सोमवार, 19 सितंबर 2011

जब सवेरे आंख खुलती है


जब सवेरे आंख खुलती है


श्यामनारायण मिश्र

जब सवेरे आंख खुलती है
इस तरह महसूस होता है।

हम धकेले जा रहे हैं
    म्युजियम से जंगलों में।
बिस्तरों से दफ़्तरों तक
    बजबजाते   दलदलों में,
मन में शमशान वाली
         नीम घुलती  है।

मस्तिष्क की शिराएं
सड़कें  हो  जाती हैं
    मन विचारों के
        चकों पर दौड़ता।
भावना के किसी
छज्जे के  तले
    तोड़कर दम बैठ  जाती
        अनामंत्रित प्रौढ़ता।
कुंठा की नागिन
    तब विष  उगलती  है।

20 टिप्‍पणियां:

  1. jeevan ki bhagdaud ki kuntha hi to yeh sab mahsoos karati hai.achchi abhivyakti.

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  2. एक सर्वथा भिन्न वातावरण निर्माण कर लिया है हमने।

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  3. आदरणीय मिश्र जी के बहुत ही उच्च कोटि के गीतों का रसास्वादन हम कर चुके हैं। सो, यह रचना उनके प्रारम्भिक दौर की प्रतीत होती है, क्योंकि दूसरे पद में एकाधिक स्थानों पर अवरोध उत्पन्न है।

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  4. गुप्त जी की बातों से सहमत.. चूँकि उन्होंने कह दिया इसलिए सहमति जताने की इच्छा हुई.. फिर भी इस नवगीत के भाव तो ऐसे हैं जैसे हमारी अपनी कहानी बयान करते हों.. बिलकुल ऐसा ही हो चला है जीवन... खुद से ही मुलाक़ात हुए महीनों हो जाते हैं!!

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  5. राजेश कुमारी जी की बात से शामत हूँ जीवन की भागदौड़ की कुंठा को बहुत बढ़िया तरीके से उकेरा है आपने बढ़िया पोस्ट
    कभी समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  6. यह कुंठित जीवन हमारा अपना ही चुना हुआ है।

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  7. क्या करें सर जी? इसी का नाम ज़िन्दगी है ! उम्दा ख्यालों को शब्दों में पिरोने के लिए बधाई !

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  8. भावना के किसी
    छज्जे के तले
    तोड़कर दम बैठ जाती
    अनामंत्रित प्रौढ़ता।
    कुंठा की नागिन
    तब विष उगलती है।

    ...बहुत सटीक प्रस्तुति... बहुत सुंदर

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  9. श्यामनारायण मिश्र जी की बहुत सुंदर रचना की प्रस्तुति...

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  10. मनोज कुमार जी का यह प्रयास प्रशंसनीय है कि आज मिश्रजी हमलोगों के बीच नहीं है, फिर भी हम उन्हें प्रत्येक सप्ताह पढ़ रहे हैं, सुन रहे हैं। आभार।

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  11. सत्य व भावपूर्ण सुंदर अभिव्यक्ति।

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  12. श्याम नारायण मिश्र जी की सभी कवितायें प्रभावित करती हैं.प्रस्तुति के लिए आभार.

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  13. बेहतरीन रचना .,गहरी अभिव्यक्ति

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