पांच वर्षीय रूस के प्रवास को याद करती हैं। बीते कल के कुछ पात्र, कुछ स्थान, कुछ दृश्य, कुछ घटनाओं के साथ हमारी एक आत्मीयता हो जाती है। एक संबंध बन जाता है। हम उन स्मृतियों को संजोए रहते हैं। रूस में बिताए शुरु के दिनों में चाय पीने की मुहिम में परिचारक को समझाने के लिए जिस नाटकीयता से सारे दृश्य को इस पुस्तक में उन्होंने साकार किया है उसे पढ़कर तब बरबस हंसी आ जाती है जब यह रहस्योद्घाटन होता है कि रूसी में भी चाय को चाय ही कहते हैं।

शिखा की इस किताब में भावुकता के साथ-साथ हास्य-विनोद भी है। जब रूस जाने का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है तब घर का माहौल आम मध्यमवर्गीय परिवार की तरह संशय और उत्सुकता वाला था। मम्मी को जहां संशय है, “एक बार लड़की को विदेश भेजा, फिर तो वहीं की होकर रह जाएगी” वहीं पापा कहते हैं, “क्या हुआ, समझदार है, हम भी तो उसकी ख़ुशी चाहते हैं न!” और बहन के मनोभाव का वर्णन करते हुए लेखिका कहती हैं, “बहन ख़ुश थी, अब ये कमरा उसका और सिर्फ़ उसका होगा। बिस्तर और तकिए उसे नहीं बांटना होगा।”

IMG_3588संस्मरण में महज सूचना नहीं होता, बल्कि एक जीवंत अस्तित्व होता है जो हमारी बीती ज़िन्दगी के अनेक आवर्तों में लिपटा होता है। जो संस्मरण लिख रहा होता है, वह उन आवर्तों की पहचान करता है। “टॉल्सटॉय, गोर्की और यह नन्हा दिमाग” शीर्षक अध्याय पढ़ते वक़्त ऐसा लगता है कि जब वहां के संस्मरण की रचना की जा रही होगी, तो संस्मरणकार के समक्ष स्मृति के साथ-साथ एक आत्मीय संबंध भाव भी रहा होगा। इसमें न सिर्फ़ उनका अपना आत्मानुभव है बल्कि स्वयं को खोजने-पहचानने की ईमानदार कोशिश भी नज़र आती है। लिखती हैं, “वहां जाने के बाद गोर्की के उपन्यास मुझे कुछ-कुछ पसंद आने लगे थे। अब चाय का क़र्ज़ भी तो निभाना होता है ना।”

शिखा जी के संस्मरण पढते वक़्त लगता है कि जीवन के लौकिक अनुभवों को संबंधों के प्रकाश में सहेजने की इनकी आकांक्षा ने इस रचना को जन्म दिया है। विदेश की धरती पर बिताए क्षणों के बीच इस संस्मरण में अपनी माटी से जुड़े होने का जहां एक ओर अहसास कराती हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी जीवंतता और सरसता आकर्षित करती है। “छुट्टी पर भारत से आने वाले के हाथ मूली-गोभी के पराठे ज़रूर मंगाए जाते … और यह कहने की ज़रूरत नहीं कि उन पर लाने वाले का कोई हक़ नहीं होता था।”

कहानी और संस्मरण का ढांचा मिलता-जुलता है। कई बार अच्छे ढंग से लिखे गए संस्मरण और कहानी में अंतर नहीं दिखता। वो कौन थी” शीर्षक अध्याय शिखा जी

का संस्मरण होते हुए कहानी का-सा प्रभाव पैदा करता है। जब वो रुसी भाषा सीखने के लिए “वेरोनिश” की यात्रा पर होती हैं, तो उन्हें ज़िन्दगी का पहला और सबसे खतरनाक वाकये का समना करना पड़ता है और उस परिस्थिति से वह किस प्रकार निकल पाती हैं वह एक सस्पेंस थ्रिलर की गति से लिखा रोचक प्रकरण है। हां भारत की सहमी, सकुचाई सी लड़की इस घटना के बाद “बोल्ड गर्ल” के ख़िताब से नवाज़ी गई।

संस्मरण में रचनाकार शुरु से लेकर अंत तक एक आलंबन (सहारा) के साथ गहरी आत्मीयता से जुड़ा होता है। यह आत्मीयता शिखा की स्मृतियों में इस कदर प्रगाढ़ है कि वो कहती हैं, “मास्को अपनी ही मातृभूमि जैसा लगने लगा।” संस्मरण रचना का मूल लक्ष्य मूल्यवान स्मृति को सुरक्षित रखना होता है। और शिखा जी ने रूस में बिताये अपनी अमूल्य स्मृतियों को इस पुस्तक के माध्यम से न सिर्फ़ सुरक्षित रखा है बल्कि हमसे बांटा भी है। “मास्को हर दिल के क़रीब” शीर्षक अध्याय में उस शहर के हर दर्शनीय स्थलों का विवरण बड़े ही रोचक अंदाज़ में किया गया है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि संस्मरण न तो हम सूचना के आधार पर लिख सकते हैं और न ही साक्षी भाव से। स्मृति तो अतीत की वर्तमानता की बोधक होती है।

संस्मरण में रचनाकार स्वयं का अनुभूत सत्य लिख रहा होता है। जहां कहानियों में सत्य आभासित होता है, वहीं संस्मरण में सृजित होता है। कल्पना का प्रयोग यहां भी होता है, लेकिन इसकी भूमिका संयोजन, अन्वय (सम्बंध स्थापित करना) एवं रचनात्मक प्रभाव पैदा करने की होती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है उनके द्वारा रूस के प्राचीनतम नगर कीवस्काया का वर्णन। कहती हैं, “एक सप्ताह में हमने देखा एक प्राचीन कलात्मक, खूबसूरत शहर जो अपार प्रकृति संपदा लिए हुए था। इन सबसे भी बढ़कर पाया वहां के सहृदय लोगों का प्यार और आदर। … कीव शहर को जब हम छोड़ रहे थे तो लगा कि कीव हाथ हिला कर कह रहा हो फिर आइएगा।”

संस्मरण में यात्रा हर स्थल, मानव संपर्क, रास्ते, देश-काल, भिन्नता और विविधता में गहरे प्रवेश करने वाली दृष्टि के साथ होनी चाहिए। शिखा ने जगह-जगह इस पुस्तक में यह अहसास दिलाया है कि अपने समस्त अनुभव-ज्ञान से रचना को संपुष्ट करने की क्षमता भी उनके भीतर के रचनाकार में है। “टर्निंग पॉइंट” शीर्षक अध्याय में एक अद्योगिक नगरी का वर्णन इस सहजता के साथ करती हैं कि लगता है उनके साथ हम भी शहर में हैं। वहां की विशिष्टता का वर्णन करते हुए कहती हैं, “पहली बार अहसास हुआ कि सिविक सेन्स किसे कहते हैं। वहां लोग न ख़ुद नियम तोड़ते थे न किसी को तोड़ने देते हैं।”

इस तरह की रचना में जब तक पाठक को पूरी तरह शामिल करने की क्षमता न हो, तो वह गूंगे का गुड़ ही बनी रहेगी। 1990-91 के “प्रेरोस्त्राइका” के काल का वर्णन जिस ईमानदारी के साथ उन्होंने किया है वह पढ़कर मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं हो रही है कि यह पुस्तक एक बहुत ही उत्कृष्ट कोटि का संस्मरण हैं।

संस्मरण अनुभव, सौन्दर्य बोध और प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति है। शिखा जी ने “टूटते देश में बनता भविष्य” शीर्षक अध्याय में उस देश की आर्थिक तंगी के अपने संस्मरण को इस शैली में लिखा है कि इसे पढ़ते वक़्त कई बार दिल भर आता है। वहां की घटनाओं की पृष्ठ्भूमि में लिखे गए इनके संस्मरण में साधारण के प्रति आकर्षण एवं स्वस्थ एवं नैतिक जीवन पर बल दिया गया है।

शिखा जी का संस्मरण स्मृति से साक्षात्कार है। वह समय में लौटना नहीं है, बल्कि गुज़रे समय को जीवन की वर्तमानता से जोड़ने का माध्यम है। इस रूप में वह इकहरे वर्तमान की रिक्तता को भरने वाला सशक्त रचना माध्यम है। जब लेखिका यह कहती हैं, “आदमी जो सोचता है, वैसा हो जाए तो फिर भगवान को कौन पूछेगा?” तो वह यही साबित कर रही होती हैं कि ज़िन्दगी में तूफान का आना-जाना लगा रहता है, ज़रूरत है इन संकट के समय में अपने हौसले, आदर्श और संवेदना को सही ढंग से इस्तेमाल करने का। रूस की बदलती अर्थव्यवस्था के कारण बहुत से आकस्मिक संकटो का पहाड़ टूट पड़ता है, यहां तक कि मुफ़्त शिक्षण बंद कर दिया जाता है। खाने-पीने और ज़रूरत की हर चीज़ों के दाम आसमान छूने लगते हैं। स्थिति यह हो जाती है कि “स्टेशन की बेंच” पर डेरा डंडा जमाना पड़ता है। किंतु वह विकट परिस्थितियों का डटकर मुक़ाबला कर संकट से पार होती हैं, उनका सपना पूरा होता। कहती हैं, “इंसान को सपने ज़रूर देखने चाहिए, तभी उसके पूरे होने की उम्मीद की जा सकती है।”

IMG_3586संस्मरण में रचनाकार ख़ुद को भी प्रकाशित करता चलता है। इसे कल्पना करके नहीं लिखा जा सकता। क्योंकि आत्मीयता, अनुभव की प्रत्यक्षता और घटना एवं परिवेश की सत्यता इसका आधार तैयार करते हैं। इसमें व्यक्ति का संबंध होता है। ऐसा संबंध, किसी भी स्तर पर रचनाकार की ज़िन्दगी को अर्थ देता है, उसमें भराव या खालीपन पैदा करता है, जिस कारण वह संस्मरणीय हो जाता है। अपनी डिग्री लेकर भारत लौटकर आने वाली शिखा अब बदली हुई इंसान हैं और लिखती हैं, “नहीं खतम हुई वो सुनहरी यादें, वो मस्ती के दिनों की कसक, वो थोड़े में ही ख़ुश रहने का जज़्बा और अपनों से दूर ग़ैरों को अपनाने की ख़्वाहिश।” संस्मरण रचना वर्तमान को एक दिशा, पहचान और संस्कार देती है। हमारा वर्तमान तात्कालिकता वाला होता है, एक आयामी होता है, इसमें सूचनाओं की प्रधानता होती है! हम यदि अतीत की प्रतिमा पर पड़ी धूल को झाड़कर उन्हें बार-बार पहचानने योग्य बना दें – तो “स्मृतियों में रूस” जैसा एक सार्थक संस्मरण तैयार हो सकता है।

***

29 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी रोचक लग रही है यह पुस्तक, पढ़ी जायेगी..

    जवाब देंहटाएं
  2. यह पुस्तक मैंने भी पढ़ी है ..पर जिस गहनता से आपने हर पृष्ठ पर दृष्टि डाली है वो काबिले तारीफ़ करने योग्य है .. आभार

    जवाब देंहटाएं
  3. कई लोगों की समीक्षा आई है इस पुस्तक पर.. हर समीक्षा में अलग रंग दिखा है... आपकी समीक्षा किताब को अलग नज़रिए से देख रही है... सुन्दर...

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी समीक्षा में कुछ और जानने को मिला ...

    जवाब देंहटाएं
  5. .मै पढ़ चुका हूँ इस पुस्तक को .आपकी नज़र से भी देखा इस पुस्तक को . पुस्तक के हर पहलू पर आपकी पारखी नजर दौड़ी है . समीक्षक और लेखक को बधाई .

    जवाब देंहटाएं
  6. इस पुस्तक की चर्चा पहले भी सुनी है,अब आपने जिज्ञासा बढ़ा दी है !

    जवाब देंहटाएं
  7. गहन अध्ययन.. विस्तृत चर्चा... पैनी नज़र.. सुन्दर विवेचना.. कुल मिलाकर फुर्सत में ही लिखी गयी है पोस्ट!!

    जवाब देंहटाएं
  8. आपने बहुत ही संजीदगी से समीक्षा कर दी है. उनके कुछ रूस के संस्मरण पूर्व में उनके ही ब्लॉग पर पढने का सुअवसर मिला था और बहुत ही आनंद आया था. पुस्तक का जुगाड़ करना ही होगा, अपने भोपाल वापसी के बाद. अभी तो चेन्नई में अटका हुआ हूँ.

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच
    लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर की जाएगी!
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  10. आप की की गई समीक्षा से लगता है पुस्तक रोचक होगी..पढ़ाजाए...

    जवाब देंहटाएं
  11. धन्यवाद परिचय के लिये। पूश्किन के देश में (महेश दर्पण) खरीदी थी। उसे पूरा कर लें, फिर शिखा जी की इस पुस्तक का नम्बर लगाते हैं!

    जवाब देंहटाएं
  12. aapki behtarin sameksha se kitab ke baare me bahut kuch jaane ka mauka mila..jab padhne ka mauka milega to aaur bhee aanan aayega..sadar badhayeee ke sath

    जवाब देंहटाएं
  13. आप फुर्सत में कमाल ही कर जाते हैं. मेरे पास तो शब्द ही नहीं बचे कुछ कहने के लिए.आपकी गहन दृष्टि को सलाम.

    जवाब देंहटाएं
  14. बहुत बढ़िया समीक्षा ...
    शिखा जी और मनोज जी बधाई..

    जवाब देंहटाएं
  15. स्मृतियों में रुस की चर्चा खूब हो रही है। इस समीक्षा के बाद तो मेरा दिल ललचा गया है...मैं भी इसे पढ़ ही लेता हूं...

    जवाब देंहटाएं
  16. बहुत सुन्दर...अब पढ़ना ही पडेगा किताब.

    जवाब देंहटाएं
  17. आपकी रोचक समीक्षा पुस्तक के प्रति उत्सुकता बढ़ा रही है..
    सादर.

    जवाब देंहटाएं
  18. एक ऐसे वक्त में जब स्मृतियों को लिखने की परम्परा खत्म होती जा रही थी ,शिखा का ये प्रयास मील का पत्थर साबित हुआ है |सोवियत संघ के विघटन के बाद से हिंदी के लेखकों ने रूस को लगभग भूल दिया था ,शिखा के प्रयासों से रूस हमारी आँखों के सामने फिर से जिन्दा हो गया ,शिखा और मनोज दोनों को मेरा सलाम

    जवाब देंहटाएं
  19. गहनता के साथ विवेचनात्मक दृष्टि सहित समीक्षा की प्रस्तुति है .. शिखा जी की इस पुस्तक को पूर्व सोवियत के अधिसंख्य देशों की प्रथम यात्रा पर जाने वाले को अवश्य पढ़ना उचित होगा। यद्यपि विगत से अबतक बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है किन्तु परिवेश के जिन अध्यायों को शिखा वार्ष्णेय जी ने पुस्तक में भावपूर्ण ढंग उकेरा है वहां का सामाजिक परिवेश आज भी उनके चारो ओर ही घूमता है। इस दृष्टि से यह पुस्तक एक बार खरीद्कर निजी संग्रह करने के लिये नितान्त योग्य है।

    जवाब देंहटाएं
  20. इस बारे में शिखा...पहले भी काफी कुछ पढ़ा था मैंने....मगर आज की यह समीक्षा....बहुत कुछ बयाँ कर दिया इसने आपकी किताब के बारे में...मगर सोच रहा हूँ कि काश यह किताब अभी मेरे पास होती... वैसे मैंने ऐसा पहले भी सोचा था कि यह किताब मैं पढ़ पाता...मगर कहते हैं कि आदमी की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती तो भगवान को कौन पूछता....है ना शिखा....खैर पढ़ ही डालूँगा कभी इसे भी...!!

    जवाब देंहटाएं
  21. `टूटते देश में बनता भविष्य' शीर्षक का जिक्र आया है...इस शीर्षक को पढ़ने के बाद पूरा अध्याय पढ़ने की इच्छा जाग गई है...

    जवाब देंहटाएं
  22. बेहद गहराई से किया है आपने इस समीक्षा को ... आभार !

    जवाब देंहटाएं
  23. बहुत ही बढ़िया समीक्षा आपके द्वारा की गई इस पुस्तक की समीक्षा से इस पुस्तक के बारे मे थोड़ा और जानने को मिला आभार...

    जवाब देंहटाएं
  24. एक महत्वपूर्ण रचना और रचनाकार के संबंध में जानकारी देने का धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  25. बहुत ही बढ़िया समीक्षा आपके द्वारा की गई

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।