रविवार, 8 जनवरी 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 97

भारतीय काव्यशास्त्र – 97

आचार्य परशुराम राय

पिछले कुछ अंकों में लगातार वाक्यदोषों पर चर्चा का समापन हुआ। इस अंक से अर्थदोषों पर चर्चा प्रारम्भ हो रही है। आज अपुष्ट, कष्ट, व्याहत और पुनरुक्त अर्थदोषों पर चर्चा की जा रही है।

जब कविता में ऐसे विशेषण या पद प्रयोग किए जाँय जिनकी उपस्थिति न तो काव्य में कोई विशेष अर्थ की सिद्धि कर रही हो अथवा न ही जिनकी अनुपस्थिति से उसमें किसी प्रकार के अर्थ की हानि हो रही हो, वहाँ अपुष्ट अर्थदोष माना जाता है। जैसे-

अतिविततगगन-सरणि-परिमुक्तविश्रमानन्दः।

मरुदुल्लासितसौरभकमलाकरहासकृद्रविर्जयति।।

अर्थात् अत्यन्त विस्तीर्ण आकाश मार्ग में अनवरत चलने के कारण विश्राम के सुख से मुक्त रहनेवाले और पवन जिस कमल-समूह के सौरभ को चारों ओर फैला रहा है, उसको विकसित करनेवाले सूर्य की जय हो (सूर्य उत्कर्षशाली हो)।

उक्त श्लोक में गगन रूपी पथ के लिए अतिवितत (अत्यन्त विस्तीर्ण) विशेषण का प्रयोग जिस अर्थ के लिए किया गया है, गगन शब्द स्वयं वैसा अर्थ देने में सक्षम है। इस पद को हटा देने से भी अर्थ की कोई क्षति नहीं है। अतएव यहाँ अपुष्ट अर्थदोष है।

निम्नलिखित दोहे में भी यही दोष है। यहाँ भी गगन पद के लिए अति बड़े और मयंक के लिए उज्जल विशेषण प्रयोग किए गए हैं, जो अनावश्यक हैं।

उयो अति बड़े गगन में, उज्जल चारु मयंक।

मानव मानिनि मोचिबे हेतु मनहु इक अंक।।

जहाँ काव्य के अर्थ का बोध बड़ी कठिनाई से हो, वहाँ कष्टत्व अर्थदोष होता है। उदाहरण के रूप में निम्नलिखित श्लोक लिया जा रहा है-

सदा मध्ये यासामियममृतनिस्यन्दसुरसा

सरस्वत्युद्दामा वहति बहुमार्गा परिमलम्।

प्रसादं ता एता घनपरिचिताः केन महतां

महाकाव्यव्योम्नि स्फुरितमधुरा यान्तु रुचयः।।

अर्थात् इसमें कवियों की वाणी की अत्यन्त सघन कान्ति के मध्य सहृदयों को काव्यरस का आस्वादन करानेवाली सरस्वती महाकाव्यरूपी गगन में अप्रतिहतत रूप से विभिन्न मार्गों (अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि विभिन्न प्रकार) से परिमल प्रवाहित करती है (चमत्कार उत्पन्न करती है), अर्थात आह्लादित करती। अतएव उसका रसास्वादन करनेवाले, उसका अनुशीलन करनेवाले कवियों को अन्य (इतर) काव्य (सामान्य काव्य) किस प्रकार आनन्द प्रदान कर सकते हैं।

इस श्लोक का अर्थ आचार्य मम्मट ने वक्रोक्तिजीवितकार आचार्य कुन्तक के अनुसार किया है- कवियों की जिन कान्तियों के मध्य में सुकुमार, विचित्र और मध्यम मार्गों(वक्रोक्ति के तीन साधन) से त्रिपथगा सरस्वती चमत्कार प्रवाहित करती हैं। गम्भीर काव्यों से परिचित वे (किरणें) साधारण काव्य के समान कैसे सुबोध हो सकती हैं।

इसका दूसरे पक्ष में अर्थ किया गया है कि जिन आदित्य की प्रभाओं के मध्य में त्रिपथगा आकाशगंगा बहती है, वे मेघों से आच्छादित होने पर कैसे स्वच्छ हो सकती है।

यहाँ कवि ने अर्थ को बहुत उलझा दिया है। इसका अर्थ निकालने में बड़ी कठिनाई है। अतएव इसमें कष्टत्व या क्लिष्टत्व दोष है।

हिन्दी की निम्नलिखित कविता उक्त श्लोक का थोड़ा परिवर्तन के साथ पद्यानुवाद है। केवल यह भाव देने के लिए कि काव्य के आकाश में मेरी सरस्वती (कविता) सुधा से युक्त होकर प्रवाहित होती है और अन्य कवियों की वाणी मेघ के सदृश है। तात्पर्य यह कि मेरी कविता अन्य कवियों से श्रेष्ठ है। जिन लोगों ने उन साधारण कवियों की ही कविता पढ़ी है, वे मेरी कविता का आनन्द कैसे ले सकेंगे। इस अर्थ का बोध कठिनाई से होता है। अतएव यहाँ भी कष्टत्व या क्लिष्टत्व अर्थदोष है।

कल काव्य के व्योम में है बहती जो सरस्वती शुभ्र सुधा से भरी।

मल दूर हटा, पद शुद्ध करे, क्षण में करके हिय-भूमि हरी।

उसकी मधुता, मृदुता, शुचिता, मन-मोदकरी उसकी लहरी।

लख कैसे सकें वे भला उसको बस देख सके जो घटा घहरी।।

जहाँ कविता में किसी चीज का उत्कर्ष बताकर अपकर्ष दिखाया जाय या अपकर्ष दिखाकर उत्कर्ष दिखाया जाय, वहाँ व्याहत अर्थदोष होता है। निम्नलिखित श्लोक इसका उदाहरण है। यह मालतीमाधव नामक नाटक से लिया गया है। अपनी प्रियतमा मालती के सौन्दर्य का उत्कर्ष बताते हुए नायक माधव की यह उक्ति है-

जयति जयिनस्ते ते भावा नवेन्दुकलादयः

प्रकृतिमधुराः सन्त्येवान्ये मनो मदयन्ति ये।

मम तु यदियं याता लोके विलोचनचन्द्रिका

नयनविषयं जन्मन्येकः स एव महोत्सवः।।

अर्थात् नवीन चन्द्रमा की कला आदि सर्वोत्कृष्ट भले ही हों, इसके अतिरिक्त इस जगत में अन्य पदार्थ भी लोगों के लिए मनमोहक होंगे, जो मन को आनन्द प्रदान करते हैं। परन्तु मेरे लिए तो इस संसार में दिखलायी पड़नेवाली नेत्रों की चाँदनी रूपी मालती ही इस जीवन का महोत्सव है।

यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध में जिस चाँदनी को न्यून दिखाया गया है, उत्तरार्द्ध में उसी चाँदनी द्वारा मालती का उत्कर्ष बताया गया है। अतएव इस श्लोक में व्याहत अर्थदोष है।

इसी प्रकार निम्नलिखित दोहे के प्रथम दो चरणों में पहले चन्द्रमुखी कहकर हिमकर (चन्द्रमा) को उसके मुख के समान न कहना और तीसरे तथा चौथे चरण में कमलदृगी कहना, फिर उसके समान एक भी कमल का न भाना व्याहत अर्थदोष है।

चन्द्रमुखी के बदन सम, हिमकर कह्यो न जाय।

कमलदृगी के नैन सम, कंज न एको भाय।।

यह श्लोक वेणीसंहार नाटक से लिया गया है। महाभारत के युद्ध में निर्दयता पूर्वक छल से धृष्टद्युम्न के द्वारा आचार्य द्रोण का वध किए जाने पर उनके पुत्र अश्वत्थामा की यह उक्ति है।

कृतमनुमतं दृष्टं वा यैरिदं गुरुपातकं

मनुजपशुभिर्निर्मर्यादैर्भवद्भिरुदायुधैः।

नरकरिपुणा सार्धं तेषां सभीमकिरीटिना-

मयमहसृङ्मेदोमांसैः करोमि दिशां बलिम्।।

अर्थात् जिन शस्त्रधारी मर्यादारहित नरपशुओं ने यह महापाप किया है या जिसने इसकी अनुमति दी है (अनुमोदन किया है) अथवा जिसने इसे (वध को) देखा है उन सबके, श्रीकृष्ण, भीम, अर्जुन आदि सहित (जिन्होंने धृष्टद्युम्न को वध करने से रोका नहीं) सभी के रक्त, मेद (चर्बी) और मांस से मैं सभी दिशाओं की बलि (पूजा) करता हूँ (करूँगा)।

इस श्लोक के पहले वाले श्लोक में अर्जुन, अर्जुन, भवद्भिः (आपलोगों के द्वारा) कहने के बाद पुनः सभीमकिरीटिनाम् पद में पुनः अर्जुन के लिए किरीटि पद का प्रयोग पुनरुक्त दोष है।

इसी प्रकार निम्नलिखत हिन्दी कविता के प्रथम चरण में विषाण और दूसरे चरण में पुनः शृंग पद का प्रयोग पुनरुक्त दोष का ही उदाहरण है-

कणित मंजु बिषाण हुए कई, रणित शृंग हुए बहु साथ ही।

फिर समाहित प्रांतर भाग में सुन पड़ा स्वर धावित धेनु का।

अगले चार अर्थदोषों पर चर्चा अगले अंक में प्रारम्भ की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।

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9 टिप्‍पणियां:

  1. आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 09-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  2. आचार्य जी! जितना इस श्रृंखला को पढता जाता हूँ उतना ही मुग्ध होता जाता हूँ!! कभी आपके सान्निध्य में बैठकर यह सब सीखने का अवसर प्राप्त हो ऐसी कामना है!!प्रणाम!

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  3. bahut saarthak jankari deti hui post.aabhar.nav varsh ki shubhkamnayen.

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