बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

स्मृति शिखर से - 6: पाँच साल

स्मृति शिखर से - 6 : पाँच साल 
DSC00162करण समस्तीपुरी

परिवर्तन ही एकमात्र शाश्वत है। सत्य मानकर रेवाखंड को अंतिम नमन कर चल पड़ा शहर बंगलौर के लिए। चल उड़ जा रे पंछी कि अब यह देश हुआ बेगाना। पाँच वर्ष हो गए। पूरे पाँच वर्ष। 7 मार्च 2007 को एक बिहार का अल्हड़ देहाती सुदूर दक्षिण में अवस्थित भारत के सिलिकान वेली में आया था पत्रकारिता करने। कोई साथी न सहचर... गाँठ में कुल जमा पाँच सौ रुपये, फ़टेहाल थैली में परास्नातक की उपाधि, मन में रेवाखंड की मचलती स्मृतियाँ, आँखों में भविष्य के रंगहीन सपने और जिह्वा पर टूटी-फ़ूटी अँगरेजी।

गाड़ी चेन्नई सेंट्रल स्टेशन के प्लेटफ़ार्म नंबर 3 पर रुकी थी। सुदीर्घ रेल-यात्रा के अंतिम दिन का पहला बड़ा ठहराव। चाय-काफ़ी की तलब मालूम पड़ी। सुना था चेन्नई में काफ़ी बहुत बढ़िया मिलती है। हमारे कंपार्टमेंट के सामने ही आई.आर.सी.टी.सी का स्टाल पड़ा था। सिर्फ़ पाँच रुपये में कड़क काफ़ी मिली...! शक्कर कुछ कम था शायद। हिंदी में किए गए मेरे दो-चार अनुरोध शायद वेंडर भैय्या के कानों को छू तक नहीं पाई थी। रेवाखंडी अँगरेजी का सहारा काम आया...! तिरस्कृत भाव से ही सही प्याली में प्लास्टिक की छोटी चम्मच भर चीनी डाल दिया। चीनी प्राप्त कर कृतार्थ होने की वही अनुभूति मिली जो किसी श्रद्धालु को शालिग्राम का चरणोदक लेकर होती है।

गाड़ी अपना अंतिम पड़ाव अर्थात बंगलोर के यशवंतपुर स्टेशन पहुँच चुकी थी। भैय्या लेने आए थे। खुशी हुई... हिंदीतर भाषी महानगर में तात्कालिक लक्ष्य ढूंढने का संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। भाभी थी साथ आई थी और दो वर्ष की बड़ी भतीजी। उफ़... गाँव के हाट से खरीदे हुए कुछ मौसमी फ़ल और सब्जियों की जिर्ण झोली मैं ने सलज्ज हो कमर के पीछे छुपा लिया था मगर गाड़ी से उतरते ही भाभीजी ने वह झोली हठात छीन ही ली थी।
दो दिन बाद नए-नवेले साप्ताहिक अखबार के छोटे से दफ़्तर में साक्षातकार था। भैय्या साथ आए थे। दो घंटे की जाँच-परख के बाद संपादक जी ने चयन की शुभ-सूचना दी। बड़ा सा नगर... बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ, बड़े-बड़े उद्यान... बड़ी-बड़ी कारें, बड़े-बड़े लोग, धीमा ट्राफ़िक, तेज-तर्रार जिंदगी... और अखबार का आसन्न अल्प-आय! मन संकल्प-विकल्प में डूबने-उतराने लगा। मेरे बदले भैय्या ने ही कहा था कि एक दिन का वक्त दे दीजिए सोच-विचार करने के लिए। लौटते हुए कार में ही यह निर्णय हुआ कि ‘जनाग्रह’ की पेशकश कबूल कर ली जाए। घर पहुँचते ही संपादक जी को अपनी स्वीकृति दूरभाष से भेज दिया।

कंप्यूटर का नाम ही सुना था... यहाँ तो काम भी करना होगा। कोई दसेक दिन का प्रशिक्षण मिला अखबार के ही दफ़्तर में और फिर उप-संपादकीय दायित्व। अखबार नया था, संसाधनों की कमी थी, श्रमाधिक्य और अल्प-आय। उस पर से संपादक और प्रधान-संपादक की खिच-खिच। सात मास में ही मेरा धैर्य जवाब दे गया। एक विवाद पर अखबार से अपना रास्ता अलग करने का निर्णय कर लिया।


अखबार के साथ काम करते हुए एक और मजेदार बाकया हुआ। उस अखबार के नियम के मुताबिक मुझ पर उपसंपादकीय दायित्व था अतः मैं अन्यत्र कहीं लिख नहीं सकता था। मतलब कि फ़्रीलांसिग नहीं कर सकता था। सिर्फ़ खबरों पर कैंची चला कर कलम के कीड़े को मारा नहीं जा सकता। केशव कर्ण समर्पित रहे अखबार के संपादकीय विभाग के लिए लेकिन करण समस्तीपुरी ने कलम उठा लिया था। फ़्रीलांसिग के लिए चुना गया   छ्द्म नाम ही मेरा पहचान बन गया। अखबार से नाता टूटने के बाद भी करण समस्तीपुरी बने रहे।

कभी-कभी भाग्य पर भी विश्वास करना पड़ेगा। मौखिक त्याग-पत्र के बाद दिल्ली जाने का मन बना चुका था। परन्तु भैय्या ने समझाया, “ऐसे थोड़े न होता है... इस तरह के बात-विवाद तो निजि क्षेत्र में जीवन-पर्यंत होते रहेंगे तो कहाँ-कहाँ छोड़ोगे...? और दिल्ली-बंगलोर-मुंबई-मुल्तान किसी समस्या का समाधान नहीं है। नौकरी यहाँ भी मिल जाएगी और यहाँ रहकर भी दिल्ली में भी तलाश ली जाएगी। जब तक कहीं और अवसर नहीं मिल जाता बेहतर है कि अखबार के दफ़्तर जाते-आते रहो और वहाँ न जाना चाहो तो कोई बात नहीं। मैं हूँ न...! तुम यहीं रहोगे... यहीं रहकर दूसरी नौकरी खोजो।” अगले ही दिन एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से बुलावा आ गया। दो राउंड की जाँच-परख के बाद यहाँ भी बात बन गई। आय भी अपेक्षाकृत सुधर गई थी।

एक साल हो गए थे बंगलोर में रहते हुए। कपड़ों का सलिका आ गया था, आफ़िस-मैनर्स भी सीखे, अंगरेजी भी कुछ हद तक सुधर गई थी लेकिन वह गँवई मेरे व्यक्तित्व से अलग नहीं हो पा रहा था या यूँ कहें कि मैं खुद भी उस से अलग नहीं होना चाह रहा था। बहुराष्ट्रीय कंपनी के अपने दफ़्तर से लैपटाप का एक्जिक्यूटिव बैग लाकर घर में उसी संकोच के साथ छुपाता हूँ, जैसे पहली बार वो झोला छिपाया था। मेरा यत्न अभी भी असफ़ल ही जाता है। तब के भाभी ने झोली हठात छीन ली थी अब भतिजियाँ उनमें अपने लिए कैडबरी ढूंढने लगती हैं। हर सांझ मेरा बंगलोर आगमन स्मरण हो आता है। बिजली की चकाचौंध में भी स्मरण हो आता है मेरा गाँव, मेरा घर, मेरे लोग, उन लोगों की बातें, रहन-सहन... वो अपनत्व... ! बंगलोर की हर सांझ मुझे उस सांझ से भिन्न नहीं लगती जब मैं अपने काँधे पर एक बैग लटकाए चल पड़ा था। पूरी मित्र मंडली साथ हो गई थी। गाँव के आबालवृद्ध आशीष और अभिवादन के साथ विदाई देते हुए तब तक देखते रहे थे जब तक उनकी आँखों से ओझल नहीं हो गया...! मैं भी तो उन्हे देखता ही रहा था...! हर सांझ यही लगता है कि वह कल ही की तो सांझ थी। 

उस सांझ जो छूट गया उसकी तलाश आज भी है। आज भी मेरे व्यक्तित्व का विवशार्ध ही बंगलोरियन है। उस सांझ के अधूरेपन को अपनी कल्पनाओं में भरने का प्रयास करता हूँ। उन हजार आँखों का स्नेह कलम से उतारने की कोशिश करता हूँ। मेरे अंदर छुपे हुए गँवई के अधूरेपन ने ही इस ब्लाग पर एक सौ ग्यारह देसिल बयना को जन्म दिया...! मुझे आपके बीच पहचान दी। मेरा गाँव और गँवईपन ही मेरी उपलब्धि है। एक बात और... मैं मिथिलांचल क्षेत्र से आता हूँ। लेकिन मुझे अच्छी मैथिली बोलने और लिखने आई बंगलोर आने के बाद। सच में किसी से दूर होने पर ही उसकी अहमियत का पता चलता है। 

आज पूरे पाँच वर्ष हो गए इस उद्यान नगर में। इस आलेख के साथ मैं ने उन पाँच वर्षों के एक-एक पल को एक साथ फिर से जी लिया...! फिर से पहुँच गया हूँ उस सांझ में जब चला था अपने गाँव से। 

26 टिप्‍पणियां:

  1. ''बहुराष्ट्रीय कंपनी के अपने दफ़्तर से लैपटाप का एक्जिक्यूटिव बैग लाकर घर में उसी संकोच के साथ छुपाता हूँ, जैसे पहली बार वो झोला छिपाया था। मेरा यत्न अभी भी असफ़ल ही जाता है। तब के भाभी ने झोली हठात छीन ली थी अब भतिजियाँ उनमें अपने लिए कैडबरी ढूंढने लगती हैं। ''

    यहां शहर में कोई आदमी नहीं मिलता
    वहां ढूंढे से कोई अजनबी नहीं मिलता...

    दुआ है कि आप साल-दर-साल और निखरते रहें...और बैंगलोर में भी अपना ओरिजिनलपना बचाए रखे...

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  2. करण जी! आज आपने खामोश कर दिया अपने चचा को. इतनी शिद्दत से याद किया है आपने अपने गाँव और रेवाखंड को कि मुझे भी आपके देसिल बयना की हर बात, घटना और पात्र स्मरण हो आया.. आज की पोस्ट से मुझे प्रमाण मिल गया मेरी ही बात का, सत्यापन हो गया उस बात का कि आपके देसिल बयना की भाषा में जो मिठास है, वो मेरी "चला बिहारी" की भाषा में नहीं..! मेरा तो सिर्फ दिल ही अपने प्रांत की बोली से पगा है, मगर आपकी आत्मा सुवासित है उस प्रांतीय बोली से!!
    यह पोस्ट दिल से निकली है! और परमात्मा से प्रार्थना है कि वो आपके उस प्रेम को अक्षुण्ण रखे!!

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    1. बड़े भाई!
      बच्चे को आशीर्वाद दिए हैं इसलिए और कुछ नहीं कहूंगा, बस इतना कि बच्चा बच्चा है, और चच्चा चच्चा!

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  3. आपके बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा, किसे नये स्थान में अपने हिस्से का आकाश ढूढ़ लेना जीवटता का प्रमाण है, जमे रहिये।

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  4. इंसान का व्यवहार परिस्थिति वश बदल जाता है पर स्वभाव नहीं..
    हम तो बस मन्त्र मुग्ध से पढ़ रहे हैं.

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  5. समस्तीपुर मेरा जन्म स्थान है और मैं भी बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र से ही हूँ .
    आपके बारे में सब कुछ पढकर बहुत अच्छा लगा ,आपके व्यक्तित्व से गंवई कभी भी अलग न हो .
    ऐसे ही अपनी मिट्टी से हमेशा जुड़े रहें .

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  6. एक सौ ग्यारह देसिल बयना...बहुत बड़ी उपलब्धि है...बधाइयाँ स्वीकार कीजिये...आपकी शैली का ओज निश्चय ही प्रभावशाली है...

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  7. करण जी,
    संभवतः बहुत कम बार टिप्पणी की होगी यहाँ, लेकिन इस मिठास पर बधाई बनती है। :)

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    1. इस “कम बार की टिप्प्णी” का आशय कहीं यह तो नहीं कि इस ब्लॉग पर टिप्पणी के लायक़ रचनाएं ही नहीं होतीं?!

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  8. जानकर बहुत अच्छा लगा| धन्यवाद।

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  9. आपका गंवई आपके साथ जब तक बना रहेगा, हमारा साथ भी बना रहेगा.

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  10. करण समस्तीपुरी जी, आपका पोस्ट बहुत ही रोचक लगा । आपका पोस्ट पढ़ कर मन में यह बात घर कर गयी कि आपने अपनी स्मृतियों को काफी तरजीह दिया है जिसके कारण प्रस्तुति भी अपनी सुरभि को हम सब तक पहुंचाने में सार्थक रही । मेरे अनुसार स्मृति वह डायरी है जिसे हम अपने साथ लेकर चलते हैं । यह उन चीजों से जड़ने का तरीका है जिन्हे हम प्रेम करते हैं और कभी खोना नही चाहते । स्मृतियों का नही होना मानव हृदय और दिमाग, दोनों की शून्यता का संकेत है । अगर स्मृतियां नही हों तो समस्याओं को सुलझाने से लेकर तार्किक सोच रखने में हम अक्षम साबित होंगे । इस लिए ये मानव मन में थोड़ी सी जगह आसानी से पा जाती हैं ।जहां तक गंवई या देशी शब्दों के प्रयोग की बात है- इस विषय पर मेरी अपनी मान्यता है कि जो अपनी माटी, अपने लोगों से, उनकी भवनाओं से नही जुड़ता, वह मनुष्य किसी भी चीज से नही जुड़ता है । अंत में वह बिखर सा जाता है । इन बेशकीमती स्मृतियों को संजोकर रखिए । धन्यवाद ।

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  11. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। भगवान राम ही नहीं, हर व्यक्ति अपनी जन्मभूमि से दूर जाता है तो वह सदा अपनी पहिचान अपनी जन्म-भूमि परिप्रेक्ष्य में ही देखता है। काम के बोझ में दबा होने के कारण यदि उतनी देर तक वह भूल भी जाय, तो राहत की साँस लेते ही वह अपनी जन्मभूमिगत परिवेश में पहुँच जाता है। बहुत ही जीवन्त वर्णन है। आभार।

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  12. आपकी प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी,आपके बारे इतना कुछ जानकार खुशी हुई,...बधाई

    MY NEW POST...मेरे छोटे से आँगन में...

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  13. जीवन संघर्ष के सिवा और है भी क्या ? ...जो संघर्ष करना जानते हैं वह जीत जाते हैं .....बाकी तो आप जानते ही हैं ......!

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  14. खूब लिखा है इस जीवंत संस्मरण को करण जी ने.

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  15. आगत-अनागत, प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष सभी पाठकों-शुभचिंतको को हार्दिक धन्यवाद...! अभिवादन एवं आभार !

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  16. करण जी!
    वृक्ष की शाखाएं भले ही चहुँदिश फ़ैल जाएँ उसकी जड़ें मिट्टी में ही होती हैं. आपने जड़ों से जुड़े होने को प्रमाणित किया है और सिद्ध किया है कि वन-कुसुम गमले में भी लगाया जाए तो उसकी सुगंध में वही आनंद होता है!!

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  17. करण जी ! इस खांटीपन को बनाए रखियेगा. मंगलकामनाएँ .

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  18. गाँव के आबालवृद्ध आशीष और अभिवादन के साथ विदाई देते हुए तब तक देखते रहे थे जब तक उनकी आँखों से ओझल नहीं हो गया...! मैं भी तो उन्हे देखता ही रहा था...! हर सांझ यही लगता है कि वह कल ही की तो सांझ थी।
    ..sach beeten lamhon ki yaaden man mein jab tab halchal machakar bahut kuch sochne par majboor karte hain..
    sundar prastuti..

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  19. एक अत्यंत भावुक कर देने वाली पोस्ट! कई क्षण गांव के पोखर में डूबता-उतराता रहा ... बाद में मालूम पड़ा ये सारे जलकण तो आंखों से निकल रहे हैं।
    करण ... वन ऑफ योर बेस्ट!

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  20. ५ वर्ष का लेखा जोखा बहुत सलीके से समेत है ... भाभी द्वारा लिया झोला ...मुझे कृष्ण सुदामा की याद दिला गया .. गांव की मिटटी से सुवासित अच्छी प्रविष्टि .

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  21. जड़ें जमीन में होतीं हैं तभी पेड़ हरा भरा और फलता फूलता है . ऐसे ही हरे भरे रहो और फूलते फलते रहो सुन्दर रचनाओं के रूप में . बहुत ही दिल को छू लेने वाले उद्गार हैं .

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