बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

स्मृति शिखर से... 5 : सर्वोपरी प्रेम

स्मृति शिखर से... 5
सर्वोपरी प्रेम
AIbEiAIAAAAhCOGGwPuf3efHRhC_k-XzgODa1moYsN388brgg9uQATABK_5TSqNcP8pRR08w_0oJ-am4Ew4करण समस्तीपुरी
पिताजी के प्रत्युत प्रयत्न और प्रवचनों के बावजूद भिखारियों से मेरी प्रीति निरंतर जारी रही थी। किन्तु विगत संभाषण के में हुए निर्णय को मैंने भी हृदय से अंगिकार कर लिया था। “किसी को कुछ दें या न दें परन्तु कटु वचन न बोलें। सबसे प्रेमपूरित व्यवहार करें।” वह भी पिताजी के आदर्शों के कारण नहीं बल्कि इसलिए कि मेरे ऐसा करने से उन्हें कष्ट होता था।
बहरहाल पिताजी द्वरा बताई गई “साधु और बिच्छु” वाली कहानी की मनोनुकूल शिक्षा मैंने ग्रहण कर ली थी। शिक्षा यह कि ‘हमें अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए।’ सो भीख नहीं देने के अपने स्वभाव को नहीं बदलने का जो प्रयास तभी आरंभ हुआ था वह अब भी दृढ़ है। भिखारी आते गए और हम भी तरह-तरह की युक्ति से उन्हे सप्रेम विदा करते गए। दारिद्र्य और अपंगता की साक्षात प्रतिमूर्ति दिखने वाले भिखारियों पर भी कभी मुझे दया नहीं आई बल्कि उसी मदिरा की दुर्गंध आती रही थी जो हमने उस नेत्रहीन भिखारी को खरीदते देखा था।
हमारे गाँव में ग्रीष्म का आगमन हो चुका था। रबी की फ़सल खेत से खलिहानों में पहुच चुकी थी। ग्राम्य परिवेश में ग्रीष्म का प्रथम चरण अपेक्षाकृत विश्राम्य होता है। एक प्रमुख खाद्यान्न घर आ चुका होता है और अगली प्रमुख फ़सल के लिए पावस की प्रतीक्षा होती है। हाँ, गेहूँ के दानों से कोठियाँ भर जाने के कारण सम्पन्नता की द्युति सद्यः विद्यमान रहती है। लोग निश्चिंत रहते हैं। यह समय वर्ष भर के बांकी-उधार, ऋण-गिरवी चुकाने का भी होता है। इस समय में दान-पुण्य का व्यवसाय भी बहुत तीव्रता पकड़ लेता है।
कभी प्रसिद्ध और कभी किसी अज्ञात तीर्थ में मंदिर-मस्जिद-मजार बनाने को कृतसंकल्पित साधुवेशधारी कार्यकर्ताओं का आगमन होता रहता है। कभी अकेले, कभी समूह में और कभी-कभी तो ऊँट, लाव-लश्कर के साथ। घर में फ़सल आते ही ग्रामीणों का औदार्य भी बढ़ जाता है। ‘दोउ हाथ उलिचिए यही सयानो काम।’ साल भर का श्रम जब कोठियों में भरा हो तो सेर-पाँच सेर देने में भला आलस्य क्यों हो? याचक भले उस दान का दुरुपयोग करें, मगर उनकी आस्था तो अचल है।
ग्रीष्म का आघात आते ही जो सबसे पहला परिवर्तन हमारे घर में होता था वो यह कि दादी के हाथों में ताल-पत्र का बना पंखा आ जाता था। मेरी दादी की यह विशेषता थी कि सुप्तावस्था में भी उनका एक हाथ हठात जाग्रत रहता था। वह उस हाथ से अनवरत पंखा झलती रहती थीं। अप्रैल से अगस्त तक पंखे से दादी का अटूट साहचर्य बना रहता था।
उस दोपहरी भी भोजन के बाद घर के अकार्यलयी सदस्य दिवा-शयन कर रहे थे। दादी दलान पर अधलेटी पंखा झल रही थी। मैं भी वहीं चौकी पर लेटकर घर में आने वाली एकमात्र पत्रिका ‘कल्याण’ पढ़ रहा था। “जय-जय श्री सीताराम... लछमी बहन.... घर-परिवार आबाद रहे... दरबार में सदा जय-जयकार रहे” आदि अनेक पुण्य जयघोष से मेरा ध्यान कल्याण के पन्नों से हटकर कल्याणकारी बाबा पर गई। दादी भी सचेष्ट होकर बैठ गई। मुझे पिताजी का वचन सहसा स्मरण हो आया। मैंने अगाध श्रद्धा के साथ बाबाजी के चरण-स्पर्श किए। अपने अंगोछे से काठ की साफ़-सुथरी कुर्सी को झाड़कर उन्हें आसन-ग्रहण करने का अनुनय किया। बाबाजी ने अपने आशिर्वचनों से मुझे अपादमस्तक अभिसिंचित कर दिया।
एक कोने में बैठी दादी अपने संस्कार को सगर्व निहार कर प्रफ़्फ़ुलित हो अंदर चली गई थी। मैंने वहीं बाबाजी के सम्मुख चौकी पर बैठ कर उनसे सप्रेम वार्तालाप का क्रम आरंभ कर दिया। बाबाजी मेरे श्रद्धासिक्त प्रश्नों के स्नेहसिंचित उत्तर दे रहे थे। बीच-बीच में मेरी शिक्षा-दीक्षा, धर्मपरयणता, जाति और पड़ोसियों से सबंधित संक्षिप्त प्रश्न भी पूछ लेते थे। कोई घंटे भर के वार्तालाप के उपरांत ही महाराज सशब्द याचना कर सके।
मैंने बात-चीत की दिशा को पुनः उनके आरंभिक जीवन, घर-परिवारादि की तरफ़ मोड़ दिया। कह नहीं सकता कि सत्य छुपाने की गरज से या मेरे प्रश्नों को जल्दी समाप्त करने के लिए उन्होने एक ही सपाट उत्तर दिया कि वे किशोरावस्था में ही भवन-त्याग कर ब्रह्मचारी भिखारी बन गए। मेरा मस्तक बाबाजी की प्रशंसा में स्वतः नत हो गया। बाबाजी ने पुनः याचना की। मैं ने बात को पुनः प्रेमपूर्वक सामाजिक कर्तव्यों की ओर मोड़ दिया। बाबा जी भगवद्गीता के सूत्र समझाने लगे। मैंने भी कहा कि आपका न घर है न परिवार न कोई इहलौकिक संबंध...। आप किसलिए इतने आतुर हैं? क्यों इस जलती धूप में अपनी पुष्ट काया तपा रहे हैं? दो घड़ी विश्राम कर लीजिए। बातचीत फिर कोई और दिशा पकड़ने लगी थी।
दो घंटे तक बिना किसी दान-दक्षिणा के वार्तालाप से बाबाजी झुंझला गए। मैंने उनके क्रोध रूपी गर्म दूध के उफ़ान में अपने नम्र और नीति-वचनों का शीतल जल-कण डालने की कोशिश की। कातर स्वर में बोला, “बाबा...! इस संसार में आपको सब कुछ आसानी से मिल जाएगा। अन्न, धन, दौलत... सोना, रूपा सब। किन्तु सच्चा प्रेम मिलना बहुत कठिन है। मैं अति दीन आपको ये सब भले नहीं दे पाउंगा लेकिन इतना अवश्य समझ लीजिए कि एक याचक को ऐसा सच्चा प्रेम और सम्मान मेरे अलावे और कोई नहीं देगा। अन्यत्र आपके पहुँचते ही द्वार का भार समझ एक-आध रुपये अथवा पाव भर अन्न देकर लोग तिरस्कृत भाव से विदा कर देते होंगे। किन्तु जिस श्रद्धा और प्रेम से मैं ने आपको बैठाया है, आपही कहिए अन्यत्र मिलेगा?
बाबाजी का कोप शांत हो चुका था। उन्होंने भी मेरी बातों से सहमति जताई। बात फिर आगे बढ़ गई। संसार में सबसे बड़ा दान क्या है? अन्नदान, स्वर्णदान, गोदान... रक्तदान... नेत्रदान, प्राणदान....? बातों की जलेबी घूम-फिर कर अटकी तो प्रेमदान पर। अपना पत्ता बढ़ते देख मैंने झट एक्का फेंक दिया...“और देखिए...! आप मेरे प्रेमदान को अस्वीकार कर रहे हैं।” बाध्यकारी स्नेह से विवश बाबाजी ने कहा कि प्रेम तो सर्वोपरी है ही किन्तु भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वस्तुपरक याचना करनी पड़ती है न। मैंने उनकी शान में एक कसीदे और जर दिए, “अरे महाराज...! आप तो साधु-संन्यासी हैं। वीतरागी...। ब्रह्मचारी... गृहत्यागी। सांसारिक बंधन और भौतिक आवश्यकताएँ भला एक वानप्रस्थ को कैसे बांध सकेंगी?
बाबाजी ने कुछ देर पहले स्वयं ही अपनी ये सारी विशेषताएं हमें बताई थी। अब तो बेचारे न तो इंकार कर सकते थे और न ही प्रतिकार। मौन हो मेरा प्रेमवाचन स्वीकार करते रहे। तीन घंटे बीत गए और इसमें कथित प्रेमवार्ता के अतिरिक्त उन्हे केवल एक गलास ठंडा पानी मिला था। बेचारे भिक्षा की आशा छोड़ अब तक तीन बार रिक्त-हस्त ही वापस जाने को उठ चुके थे किन्तु मैं हर बार उन्हें प्रेम का पाठ पढ़ा हाथ पकड़ कुर्सी पर बैठने को विवश कर देता था।
इस प्रकार दोपहर से संध्या हो चुकी थी। हमारे घर के रास्ते लोगों का गमन-आगमन बढ़ चला था। परिवार के लोग भी शेष दैनिक क्रिया-कलाप में लग गए। उधर बाबाजी को दान-दया की आश तो कहीं से थी नहीं बेचारे अनुकूल समय पाकर बोले, “बाबू...! अब हमें अवकाश दीजिए...। आज हमें सत्य में प्रतीत हो गया कि प्रेम से बढ़कर कुछ नहीं है। अब मुझे किसी भी दान और दया की अपेक्षा नहीं रही। धूप भी ढल चुकी है। अब सीधा स्थान की ओर प्रस्थान करुँगा।”
मैंने फिर से बाबाजी के चरण-स्पर्श कर लिए। दरवाजे से दो कदम चलते ही पक्की सड़क पर बाबाजी की पदगति तीव्रतर होती गई। पीछे भिक्षा-ग्रहण करने की मेरी माताजी का अनुरोध भी उन्होंने अनसुना कर दिया। मैं कुछ कदम तक उनके पीछे आया था। बाबाजी ने एकाध बार पीछे मुड़कर मुझे देखा भी था और सस्नेह कमंडलयुक्त हाथ भी हिलाया था लेकिन दाँए-बाँए किसी भी द्वार-दरवाजे के अभिमुख नहीं हुए। सीधा अपने रास्ते चलते गए।
बाबाजी के जाने के बाद अपना श्रम मुझे अत्यंत सार्थक जान पड़ा। आज पिताजी का वचन अक्षरशः पूरा कर दिया था। मैंने किसी याचक को ‘नहीं’ नहीं कहा। अशिष्ट आचरण, अविनीत शब्द भी नहीं कहे। कोई असभ्य मज़ाक भी नहीं किया...। आद्योपांत श्रद्धावनत एवं प्रेमपूरित व्यवहार किया। साधु द्वार से कुपित (प्रत्यक्षतः) नहीं गए। आशीष और प्रशंसा की वर्षा कर के गए हैं।
देर सायं पिताजी के घर आने पर बारंबार स्वतः आश्वासन के बावजूद मन थोड़ा आशंकित था। रात्रि भोज के बाद ग्रीष्म-निशा में शीत-सेवन का आनंद ले रहे थे। एक दो इधर-उधर की बातों के बाद माँ ने पिताजी को बाबाजी से मेरे प्रेम-व्यवहार की गाथा अंततः सुना ही दिया था। मेरी हृदयगति द्रुतगामी रेल की तरह बढ़ गई थी। लेकिन प्रेम सचमुच सर्वोपरी होता है। इस बार पिताजी को क्रोध नहीं आया था। कथा समाप्त होते-होते मुस्करा पड़े थे। माँ की हँसी भी नहीं रुकी थी। मेरे भाई-बहन सभी हँस पड़े थे। पड़ोस में रहने वाले ओझाजी एवं ओझाइन भी हँसते-हँसते लोट-पोट हो रहे थे। बीच में बैठा मैं नत-माथ सोचता रहा, “प्रेम सच में सर्वोपरी होता है। पूर्व के सभी भिखारी-वृतांत का उद्देश्य और परिणाम समान था फिर भी पिताजी को क्षोभ और क्रोध आया था। संभवतः इसलिए कि वहाँ व्यवहार में उद्दंडता और कठोरता थी, प्रेम नहीं था। यहाँ मजाक भी था, दान से इंकार भी था, प्रतिकार भी था लेकिन सभी बातों में प्रेम की चासनी लिपटी थी। बड़ा अच्छा लगा था पिताजी को हँसते देख। मेरा प्रण भी रह गया था और पिताजी को दिए वचन का मान भी। विनय और प्रेम के अस्त्र-सस्त्र से दोनों ओर ‘विजय’ विराजित था।

12 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम से भिक्षुक को वश में करने की कथा पहली बार ही पढ़ी है !
    रोचक और प्रेरक प्रसंग !

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  2. आपके धैर्य की दाद देनी पड़ेगी .. बहुत बढ़िया संस्मरण

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  3. इसे कहते हैं बातों की जलेबी, प्रेम की चाशनी में सराबोर.. इतनी सराबोर थी कि साधु बोर होकर पधार गया.. पधार क्या गया, फिर उधर का रास्ता ही भूल गया होगा!! मीठे वचन बोलने की आज्ञा पालन का माधुर्य, भाषा का माधुर्य और गल्प-शिल्प का माधुर्य..! सरस रचना!!

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  4. बहुत समय बाद इस तरह के संस्मरण पढ़ने को मिल रहे हैं. निश्चित ही ब्लॉग ने उस विधा के लिए द्वार खोल दिए हैं जिसे कोई अपने मन के अंदर नहीं आने देना चाहता.
    सुन्दर प्रस्तुति.

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  5. दुविधा का अंत करे वही संत!!

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  6. विनय और प्रेम से बढ़ कर अस्त्र नहीं...

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  7. इस रचना में मनोरंजन है, व्यंग्य भी, शिक्षा है और आपकी परीक्षा भी। कुल मिला कर पूरा पैकेज है। रोचक प्रस्तुति।

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  8. बढ़िया...
    प्रेम तो हर ताले की कुंजी है ही....

    अच्छा संस्मरण.

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  9. बाबा की दिहाड़ी मार गए आप.... बहुत रोचक संस्मरण...

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  10. बहुत धैर्य से काम लिया आपने ,पिता जी का वचन निभाने में: तभी संतोष है आपके मन में और हम सुननेवालों को मिली कुछ प्रेरणा !

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