शनिवार, 14 जनवरी 2012

फ़ुरसत में .. मुसकराहट बिखेरने की प्रैक्टिस

फ़ुरसत में .. 89 

मुसकराहट बिखेरने की प्रैक्टिस

08102009148_editedमनोज कुमार

कुछ दिनों से रोज़ उसे देख रहा हूँ। मेरे दफ़्तर में घुसते ही वह कुछ विशेष रुचि से मुझे देखती है। आज भी ज्यों ही दफ़्तर की सीढ़ियाँ चढ़ता हूँ, उस पर नज़र पड़ती है। वह मुसकराती है। ‘जिगर’ का एक शे’र मन में कौंधता है,

मेरे चुप रहने पै क्या वो बाज़ रहते छेड़ से,

मुसकरा कर देखते फिर मुसकरा कर देखते।

मैं ऐसी मुसकराहटों का आदी हो गया हूँ। काम के सिलसिले में कई मल्टीनेशनल कंपनियों और अन्य दफ़्तरों में आना-जाना लगा रहता है। ऐसे दफ़्तरों की रिसेप्शनिस्ट लड़कियाँ मुसकराती हैं। जब भी फ़्लाइट से कहीं आता-जाता हूँ, तो एयरहोस्टेस मुसकराती हैं। खुदा न ख़ास्ता जाते वक़्त रास्ते में तथाकथित वर्जित “एरिया” से गुज़रना पड़ा, तो वहाँ के कुछ अजनबी चेहरे मुसकराते हैं। बड़े-बड़े मॉल की दुकानों की सेल्स गर्ल्स मुसकराती हैं। व्यापार जगत या मार्केट के दलाल मुसकराते हैं। यहाँ तक कि वोट माँगने आया नेता मुसकराता है। … सबकी मुसकान एक-सी ही होती है।

मुझे अपने बॉस की बातों में कोई दम नज़र नहीं आता, जो मुझसे अकसर कहता है, “अन्य व्यक्ति को तुम कम से कम एक मुसकान तो दे ही सकते हो --- प्रेम और आनंद से भरी मुसकान।”

खैर मैं बात ‘उसकी’ कर रहा था। उसकी मुसकान पर ध्यान दिए बिना, उसके चेहरे पर झुक आए बालों के बीच से निकल रही चाँदनी की तरह की मुसकान की परवाह किए बग़ैर, चेहरे को निर्विकार बनाए हुए मैं आगे बढ़ा जाता हूँ। मेरे इस आचरण से वह मुझे कठोर समझ सकती है, ......समझे। समझा भी हो तो…..... इससे मुझे फ़र्क़ क्या पड़ता है? शायद उसके मन में यह भी आया हो कि यह (मैं) आदमी रह ही नहीं गया। पत्थर है, पत्थर! हो भी गया होऊँ, तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। शेक्सपियर ने सही ही कहा है, “One may smile, and smile and be a villain.’’ (यह संभव है कि व्यक्ति मुसकराता रहे और मुसकराता रहे और दुष्ट रहे।)

मैं लिफ़्ट की ओर लपकता हूँ। लिफ़्ट में कॉलीग मिलते हैं। वे मुझे देखकर मुसकराते हैं। मुझे प्रेमचंद की याद आती है, जिन्होंने कहा था, “नहीं सह सकता उनकी मुसकान, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी इस मुसकराहट में ईर्ष्या, व्यंग्य और जलन है।”

तेज़ क़दमों से चलते दफ़्तर में घुसता हूँ, तो सबसे पहले अर्दली दफ़्तर का दरवाज़ा खोलते हुए --- “सलाम साहब!” की रोज़ाना दुहराए जाने वाली औपचारिकता पूरी करते हुए मुसकराता है। उसके अभिवादन का सिर हिलाकर जवाब देते हुए मैं आगे बढ़ता हूँ। अपनी सीट पर बैठा पी.ए. मुझे देख कर मुसकराता है। दफ़्तर के कमरे में जब आता हूँ और अपनी कुर्सी पर बैठता हूँ तो पाता हूँ कि कल की डाक मुसकरा रही है, अभी-अभी आए फैक्स मुसकराते हैं, सारी अनक्लियर फाइलें मुसकराती हैं, यहां तक कि साइड टेबुल पर पड़े अख़बार मुसकराते हैं। इन सारी मुसकराहटों का जवाब देते-देते मेरी ही मुसकराहट ग़ायब हो जाती है। मैं धीरे-धीरे सख़्त होता जाता हूँ – सख़्त .. पत्थर की तरह ? हर उस आगन्तुक की मुसकराहट देखकर मुझे लगने लगता है कि वे अपनी मुसकान के बदले मुझसे कोई जायज-नाजायज काम लेना चाहते हैं। मैं और सख़्त हो जाता हूँ। हर मुसकराहट के बदले मेरे इस तरह से सख़्त-से-सख़्त होते जाने को पत्थर ही तो कहा जा सकता है, -- कहलाता भी हूँ। हूँ भी, कह नहीं सकता।

विलियम कान्ग्रीव ने सही ही कहा है, “मनुष्य के लिए मुसकराने से अधिक अशोभन कुछ नहीं है।”

कलाई पर नज़र डालता हूँ, घड़ी नहीं है। शायद पहनना भूल गया। दीवार घड़ी की ओर देखता हूँ, वह भी नदारत है, रिपेयर में होगी। वक़्त क्या हुआ है, जान नहीं पाता। वक़्त समझ भी नहीं पाता। क्या वक़्त होगा अभी ? ........कैसा वक़्त है ? .........छोड़ो, क्या फ़र्क़ पड़ता है? मन में महाभारत की पंक्ति आती है, “न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्य कुरुसत्तम”। काल या समय या वक़्त के लिए न तो कोई प्रिय है और न कोई द्वेष्य … मेरे लिए किसी की मुसकराहट न प्रिय है, न द्वेष्य!

अपनी सोच और समझ को नई दिशा देता हूँ। डाक पैड की ओर झाँकता हूँ। डाक में नए साल के बहुत से ग्रीटिंग्स कार्ड हैं। अभी भी लोग अपनी मुसकराहट समेट कर ग्रीटिंग्स में भरकर भेज रहे हैं। मैं उन्हें बिना देखे दराज में रख देता हूँ। उस दराज में वे अन्य सभी काग़ज़ात और फाइलें हैं, जिन्हें मुझे क्लियर करना ही नहीं है।

यदि फूल सूखा आज तो, मुरझाएँगी कल को कली।

सब काल के हैं गाल में, यह काल है सबसे बली॥

कौन ग्रीटिंग्स पर ध्यान दे? अगले साल का बजट एस्टीमेट बनाना है। प्रगति रिपोर्ट की समीक्षा करनी है। यूनियन से मीटिंग भी तो है ! वहाँ पर सारे नेताओं से मैं सख़्त चेहरे से नहीं मिल सकता। मुझे अपने चेहरे पर मुसकान रखनी होगी। अपने-आपको फ़ुरसत में पाकर मैं मुसकराहट बिखेरने की प्रैक्टिस करने लगता हूँ। मेरी इस हरकत पर आप कह रहे होंगे - ये क्या मज़ाक़ है? अजी ….......

सलीक़े का मज़ाक़ अच्छा, करीने की हँसी अच्छी,

अजी जो दिल को भा जाए वही बस दिल्लगी अच्छी।

39 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन की जद्दोजहद में असली मासूम मुस्कराहट कहीं खो गयी है ....हर चीज़ नकली हो गयी है ....प्रभु फक्कड़ लोगों की मुस्कराहट कायम रखें ....!!
    बहुत बढ़िया आलेख है ....

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  2. तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो,
    क्या गम है जिसको छिपा रहे हो!
    यह भी एक मुस्कराहट का पक्ष है!! अच्छी लगी आपकी यह टुकड़ा-टुकड़ा मुस्कराहट!!

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  3. मुस्कराहटें दर्द देती हैं
    मुस्कराहटें चैन लेती हैं
    गज़ब की मार पड़ती है
    ये मुस्की खुश्क होती है.

    मनोज भैया ! बिलकुल मेरे मन की बात कह दी आपने. मुझे सख्त चेहरे से डर नहीं लगता ....मुस्कुराते चेहरे से लगता है......ये कारपोरेट जगत का वह विज्ञापन है जिसमें शोषण की पूरी स्कीम छिपी है.

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  4. दिनचर्या की अनुभूति को सुंदरता से कैनवास पर उतार दिया आपने,आपके अध्ययनशील हृदय के भी रंग छिटके हुये हैं किसी शायर का एक पुराना शेर याद आ गया "अंगड़ाई भी वो लेने न पाये उठाके हाथ, देखा मुझे और छोड़ दिया,मुस्कुराके हाथ."

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  5. जो मुस्कान सारे जहान के लिए नहीं,सिर्फ अपने लिए हो,तब तो हम भी मर जायेंगे !

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  6. मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई…

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  7. मुस्कान छोटी हो या चौड़ी , गुल तो खिलाती ही है . आपने सुबह सुबह मुस्कान खिला दी .

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  8. अजी ये ओढ़ी हुई मुस्कान है.इसे ओढ़े हर अमरीकी सभ्रांत दिखता है हम मरे हुए क्यों दिखें मुस्कुराओं -हूज़ुमे गम मेरी फितरत बदल नहीं सकते ,मैं क्या करूँ मुझे आदत है मुस्कुराने की .

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  9. मनोज जी इस मुस्कराहट पर तो अच्छा ख़ासा रिसर्च कर डाला ! बहुत सुंदर लिखा है अंत तक बंधे रहे !

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  10. ":)" इस मुस्कान के बारे में आपके क्या ख्याल हैं :)
    मुस्कुराते हुए पढ़ी पूरी पोस्ट.

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  11. जीवन में हर बात दायरे में अच्छी लगती है
    बहुत अच्छी सुंदर प्रस्तुति,बढ़िया अभिव्यक्ति रचना अच्छी लगी.....
    new post--काव्यान्जलि : हमदर्द.....

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  12. सलीक़े का मज़ाक़ अच्छा, करीने की हँसी अच्छी,
    अजी जो दिल को भा जाए वही बस दिल्लगी अच्छी।

    Waah...Bahut khoob

    Neeraj

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  13. बनावटी मुस्कान का ज़माना आ गया है.बनावटी मुस्कान मुझे तो छलावा ही लगती है..natural मुस्कान को मैं prefer करता हूँ वरना न मुस्कुराया जाये.

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  14. सलीक़े का मज़ाक़ अच्छा, करीने की हँसी अच्छी,
    अजी जो दिल को भा जाए वही बस दिल्लगी अच्छी।

    खलिश आत्मीय मुस्कान का जमाना नहीं रहा मनोज जी अब तो बनावती मुस्कान फेकिये और बस फेंकते रहिये

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  15. behad sundar sir......jitne baar bhi aap ke blog mein aati hoon kuch na kuch sikhane ko milta hi hai..

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  16. मुस्कुरा रहे हैं :))).... सार्थक पोस्ट, आभार.

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  17. पढ़ते पढ़ते मै भी मुस्कुरा रही हूँ लेकिन यह असली है
    यकीन मानिये :)

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  18. aadarniy sir
    muskurahat ke bhi itne roop hoten hain----;)
    yah bhi aaj aapke blog par aakar jaan paai.lekin padh kar
    bahut bahut hi aanand aaya.
    sadar naman
    poonam

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  19. नकली मुस्कानों से
    सख्त हो गयी है
    दिल की ज़मी
    वरना तो
    हम भी कभी
    बेबात मुस्कुराते थे ..

    बहुत अच्छी पोस्ट ... मुस्कान पर काफी शोध किया है ..

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  20. मुस्‍कराहट पर अच्‍छी व्‍याख्‍या की है। बढिया।

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  21. मुस्कराहट की प्रैक्टिस ...कार्यालय से बेहतर और कहां होगी... प्रत्युत्तर में मुस्कराहट के लिए भी जरूरी है एक सही सटीक और नकली मुस्कराहट...जो पकड़ी न जाए और असली हो के चले...

    मुस्कराहट के क्योट अच्छे लगे।

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  22. मेकैनिकल स्माइल...योगा लाफिंग की तरह है...कुछ फायदा ही करेगी...वीरू भाई की बात में दम है...

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  23. कृत्रिम मुस्कानों में सच्ची मुस्कानें भी अपना मूल्य खोती जा रही हैं।

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  24. एक मुस्कराहट मेरी भी इतनी सारी मुस्कुराहटों के साथ.

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  25. किसिम किसिम की मुस्कुराहटें ....
    शोध के लिए अच्छा विषय और सामग्री है !

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  26. बहुत ही बढि़या प्रस्‍तुति ।

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  27. मुस्कराहटमय पोस्ट. सारे स्टाफ्स की मुस्कराहट के बाद बॉस की दुर्लभ और अर्थपूर्ण मुस्कराहट का जिक्र नहीं किया आपने ! :-)

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  28. सलीक़े का मज़ाक़ अच्छा, करीने की हंसी अच्छी
    अजी जो दिल को भा जाए वही बस दिल्लगी अच्छी

    क्या बात है हुज़ूर !

    आदरणीय मनोज कुमार जी
    आपकी मुस्कुराहटों पर निसार हो गए हम !
    सभी तरह की मुस्कुराहटों / मुस्कानों से पाला पड़ता ही रहता है …:)



    हार्दिक शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  29. आपकी मुस्‍कराहट पढ़कर हम भी मुस्‍कराए। हम तो यही कहेंगे और वह भी अपने शब्‍दों में-

    जब भी कोई मुस्‍कराया है देखकर मुझको

    अपनी शख्सियत का मैंने नया मायना देखा।

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