शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

शिवस्वरोदय – 61

शिवस्वरोदय – 61

- आचार्य परशुराम राय

दूतः रक्तकषायकृष्णवसनो दन्तक्षतो मुण्डित-

स्तैलाभ्यक्तशरीर रज्जुकरो दीनोSश्रुपूर्णोत्तर।

भस्माङ्गारकपालपाशमुशली सूर्यास्तमायाति यः

कालीशून्यपदस्थितो गदयुतःकालानलस्यादृतः।।336।।

भावार्थ – यदि दूत (प्रश्न करने वाला) लाल, कषाय (नारंगी) अथवा काले रंग के वस्त्र धारण किए हुए हो, दाँत टूटे हों, सिर का मुंडन कराये हो, शरीर में तेल पोते हुए हो अथवा उसके हाथ में रस्सी, राख, आग, नरमुंड, चिमटा हो तथा सूर्यास्त के समय खाली स्वर की दिशा से वह आए और उसी दिशा में बैठ जाय, तो समझना चाहिए कि वह साक्षात् यम है।

English Translation – A person in garment of red, ruddle or black colour, broken teeth, shaved head or with roap, ash, fire, skull or tongs in his hand, comes at sunset from the side of absent breath and sits on the same side. He should be considered as messenger of death.

अकस्मातच्चित्तविकृतिरकस्मात्पुरुषोत्तमः।

अकस्मादिन्द्रियोत्पातः सन्निपाताग्रलक्षणम्।।337।।

भावार्थ – किसी रोगी में अचानक मनोविकार उत्पन्न हो जाए तथा थोड़ी ही देर में सुधार के लक्षण दिखने लगे और फिर अचानक प्रलाप करने लगे, तो इसे सन्निपात का लक्षण समझना चाहिए।

English Translation – If condition of a patient suddenly deteriorates and after some time sign of sudden recovery is observed or he utters meaninglessly, such symptoms are indication of delirium.

शरीरं शीतलं यस्य प्रकृतिर्विकृता भवेत्।

तदरिष्टं समासेन व्यासतस्तु निबोध मे।।338।।

भावार्थ – उक्त अवस्था में उस व्यक्ति का शरीर शीतल होने लगे तथा उसकी अवस्था खराब होने लगे, तो उसका अनिष्ट समझना चाहिए। उसे मैं विस्तार पूर्वक बताता हूँ।

English Translation – If in the delirious state, patient’s body becomes cold and deterioration in the condition continues, this symptom indicates death. I (Lord Shiva) expatiate this further.

दुष्टशब्देषु रमतेSशुद्धशब्देषु चात्मनि।

पश्चात्तापो भवेद्यस्य तस्य मृत्युर्न संशयः।।339।।

भावार्थ – यदि कोई व्यक्ति अपशब्द कहे और तुरन्त थोड़ी देर में अपने अपशब्द पर पश्चात्ताप करने लगे, तो निस्संदेह उसकी अचानक मृत्यु हो जाती है।

English Translation – If the patient at one moment abuses and immediately after some time repents for the same, his sudden death is inevitable.

हुंकारो शीतलो यस्य फुत्कारो वह्निसन्निभः।

महावैद्यो भवेद्यस्य तस्य मृत्युर्भवेद्ध्रुवम्।।340।।

भावार्थ – जिस व्यक्ति की अन्दर जानेवाली श्वास शीतल हो और छोड़ी जानेवाली आग की भाँति गरम हो, उसे मृत्यु से बड़ा से बड़ा चिकित्सक भी नहीं बचा सकता।

English Translation – If the patient’s inspiration is cool and expiration is hot like fire, even a renowned physician cannot save his life.

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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

आँच- (89) पर : शैशव

समीक्षा

आँच- (89) पर : शैशव

clip_image002हरीश प्रकाश गुप्त

मेरा फोटोआज से लगभग एक वर्ष पहले इसी ब्लाग पर एक बालगीत प्रकाशित हुआ था शैशव। यह एकमात्र बालगीत है जो अभी तक इस ब्लाग पर प्रकाशित हुआ है। पाँच पदों में रचे गए इस गीत में बालवृत्तियों का और उसके मनोभावों का सूक्ष्म चित्रण हुआ है। आचार्य़ परशुराम राय द्वारा रचित यह बालगीत बहुत ही सरस, सहज और मनमोहक है। इसकी शब्द योजना आकर्षक है। आँच के इस स्थायी स्तम्भ पर अभी तक किसी भी बाल गीत पर चर्चा नहीं हुई है। अतः सोचा कि इस रचना के माध्यम से इस रिक्ति को भरने का कुछ प्रयास किया जाए।

clip_image008शिशु का जीवन जहाँ स्वच्छन्द जीवन होता है वहीं नितान्त निश्छल भी होता है। दीन-दुनियाँ के आग्रहों से पूर्णतया मुक्त। आग्रह तो बाह्य वातावरण-पर्यावरण, मानवीय व्यवहार-बर्ताव और अपेक्षाओं से निर्मित होते हैं। शिशु की अपेक्षाएं भला क्या हो सकती हैं? क्षुधा के समय उदर पूर्ति तथा स्नेहासिक्त स्पर्श। इससे पृथक शिशु की दुनियाँ अपनी है, जिसमें वह बिलकुल स्वतंत्र-स्वच्छन्द होकर अपने क्रियाक्रलापों में निर्मग्न रहता है। न कोई नियम, न कोई बन्धन। वह पूर्णतया एकाग्रचित्त होकर, तन्मयता के साथ अपने में लगा रहता है। यह भले ही उसका अँगूठा चूसना क्यों न हो? उसके लिए अँगूठा चूसना भी अमृत पान के सदृश ही है। आप कभी अंगूठा चूसते बच्चे के मुख से उसका हाथ हटाकर देखिये। वह कितना मचलता है, कितना रोता है? और फिर जैसे ही उसे अँगूठा फिर से मुख में रखने का अवसर मिलता है, उसका रोना, मचलना काफूर हो जाता है। हमारी सामान्य समझ में यह सब उसका खेलना और विभिन्न खिलवाड़ करना है, लेकिन ये ही उसके कार्य हैं और वह इन खिलवाड़ों को पूरे मनोयोग से सम्पादित करता है, उनमें आनन्द लेता है और प्रफुल्लित होता है। उसका यही भोलापन हमारी बड़ी समझ को बहुत भाता है और उसकी निश्छल अबोधता हमें गुदगुदाती है “... भर देते सब में खुशियाँ”।

clip_image004जीवन में शैशव ही ऐसा काल है जहाँ सांसारिक जगत के उत्तरदायित्व नहीं हैं। दिनानुदिन की समस्याएं नहीं हैं, जीवन संघर्ष नहीं हैं, आरोह और अवरोह भी नहीं हैं। जीवन मुक्त प्रवाह की तरह है। वास्तव में, शिशु की कार्य के प्रति तन्मयता, लगन, निष्ठा, तथा निश्छलता, निर्भीकता और निष्कपटता आदि वे मानवीय भाव हैं जो बढ़ती उम्र के साथ दूरी बना लेते हैं, लेकिन हमारा जो अन्तर्मन है, उसमें यह तृषा जीवंत रहती है। अन्तिम पद में कवि की एक बार पुनः शिशु जीवन पाने की अभिलाषा इसी तृषा से उद्भूत है, जिसमें आनन्द की पराकाष्ठा है और जिसके आगे दुनियाँ के सब वैभव अर्थहीन हैं। जिसमें न कोई पक्षपात है और न ही अपने पराए का कोई भाव है।

clip_image014बच्चे स्वभावतः निर्भय होते हैं। डरना तो वे समाज से सीखते हैं। कहीं-कहीं तो हम अपने उत्तरदायित्वों को सीमित करने के लिए अथवा अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए उन्हें जाने- अनजाने डरना सिखाते है। अन्यथा शिशु का डर से दूर–दूर का वास्ता नहीं होता। ज्ञान भी हमारे डर का एक कारण है। जिसके बारे में हम नहीं जानते उससे डर कैसा? बच्चा नहीं जानता कि बिना मुंडेर की छत पर आगे बढ़ने से क्या होगा? वह उसी तन्मयता से आगे बढ़ता रहता है। अभी हाल ही में मेरे एक मित्र ने मेरी मेल पर एक बच्चे की फोटो भेजी है जिसमें बच्चा भीड़ में अपने पिता की ऊँचे उठी हथेली पर दोनों पाँव जमाए खड़े होकर दृश्यवलि कैमरे में कैद करने की चेष्टा में है और उसके चेहरे पर सम्भावित खतरे के कारण लेश मात्र भी भय़ के निशान नहीं हैं। इसी प्रसंग मे अभी हाल में मध्य प्रदेश के एक बच्चे का चित्र मस्तिष्क में उभर आया जिसमें वह पाँच वर्ष का बालक भयावह रूप से उफनाती नदी के बीचोबीच मात्र एक छोटे से पत्थर पर निर्भीकता से डटा रहा। बाद में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने उस बालक को उसके साहस के लिए पुरस्कृत भी किया था। कवि ने शिशु की इसी निर्भयता को गीत में कुछ इस तरह व्यक्त किया है - “निर्भयता का पिए रसायन / चलते गति स्वच्छंद लिए”।

clip_image006हिन्दी में बालगीतों पर अधिक कार्य नहीं हुआ है। क्योंकि बालगीतों को स्तर का साहित्य नहीं माना गया। हॉलाकि यह विधा भी अन्य विधाओं की तरह साहित्य की एक विधा है और कुछ कवियों ने इस दिशा में साहस का परिचय देते हुए अपनी कलम चलाई है तथा बहुत सुन्दर और मनोहर गीत साहित्य को दिए हैं। आचार्य राय जी का प्रस्तुत गीत भी ऐसी ही एक सशक्त रचना है। इस गीत की शब्द योजना न केवल मनभावन और आकर्षक है, बल्कि यह बाल मनोविज्ञान की सूक्ष्म अभिव्यक्ति भी है। गीत में भावों की गहनता है। तथापि आचार्य जी का ध्यान गीत के कुछ विन्दुओं पर आकृष्ट करना चाहूँगा। यद्यपि पूरा गीत मात्रिक दृष्टि से सर्वथा सुसंगत और मधुर शब्दावलि से अलंकृत है, लेकिन तीसरे पद की दूसरी पंक्ति में एक मात्रा अधिक है तथा शेष गीत की मात्राओं से असमान हो गई है। तथापि गीत में प्रांजलता आद्योपांत विद्यमान है। गीत के दूसरे पद में ‘अँगूठे को चूस-चूस कर / करते तुम अमृत का पान’ में “अँगूठे” की ‘ठ’ मधुर कम, कठोर अधिक लगती है और उसकी ठोकर ओकार की दहलीज को इस तरह पार करती है जैसे समतल राह में कोई अवरोधक आया हो। यदि यहाँ पर “अँगूठे” के स्थान पर “अँगूठों” कर दिया जाए तो “को” से कुछ सीमा तक लय बन जाती है। चतुर्थ पद “मृदु भावों में जीवन तेरा / क्रूर जगत की जहाँ न धूप / ऊँचे-ऊँचे तूफानों के / बनते नहीं जहाँ स्तूप” में प्रसाद की कामायनी सा नाद है। यह गीत पढ़ते समय मन ने एक बार फिर कामायनी को पलटने को विवश कर दिया। इसके अतिरिक्त दूसरे पद की पंक्तियाँ “अँगूठे को चूस-चूसकर / करते तुम अमृत का पान” तथा तीसरे पद में “दुख में स्वागत करती आँखें / आँसू का जयमाल लिए” सुभद्रा कुमारी चौहान के गीत “बचपन” का स्मरण करा जाती हैं। दुख में कपोलों पर बह आए आँसुओं को आँखों द्वारा आँसुओं की जयमाला लेकर दुख का स्वागत करने की व्यंजना बेहद आकर्षक है और यह पूरे गीत की विशिष्टि भी बन गई है।

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बुधवार, 28 सितंबर 2011

देसिल बयना – 99 : अब सतवंती होकर बैठी...

-- करण समस्तीपुरी

खादी भंडार पर मेला का चहल-पहल शुरु होय गया था। देसुआ गांव का लुल्हैया कुम्हार चौठीचंदा का खीर-पूरी खाकर मूर्ती बनाने में लग गया था। बिलैतिया तो कह रहा था कि मूर्ती पूरा कमपलीट है। सिरिफ़ आँखिये पड़ना बांकी है। उ तो षष्ठी के राते पड़ेगा। madurai

सारा अंगना-घर गाय के गोबर से लिपा-पुता गया था। दुर्गा मैय्या के आगमनी का गीत-नाद शुरु था। भोरे से लौडिसपीकर पर “जय-जय भैरवी” बज रहा था। दुपहरिया से पहिले लगभग सब जगह कलशथापन भी हो गया। पंडीजी गोसाईं-घर में “नमस्तस्यै... नमस्तस्यै... नमस्तस्यै.... नमो-नमः” करके जा चुके थे। मैय्या छोटे-छोटे काले कपड़े में लहसुन-हींग भरकर सुई-धागा से सीने में मशगूल थी। दादी का हुकुम था। सबही बाल-गोपाल के कमर में बांधा जाएगा। काल-रात्री में नजर-गुजर, डायन-जोगिन हर बुरी बला से रच्छा करेगा।

कबरी गाय नाद खालीकर जुगाली कर रही थी। उजरी बछिया माय के सटे बैठी ज्वार की पत्तियां चबा रही थी। बाबा दलान पर बैठे गीता प्रेस गोरखपुर वाला ’कल्याण’ पढ़ रहे थे। दादी अभी-अभी कलेउ कर के आयी थी और हमेशा की तरह दांतों में फस गई अन्नपुर्णा देवी को आंवला के सींक से निकालने का जतन कर रही थी। पूजा-पाठ के अलावे सब-कुछ और दिनों की तरह ही चल रहा था मगर कुछ मिसिंग लग रहा था। ओ.... अच्छा...! महजिदनी नहीं आई थी अभी तक। आन दिन तो दादी के कलेउ खतम होते-होते धमक जाती थी।

रोज घर-आंगन आए वाली महजिदनी से हमें बड़ी आत्मियता हो गयी थी। गाँव-जेवार में महजिदनी का चरित्र अच्छा नहीं समझा जाता था। अब तो बुढ़ा गयी थी। नहीं तो सुनते थे कि पटनिया पुलिस को भी छका देती थी। सुल्ताना डाकू से भी अव्वल थी। मगर हमरी दादी के साथ उका खूब जमता था। खूब हंसी-मजाक। शायद एहि सब से

महजिदनी हमें भी दादी जैसी ही लगने लगी थी। जब-तब वो हमैं गोद में लेना चाहती थी मगर महजिदनी जब तक रहती थी बाबा की चौकस नजर हम से हटती नहीं थी। बहुत सशंकित रहते थे। पहिल पोता है कहीं महजिदनिया एहि को चुरा न ले जाए।

वैसे उ हमरे घर में भी कई बार हाथ साफ़ कर चुकी थी। मगर दादी थी कि महजिदनी के बिना उका खाना पचता नहीं था। बाबा भी होली-दिवाली में महजिदनी को भी खादी-भंडार से साड़ी दिलवा देते थे। खाना-पीना तो रोजे चलता था। जौन दिन नहीं आई उ दिन बीमार है या गई होगी मिशन पे। पता तब चलता था जब भकोलिया माय के उके लिये कलेउ लेके जाती थी। महजिदनी जब भी बाहर से आती थी हमरे लिये पांवरोटी का पैकेट लाना नहीं भूलती थी। बाबा से नजर बचा के देती थी, “ओन्ने जाके खाय लो.... महटर (मास्टर) देख लेगा तो हजार गत करेगा।

बड़े किस्सेhousewives थे महजिदनी के। गब्बर सिंघ वाला किस्सा तो नहीं पता मगर गाँव-घर में सच्चे नई बहुरिया, पाहुन-कुटुम को डराते थे, “हे....! जगले रहियो...! सोइयो तो हलकी नींद में। महजिदनी गाँवे में है... इधर आँख बंद हुई उधर डिब्बा गायब।” गए माघ की बात है। धीरू कका के ससुर आए थे, घटकैती (वर खोजने) में। देर रात खान-पान हुआ। वहीं दलान पर सेजौट का बिसतर लगा। सब जने सो गए मोटका कंबल ओढ़के। बेचारे अधरतिया में ठंड से ठिठुरे। कबहु इधर वाला का कंबल खींचे, कबहु उधर वाला के। दोनों साइड वाले अजिया के बोले, “हौ मरदे....! अपना कंबल ओढिये न...।” तब जाकर बेचारे देखते हैं कि जा...! कंबले गायब है। सोचे कि घरबैय्या को कम पड़ गया होगा एहि खातिर उन्हीं के देह पर से ले गए। बेचारे रात भर ठिठुरते रहे।

दिन में निरधन महतो बिछावन समेटे लगा तो एक कंबल कम...! घरबैय्या सोचे कि धीरू कका के ससुरे रख लिये होंगे अपने मोटरी में। खोज-परताल के बाद पता चला कि कंबल तो राते से गायब है। “ओह.... तो ई महजिदनी का ही करामात है...!” कई लोगों के मुँह से एक साथ निकला था।

लोक कहते हैं कि उ रात में मर्दाना वेश बनाकर घोड़ा पर चढ़ कई गाँव से गांजा-तमाकू लूट आती थी। नेपलिया गांजा का बेपारी महजिदनी से साठ-गांठ कर लिया था। सेर भर माल पहुँचाना था पटनिया नवाब को। मरजन्सी (इमर्जेन्सी) का टेम था। महजिदनी साड़ी-वस्तर में सेर-भर गांजा छुपाकर चल पड़ी। शायद कौनो भेदिया भी लगा था। पहलेजा घाट से पुलिस उके पाछे पड़ गई सादे लिवास में। दुई कोस तक महजिदनी का पीछा किया...। रंगे हाथ पकड़ने का पिलान था। मगर महजिदनी अपने खेलल-खेसारी। पुलिस का अंदेसा भांप गयी। चट से एगो होटल में घुस गयी। दो सेर दही चीनी औडर किया। और वही में गांजा लपेट के सुरुक गयी। पुलिस बाहिर हाथ मलते रह गयी। बाद में चेक किया तो मिला घड़ीघंट... हा... हा... हा... ह.... ! ऐसन करतब से भरी थी महजिदनी की जीवनी। मगर लाख नेकी-बदी एक तरफ़ हमरी दादी से उका सिनेह एक तरफ़ था। मुझे भी उसका आना बहुत अच्छा लगता था। बल्कि दोपहर को इंतिजार ही रहने लगा था।

महजिदनी आयी। आँखों में सुरमा और दाँतो में मिसी लगा के मुस्कराती आयी थी। दादी का हंसी मजाक शुरु हो गया। दादी बोली, “का बात है री छम्मकछल्लो....! कहाँ से हाथ मार कर आ रही है... मुल्ला फ़ँसाई कि माल...?” “आ... दुर्र....! महटर साहेब....।” बाबा की तरफ़ आँख नचाती हुई बोली थी महजिदनी और बढ़ती चली गयी आंगन की ओर। उसके पीछे दादी के साथ मैं भी आ गया था।

दादी भी छोड़ने वाली नहीं है, “का री...... बोलती काहे नहीं है....? ई कजरा-गजरा से किसे लूट आयी हो....?” “आ दुर्र जाओ भौजी.... का बुढारी में जुआनी वाला मज़ाक छेड़ती हो...! हम का ई सब करते हैं.....? “ना ना ना.......तू तो एकदम सतवंती है....!” दादी इठलाकर बोली थी। “और नहीं तो का.... काजर तो नवमी-दसमी में नजर-गुजर से बचे खातिर लगा लिये.... और आप दुरगा माई के दिन में भी ऐसन बात करती हैं। ई पुण्ण के दिन में दुई नमरी धंधा का नाम... राम-राम.... या अल्लाह...! भौजी की मति भली करो....!” महजिदनी के डायलोग में और थी इतराहट थी। हमरी दादी भी कम नहीं थी। नहला पर दहला फ़ेंकी, “हाँ-हाँ... काहे नहीं....! ’अब सतवंती होकर बैठी.... लूट लिया सारा संसार।’ सारी दुनिया को लूटकर अब चली है सती बनने। क्या जो कहता है, वही वाली बात, “सौ-सौ चूहे खाकर, बिल्ली चली हज़ को!” मिथिला लूटा, भोजपुर लूटा, बंगाल को किया कमाल.... दानापुर का थाना लूटा, पटना के नवाव लूटा, गाँव को लूटा, शहर को लूटा... अब आई है भगतिनी बनने.... दुरगा माई... राम-राम... या अल्ला...!”

दादी की बात खतम होते-होते आंगन में दबी सी हंसी छिटक पड़ी थी। मैय्या और लालकाकी तो मुँह दबाकर हंस रही थी मगर डढ़िया वाली और भकोलिया माय खिखिया पड़ी.... खी...खी....खी... खी..... ही... ही.... ही... ही.....। “अब सतवंती होकर बैठी... लूट लिया सारा संसार.... का री महजिदनी?” सबकी हंसी का निशाना महजिदनी ही थी। महजिदनी भी दबे होंठ मुस्कुरा पड़ी थी।

हमें कुछ समझ में नहीं आया तो आ गये बाहर बाबा पास। सारा किस्सा बताए तब बाबा समझाए, “जिंदगी भर बुरे कर्म करके आखिर में जब कोई साधु बनने का स्वांग करता है तो क्या कहोगे....? अरे बुरबक वही बात... अब सतवंती होकर बैठी लूट लिया सारा संसार।”

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

भारत और सहिष्णुता-अंक-21

भारत और सहिष्णुता-अंक-21

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जितेन्द्र त्रिवेदी

 

अलबरनी के हवाले से मैं यह कहना चाहता हूँ कि आक्रांताओं के बारे में हमदर्दी दिखाना सच पर जानबुझ कर पर्दा डालने जैसा है। अलबरनी खुद गजनी की सेना का हिस्‍सा था और उसका नमक खाता था लेकिन उसने अपने लेखन में कहीं भी महमूद गजनी के कारनामों की प्रशंसा तो दूर उन्‍हें छिपाने की भी कोशिश नहीं की। उसने बड़ी बेबाकी से गलत को गलत कहा और गजनी के हमलों को कहीं से भी ‘ईस्‍लाम सम्‍मत’ नहीं बताया। अपितु अलबरनी ने साफ-साफ शब्‍दों में लिखा कि इससे इस्‍लाम को फायदे की अपेक्षा नुकसान ही अधिक हुआ। अलबरनी ने भारतीय साहित्‍य को पढ़ने के लिये स्‍वयं अधेड़ अवस्‍था में संस्‍कृत सीखी और वेद, उपनिषदों सहित दर्जनों पुस्‍तकों को पढ़ने के बाद भारत के बारे में बड़ी मुकम्‍मल राय दुनियां के सामने रखी। जहाँ वह भारतीय मेधा और ज्ञान का कायल था वहीं उसने यहाँ की कुरीतियों की निंदा भी की है। वह लिखता है - "भारतीय किसी बर्तन को दूसरे के छू लेने पर अपने उपयोग का नहीं समझते जो कि उनके तंग दायरे को बताता है। और उन्‍हें चीजों को पुन: शुद्ध करके इस्‍तेमाल करने की कला आती ही नहीं।" इस तरह अलबरनी ने जिस आलोचनात्‍मक और निष्‍पक्ष तरीके को अपनी बात कहने का माध्‍यम बनाया, उसी अंदाज में आज फिर से मुसलमानों के भारत आगमन और यहाँ बस जाने के सूत्रों को समझने की कोशिश करनी चाहिए। जिस तरह तुर्क आक्रांताओं की बर्बरता पर पर्दा डालने का प्रयास मूर्खतापूर्ण होगा उसी तरह भारत में मुसलमानों की मौजूदगी को विदेशी या विजातीय तत्‍वों की उपस्थित करार देना उससे भी बड़ी मूर्खता होगी क्‍योंकि जिस तरह इस अध्‍याय में हमनें देखा कि कैसे यहाँ अगणित विदेशी जातियों के हमले हुए, उन्‍होंने यहाँ जो भी न करने लायक चीजें थी, कीं, फिर भी अन्‍तत: वे इसी मिट्टी का हिस्‍सा बन गये उसी लहजे में हमें मुसलमानों के आगमन को भी देखने की जरूरत है। डॉ. अमर्त्‍यसेन ने इस बात की गहराई को समझते हुए अपनी पुस्‍तक – ‘आर्ग्‍यूमेन्‍टेटिव इंडिया’ में बड़ी मार्के की बात कही है:

"महमूद गजनी और अन्‍य आक्रांताओं द्वारा किये गये भीषण विनाश के ही किस्‍से बखानने तथा धार्मिक सहिष्‍णुता के लंबे इतिहास की अनदेखी करने के प्रयास उचित नहीं होगें। वास्‍तविकता यही है कि भारत में आते समय आक्रांताओं ने चाहे जितनी क्रूरता और बर्बरता का प्रदर्शन किया हो किन्‍तु यहाँ बस जाने के बाद कुछ एक अपवादों को छोड़कर उन्‍होंने भी सहनशीलता ही अपना ली थी। भारत के मुसलमान शासकों में मुगलों को तो विध्‍वंसक नहीं अपितु निर्माणकर्ता कहना अधिक उपयुक्‍त लगता है।" उन्‍होंने भारत में बाहरी तत्‍वों के प्रवेश पर अलग से टिप्‍पणी करते हुए उसी किताब में लिखा है कि "धार्मिक सहिष्‍णुता तो भारत के इतिहास में यहाँ अनेक धर्मों के फलने-फूलने से ही स्‍पष्‍ट हो जाती है। यहाँ हिन्‍दू, बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई, इस्‍लाम, पारसी, सिख, बहाई आदि अनेक धर्मो के अनुयायी सदियों से रह रहे हैं। हिन्‍दू शब्‍द भी बाहर से आया है और फारसी और अरबों की देन माना जाता है – उन्‍होंने सिंधु नदी के नाम पर यहाँ बसे लोगों का और उनके नाम का निर्धारण कर लिया था। यहूदी तो येरूशलम के पतन के तुरंत बाद ही भारत आ गये थे। उनसे भी पहले 8वीं शताब्‍दी ई.पू. में ‘बेन’ नामक इजरायली कबीले के लोग भारत आ गये थे। बाद में भी यहूदियों का आगमन समय-समय पर होता रहा। 5वीं और छठी शताब्दियों में दक्षिण अरब, फारस से, तो फिर बगदाद और सीरिया से 18वीं से 19वीं सदी में भी यहूदी भारत में आकर बसे है। ये मुख्‍यत: कोलकाता और मुंबई के आसपास ही केन्द्रित रहे हैं। ईसाई भी बहुत जल्‍दी ही भारत आ गए थे। चौथी शताब्‍दी तक आज के केरल प्रांत में ईसाईयों की अच्‍छी-खासी बस्तियॉं बस चुकी थी। 7वीं शताब्‍दी के अंत में ईरान में धार्मिक उत्‍पीड़न से त्रस्‍त पारसी समुदाय ने भी भारत की ओर रूख किया। भारत में शरणार्थी बना अंतिम समुदाय बहाई है। इस लंबे इतिहास काल में और अनेक धाराओं में यहाँ आकर लोग बसे हैं। 8वीं शताब्‍दी में पश्चिमी तट पर मुस्लिम अरब व्‍यापारियों ने बसना शुरू कर दिया था। यह उत्‍तर-पश्चिम से आक्रमणकारी इस्‍लाम के आगमन से कहीं पहले की बात रही है। भारत के बहुधार्मिक परिदृश्‍य में प्रत्‍येक धर्म का अनुयायी समुदाय अपना विशिष्‍ट स्‍वरूप बनाये रह सका है। विविधता और बहुलता की समृद्ध परंपरा ने सदा अन्‍यों से सम्‍मानपूर्ण आदान-प्रदान और संवाद के आधार पर सहिष्‍णुता को ही उचित ठहराया है।"

उपरोक्‍त अध्‍ययन से यह स्‍पष्‍ट हो गया है कि 1000 ई. तक भारत की धरती पर कई सजातीय और विजातीय तत्‍व एक साथ रहने लग गये थे और यहाँ की संस्‍कृति एक मिश्रित संस्‍कृति का स्‍वरूप धारण कर चुकी थी और इसे भानुमती का कुनबा कहा जा सकता है और जब 1000 वर्ष पूर्व ही भारत में नाना भाँति के विचारों, धर्मों वाले लोग रहने की पंरपरा शुरू हो चुकी थी तो 20वीं – 21वीं सदी में अचानक से हम एक ही धर्म और संस्‍कृति की प्रमुखता की बात क्‍यों करने लग गए हैं?

सोमवार, 26 सितंबर 2011

नई किरणों के लिए


नई किरणों के लिए
श्यामनारायण मिश्र

दिन कटा,
ज्यों किसी सूमी महाजन का
         पुराना ऋण पटा।

कल सुबह की
नई किरणों के लिए,
पी रहे आदिम-अंधेरा
    आंख मूंदे, मुंह सिए।
करवटें लेते हुए
महसूस  करते  रहे   भीतर
      स्वर्ण केशों की घटा।

सीखना है,
हाथ बांधे हुए चलना
    इस कसाई वक़्त के पीछे।
भूलना है,
एक मीठी आग का बहना
    नसों  में रक्त  के नीचे।
भागना है,
जले जंगल से उठाकर कांवरों भर
      याद की स्वर्णिम छटा।

रविवार, 25 सितंबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 85

भारतीय काव्यशास्त्र – 85

- आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में निहतार्थ, अनुचितार्थ और निरर्थक दोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अवाचक, अश्लील और सन्दिग्ध दोषों पर चर्चा की जाएगी।

अवाचक का अर्थ है वाचकत्व का अभाव, अर्थात् जिस अर्थ के लिए किसी शब्द प्रयोग किया जाय, पर वह उसका वाचक न हो, वहाँ अवाचक दोष होता है और यह एक नित्य दोष है। जैसे गीतेषु कर्णम् आदत्ते (गीतों पर ध्यान दो, अर्थात् ध्यान से सुनो) में आदत्ते को देने के अर्थ में किया गया है, जबकि उपसर्ग लगने के कारण इसका अर्थ लेना होगा, देना नहीं। अतएव इस उदाहरण में अवाचक दोष है। आचार्य मम्मट ने इसके लिए तीन उदाहरण दिए हैं। लेकिन तीसरा उदाहरण काफी समीचीन है। अतएव उसे नीचे उद्धृत किया जा रहा है-

जङ्घाकाण्डोरुनालो नखकिरणलसत्केसरालीकरालः

प्रत्यग्रालक्तकाभाप्रसरकिसलयो मञ्जुमञ्जीरभृङ्गः।

भर्तुर्नृत्तानुकारे जयति निजतनुस्वच्छलावण्यवापी-

सम्भूताम्भोजशोभां विदधदभिनवो दण्डपादो भवान्याः।।

अर्थात् अपने पति भगवान शिव के नृत्त का अनुकरण करते समय अपने शरीर के निर्मल लावण्य की वापी (बावड़ी) में उत्पन्न कमल की शोभा को धारण करनेवाला माँ पार्वती का प्रथम बार उठा वह दंडपाद (नाट्यारम्भ में ऊपर उठा पैर दंडपाद कहलाता है) सबसे अधिक उत्कर्षयुक्त है, जिसमें जंघा लम्बे मृणाल दंड के समान है और उसके नख की किरण रूपी केसर की पंक्ति से नतोन्नत है, जो ताजा लगे महावर की आभा के पसरे नये पत्तों से युक्त तथा सुन्दर नूपुर रूपी भौरे युक्त है। (यहाँ प्रयुक्त नृत्त पद को टंकणगत त्रुटि नहीं समझना चाहिए। नृत्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है- पदार्थाभिनयो नृत्यं नृत्तं ताललयाश्रयम् अर्थात् पद के भाव के अनुसार हाव-भाव (अभिनय), ताल (कालक्रिया=beating time) और लय (द्रुत, मध्य, विलम्बित) इन तीनों का समाहार नृत्त कहलाता है।)

यहाँ विदधत् पद अवाचक है। क्योंकि इसे वहन करने के अर्थ में प्रयोग किया गया है, जिसके लिए दधत् पद सही होता। विदधत् का अर्थ निश्चित करना, विहित करना, घेरना, सम्मिलित करना आदि है, यह वहन करने का वाचक नहीं है। इसलिए यहाँ अवाचक दोष है।

जहाँ काव्य में लज्जासूचक, घृणासूचक अथवा अमंगलवाची शब्दों का प्रयोग किया गया हो, वहाँ अश्लील दोष होता है। यह तीन प्रकार का होता है- ब्रीडा, जुगुप्सा और अमंगल व्यंजक। सर्वप्रथम ब्रीडा (लज्जा) व्यंजक दोष का उदाहरण लेते हैं-

साधनं सुमहद्यस्य यन्नान्यस्य विलोक्यते।

तस्य धीशालिनः कोSन्यः सहेतारालितां ध्रुवम्।।

अर्थात् जिसका साधन इतना बड़ा है कि वैसा किसी दूसरे का नहीं दिखाई देता, उस बुद्धिमान की टेढ़ी भौंहों को और कौन सह सकता है।

यहाँ साधन शब्द के दो अर्थ- सेना और लिंग है। राजा के अर्थ में सेना और नायक के अर्थ में लिंग। साधन शब्द लिंग का वाचक भी हो सकता है। अतएव यहाँ ब्रीडा व्यंजक अश्लील दोष है।

लीलातामरसाहतोSन्यवनितानिःशङ्कदष्टाधरः

कश्चितकेसरदूषितेक्षण इव व्यामिल्य नेत्रे स्थितः।

मुग्धा कुड्मलिताननेन ददती वायुं स्थिता यत्र सा

भ्रान्त्या धूर्त्ततयाSथवा नतिमृते तेनानिशं चुम्बिता।।

अर्थात् दूसरी स्त्री ने निशंक होकर अधरपान करते समय जिसके अधर को काट लिया है, वह नायक अपनी पत्नी के पास गया और पत्नी ने अपने लीला कमल से उसके चेहरे पर क्रोध में आकर आघात कर दिया, जिससे नायक अपनी आँखें बन्द करके खड़ा हो गया मानो उसकी आँखों में पराग के कण भर गए हों। बेचारी भोली पत्नी यह समझकर कि लीला कमल के आघात से उसकी आँखों में धूल पड़ गयी है, अपने होठों को गोल बनाकर आँख में फूक मारने लगी। तभी भ्रम अथवा धूर्तता के कारण बिना क्षमा याचना किए नायक पत्नी को अपनी बाहों में भरकर काफी देर तक चुम्बन किया।

यहाँ वायु शब्द अपानवायु का भी वाचक हो सकता है। अतएव इस शब्द के प्रयोग होने के कारण यहाँ जुगुप्सा व्यंजक अश्लील दोष है।

मृदुपवनविभिन्नो मत्प्रियाया विनाशाद् घनरुचिरकलापो निःसपत्नोSद्य जातः।

रतिविगलितबन्धे केशपाशे सुकेश्याः सति कुसुमसनाथे कं हरेदेष बर्ही।।

अर्थात् मेरी प्रिया (उर्वशी) के अदृश्य (विनाश) हो जाने कारण मन्द-मन्द पवन से बिखरा घना और सुन्दर मयूर-पिच्छ प्रतिद्वन्द्वी विहीन हो गया है। अन्यथा फूलों से सुशोभित रतिकाल में खुले हुए बन्धनयुक्त सुन्दर केशों वाली उर्वशी के केशपाश की उपस्थिति में यह मयूर किसको मुग्ध कर पाता। अपने बर्हों (पूछों) पर गर्व करनेवाला यह बर्ही (मोर) उसके सामने पानी भरता।

यहाँ विनाश शब्द अदृश्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि विनाश का अर्थ अदृश्य भी होता है। पर विनाश शब्द का अर्थ नष्ट होना भी हो सकता है, जो अमंगलसूचक है। अतएव यहाँ अमंगल व्यंजक अश्लील दोष है। निम्नलिखित दोहे में तीनों प्रकार का अश्लील दोष देखा जा सकता है-

बौरे चूतन रंग में, हलि-हलि अलि झगरैल।

अंतक-दिन बर बिहरिहौ, लखि न भौंर यह सैल।।

यहाँ चूत पद में लज्जा-सूचक, हलि-हलि में घृणासूचक और अन्तक पद में अमंगल-सूचक दोष हैं। जबकि चूत आम के अर्थ में और अंतक-दिन अन्तिम दिन (आखिरकार) के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं।

ये अनित्य दोष हैं। आचार्य लोग शांत रस में जुगुप्सा-सूचक, शृंगार रस में लज्जा-सूचक और भविष्य में अमंगल सूचन को दोष नहीं मानते।

जहाँ काव्य में किसी शब्द के कारण सन्देह पैदा हो जाय वहाँ सन्दिग्ध दोष माना जाता है। जैसे निम्नलिखित श्लोक में-

आलिङ्गितस्तत्रभवान् सम्पराये जयश्रिया।

आशीःपरम्परां वन्द्यां कर्णे कृत्वा कृपां कुरु।।

अर्थात् संग्राम मे विजयश्री से आलिंगित आप नमस्करणीय आशीर्वचन-परम्परा को सुनकर कृपा करें, तात्पर्य यह कि आप सदा अनायास ही विजयी होते रहते हैं और इसके परिणाम स्वरूप आपकी आशीर्वाद पाने की परम्परा सी बन गयी है और इससे आपकी हमलोगों पर कृपा भी बनी रहती है (पुरस्कार आदि के रूप में धन-धान्य मिलता रहता है)।

यहाँ वन्द्याम् पद के कारण सन्देह उत्पन्न होता है कि इसे वन्द्या शब्द को द्वितीया विभक्ति में प्रयुक्त समझकर इसका अर्थ परम्परा के विशेषण के रूप में वन्दनीय लिया जाय अथवा वन्दी (जबरदस्ती कैद की गयी स्त्री) शब्द का सप्तमी एक वचन में प्रयुक्त समझा जाय और उसका अर्थ बलात् कैद की गयी स्त्री पर लिया जाय, इसमें सन्देह हो जाता है। क्योंकि वन्दी शब्द का सप्तमी विभक्ति के एक वचन और वन्द्या (वन्दनयोग्य) का द्वितीया विभक्ति के एक वचन में वन्द्याम् पद ही बनेगा। अतएव इसके कारण इस श्लोक में संदिग्ध दोष है।

शनिवार, 24 सितंबर 2011

फ़ुरसत में ... स्वयं की खोज

फ़ुरसत में ...

स्वयं की खोज

मनोज कुमार

किसी ने ठीक है कहा है अधिक सांसारिक ज्ञान अर्जित करने से आपमें अहंकार सकता है परन्तु आधात्मिक ज्ञान जितना अधिक अर्जित करते हैं उतनी ही नम्रता आती है मुझमें भी इन दिनों अहंकार तत्त्व प्रबल होने लगे। अहं भाव से घमंड सिर चढ़कर बोलने लगता है। शालीनता होने का लबादा ओढ़े रहने के बावज़ूद चाल-ढ़ाल, बोल-चाल, खान-पान, हाव-भाव सबों में तो वह घमंड झलकने लगता ही है। दोहरे चरित्र जीने का मोह छोड़ न पाने के कारण कभी कभार लोग मेरे आचरण से कुछ का कुछ अर्थ भी तो लगाने लगते हैं। जैसे अहंभाव से घमंड पैदा होता है वैसे ही विभ्रम मोह का परिणाम है

इस मनोदशा में डूबते-उतराते लगा कि मैं नास्तिक तो नहीं बनता जा रहा। जिन चीज़ों में पहले आस्था थी अब उन पर ही अनास्था होने लगी। जिन्हें अच्छे गुण कहे जा सकते थे, यदि वे बचे भी हैं मुझमें, तो लगता है कि एक-एक कर तिरोहित होते जा रहे हैं। दिव्य गुण मानव को ईश्वर के समीप ले आते हैं जबकि विकार उसे ईश्वर से दूर ले जाते हैं मेरा विकार मुझे पथ-विचलित कर रहा है। इन सब कारणों से शायद मैं अपने ही लोगों में अप्रिय तो नहीं हो रहा। अगर इस स्थिति के मूल में जाऊं तो मैं पाता हूं कि यह सब अहं भाव के उदित होने का ही तो परिणाम है। अहंभाव से मानव में वे सारे लक्षण जाते हैं, जिनसे वह अप्रिय बन जाता है

यौवनं धन संपत्तिही प्रभुत्वम्‌ अविवेकता,

एकैकमप्य अनर्थाय, किंयत्र चतुष्टम्‌। (हितोपदेश)

यौवन, धन-सम्पत्ति, प्रभुता और अविवेक एक-एक ही अनर्थ का कारण हैं और अगर जहां चारों हैं उसका कहना ही क्या?

लगता है नैतिक ,ऊल्य शब्दकोश में दुबक गया है। जीने के लिए, जीवित रहने के लिए कुछ नैतिक मूल्यों का सहारा तो चाहिए। पर जब यह लगने लगे कि मेरे मूल्य मुझे ही धता बता कर मुझसे दूर होते जा रहे हैं तो यह सोचने पर विवश हो जाता हूं कि यदि व्यक्ति अपने नैतिक मूल्य खो देता है तो मानो अपना सब कुछ खो देता है खोते ही जा रहा हूं, लोगों में अच्छाइयां देखना, लोगों के अच्छे गुणों को देखना, समय के उजले पक्ष को देखना। लगता है मैं बीमार होते जा रहा हूं, यदि शरीर से नहीं तो मन से , दिमाग से, तो अवश्य ही। एक अच्छा, स्वच्छ मन वाला व्यक्ति दूसरों की विशेषताएं देखता हैदूषित मन वाला व्यक्ति दूसरों में बुराई ही ढूँढता है मैं अब लोगों की बुराइयां खोज-खोज कर ढूंढ रहा हूं, या अनायास ही मुझे दिख जाता है, कह नहीं सकता। छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति का मुझमें विकसित होते जाना शुभसंकेत नहीं है। यह तो मेरे अस्तित्व को ही बेमानी बना रहा है। जितना मैं दूसरों में अवगुण देखता हूं, उतना ही मुझ पर अवगुणों का असर पड़ने लगा है समाधान तो यही है कि मुझे तो गुणग्राही बनना चाहिए।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई।

जो जग देखा आपना, मुझसा बुरा न कोई॥

कहीं ये सारे गुण इसलिए तो नहीं समा गये मुझमें कि मैं चाहता होऊं कि लोग मेरी तारीफ़ करें, प्रशंसा करें। और यदि ऐसा न हो पा रहा हो तो मैं इन अवगुणों की खान बनता जा रहा हूं। सदा प्रसन्न रहने के लिए झूठी प्रशंसा की इच्छा का त्याग आवश्यक है मुझे यह त्याग करना ही चाहिए। मुझे फिर से खुद की खोज करनी होगी। यह काम क्या सरल है? सहज है? पर कहीं से शुरुआत तो करनी ही होगी। स्ययं की खोज के लिए स्वयं के प्रति सच्चा बनना पड़ेगा इस खोज की यात्रा गांगा तट तक मुझे खींच लाती है। वहां आने पर जो भाव मन में उठते हैं वह काव्य-रूप धारण करते हैं ..., देखें ...

आओ ना चैतन्य!

मटमैली गंगा,

विकृत विवेक-सी

पसरी हुई,

दम तोड़ती

गतिहीन-सी, निस्पंद

 

इधर

तट पर

कई ज़िंदगी

झोंपड़ों में सिमटी हुई

ठहर सी गई है।

 

घाट भी नष्ट हो गए

नदी तट सिकुड़ा

रेत ही रेत …

 

उसी तखत पर

बैठ कर

देख रहा

कभी जिनके सभी पाए थे दुरुस्त
आज उनका हो गया क्षरण
फिर भी संभाले तो हैं मुझे,
मेरी हस्ती को!

 

गंगा का तट और अस्ताचल सूर्य
होने वाला है गहन तिमिर का आगमन
व्याकुल, अशांत मन
प्रतिपल
बढती जा रही मन की हलचल|

आओ ना चैतन्य!
करो मेरी समस्याओं का समाधान
बैठो इसी टूटी चौकी पर
साथ मेरे|

जब तुम बैठे थे साथ
रत्नाकर के, तो उसे
वाल्मीकि बना दिया
बैठे जब गौतम के पास
तो वह हुआ बुद्ध
आज इस निशा के आगमन से
गंगा की धार है अवरुद्ध
करो निदान!

हे दिनमान!

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

दूसरे वर्षगांठ पर

 

keshav -- करण समस्तीपुरी

सबसे पहिले, बंदे वाणी-विनायकौ। फिर बंदऊँ गुरुपद पदुम परागा। फिर बंदऊँ संत-असज्जन चरना। और फिर,

हेल्लू एवरीबाडी,

हमरे बिलाग के बर्थडे का शुभ-कामना है जी !

इहां सब सकुशल है और आशा है कि उहां भी सब कुशल हुइगा। आगे बात-समाचार ई है कि 23 सितंबर आई गवा है। हम कल्हे से सोहर सुनि-सुनि के दोहर होय जा रहे हैं। चितरगुपत महराज का अमर-गीत अबहुँ कानों में बजि रहा है, “जुग-जुग जियसु ललनमा.... भवनमा के भाग जागल हो....! ललना रे लाल होइहैं अरहुल के फुलवा, की मनवाँ में आश लागल हो....!!”

ई बिलाग के साथ ई गीत का रिश्ता बड़ी पुराना है। उ का है कि दुP8071789ई साल पहिले, दुई दिन मा, दुई-दुई खुशी आई रही, हमरे घर। हौ जी महराज, 22 सितंबर 2009,  पुरुब क्षितिज पर अरुणिमा फूटे से पहिलहि, कोयलिया किलक पड़ी थी। प्रसूती-कक्ष से बहराई डाक्टरनी अंग्रेजी मा बोली थी... अंग्रेजी मा, “बधाई हो ! बिटिया रानी आयी है!” मन बरबस गाने लगा, “मन-मंदिर के मृदुल सतह में पली कल्पना एक बड़ी । कल्प-लोक से उतर धरा पर आई हो तुम कौन परी ॥”

बिटिया रानी के सुआगत में दिन-रैन गले से मिलने की तैय्यारी करि रहे थे। सौर-गतिकी के नियम से 23 सितंबर को दिन-रात बराबर हुइ जाते हैं। सांझ में हँसी-खुशी के साथ बिटिया को लई के घर आय गए। इहां भी बाजा-गाजा का परबंध। अउर उ गीत तो रिपिट बज रहा है, “जुग-जुग जियसु...........!” सबहि फोन खनखना रहा था। घंटा-दुई घंटा से शांत हमार फुनवा भी कांपने लगा। कलकत्ता से चचाजी कौल करि रहे थे। हम खबर दिये तौ उनकी खुशी दुगुनी हुई गई और उ कहिन तो हमरी खुशी चौगुनी। “हार हाल में” जाकर देखो। बिलाग शुरु करि दिये हैं।

“हार हाल में”, चचाजी श्री मनोज कुमार ऐसन तबियत से कंकड़ उछाले कि कौन कह सकता है कि आसमान में सुराख नहीं हो सकता? काव्य-प्रसून, कथांजली, देसिल बयना, आँच, धारावाहिक उपन्यास ‘त्याग-पत्र’, फ़ुर्सत में और काव्य-शास्त्र...... महीने दिन में बिलाग पर सतरंगा इंद्रधनुष छाने लगा। पहिले साल में 300 से ज्यादे प्रस्तुती और 5000 से ज्यादे प्रतिक्रिया, आप-लोगों के पियार-मोहब्बत का गवाही दई रहा था। फिर तो हमरी टीम के उत्साह को भी पंख लगि गवा।

‘त्याग-पत्र’ की पुर्णाहुति के बाद आचार्यजी “शिव-स्वरोदय” वांचने लगे। मंगलवार की कथांजली थमी तो बिलाग को मिल गये श्री जितेन्द्र त्रिवेदी। तिरवेदी जी के “भारत और सहिष्णुता” शीर्षक के सिलसिलेवार आलेख साहित्यिक-ऐतिहासिक गांभिर्य के मिसाल हैं, कहो तो। ’काव्य-प्रसून’ में दिवंगत कवि श्री श्याम नारायण मिश्र जी के नवगीतों की शॄंखला आज के अतुकांत निरस काव्य की उमस भरी रात में ओस की बूंद-सी प्रतीत हुई रही है। और सभी स्तंभ यथावत चलि रहै हैं।

यदि पाठकों की टिप्पणियों को लोकप्रियता का पैमाना बनाया जाए तौ “फ़ुर्सत में” बाजी मार लेंगे श्री मनोज कुमार जी। आचार्य श्री परशुराम रायजी ने इस बिलाग पर पहली आँच जलाई थी, श्री हरीशप्रकाश गुप्तजी उसमें अनव्रत हविश डाल रहे हैं। बीच-बाच में और लोग भी फ़ूक-फ़ाक कर देते हैं। अचारजजी और गुपुतजी की जुगलबंदी में “आँच” की गरमी पाठकों को बहुत भा रही है।

हमार “देसिल बयना” भी 98 अंक पुराना हुइ गवा है मगर हम कहते हैं कि हम लिखना नहीं छोड़ेंगे और पाठक कहते हैं कि वे पढ़ना जारी रखेंगे। हई लागि हमैं अपनी नव-विवाहित जिंदगी में से सिरिमतिजी की नजर बचाकर कछु समय बिलाग की खातिर निकलना ही पड़ता है। उधर मिसिरजी के सरस-नवगीत भी बड़ी तेजी से लोकप्रियता की सीढियां चढ़ि रहे हैं।

इस बरिस के लिये हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि रही हैंगी, महाकवि आचार्य जानकी बल्ल्भ शास्त्री जी (अब गोलोकवासी) से भेंटवार्ता। यह आचर्यश्री के जीवन की अंतिम वृहत-वार्ता रही हैंगी। “एक दुपहरी निराला निकेतन में” को प्रसिद्ध साहित्यिक पत्र ’वागर्थ’ ने साभार प्रकाशित किया। सामयिक विद्रुपता पर कटाक्ष करती देसिल बयना का एक अंक “खेल-खिलाड़ी का पैसा मदारी का” का भोपाल से प्रकाशित दैनिक-पत्र ’नई दुनिया’ के पन्नों पर जगह बनाने में कामयाब रहा। अउर भी कई प्रस्तुतियाँ प्रिंट मिडिया की नजरें खींचती रही।

P8051769 ई तरह से दुई साल पूरा हुई गवा। अभी बिलाग के खाते में कुल जमा, 762 प्रस्तुति और 14500 से अधिक टिप्पणियाँ हैं। अउर ई से भी जादे मूल्यवान आप जैसे पाठकों का संबंध है। ई दुई साल के सफ़र में हरेक कदम पर आपका सहयोग और प्रोत्साहन मिला, हम आपके आभारी हैं। अगर इस दुई साल मा बिलाग-जगत में हमरी कछु उपलब्धि है तो हम उसका सोलहो आना श्रेय आपहि दई रहे हैं। अउर ई आभाषी दुनिया में अउर अधिक मील का पत्थड़ पार करने के लिये आपकी शुभ-कामनाओं की निरंतर जरूरत होगी।

ई बिलाग के जनम-दिन पर हमरे कछु इष्ट-मित्र चिट्ठी लिखि कर हमैं मुबारकवाद दिये हैं। उको इहां साझा किये बिना ई पत्र पूरा नहीं होइगा।

राहुल सिंह, (रायपुर,छत्तीसगढ़, भारत)

“इस ब्लाग पर अच्‍छी, स्‍तरीय और पठनीय सामग्री होती है, आपकी टोली-प्रस्‍तुति ने ऐसा विश्‍वास कायम कर लिया है कि जो आगामी है, वह अच्‍छा ही होगा, भरोसा रहता है. मेरी रूचि के अनुरूप देसिल बयना लाजवाब है, मुहावरे का अर्थ खुल जाने के बाद उसकी व्‍याख्‍या होती है, वह पूरे आलेख के प्रभाव (संजीदगी और सहज चुटीलेपन) का काम करती है.

अन्‍य स्‍तंभ भी यदा-कदा देखता हूं और उनके भी स्‍तर का सम्‍मान करता हूं, उनमें कोई कमी कहूं तो वह अपनी रूचि (ओर मूल्‍यांकन) सीमा के चलते अधिक होगी.”

सलिल वर्मा (नोएडा/नई दिल्ली, भारत)

salil“इस ब्लॉग पर प्रकाशित सामग्रियों में मनोरंजन के साथ साहित्य की कई विधाओं की शास्त्रीय जानकारी भी प्रस्तुत की जाती रही है. विभिन्न स्तंभ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं. इससे पाठकों को मनोनुकूल विषय सूचीबद्ध तौर पर मिल जाते हैं.

ब्लाग के वर्तमान स्तंभों में से किसी को बंद करने की जरूरत नहीं है मगर मेरे विचारानुसार आप ‘मेहमान का पन्ना’ शुरू कर सकते हैं, जिसमें किसी एक पाठक की रचना प्रकाशित करें. वह रचना उनके पसंद की कोई नयी रचना विशेष आपके लिए हो सकती है या फिर उनके ब्लॉग से आपके पसंद की कोई रचना हो सकती है. ‘यात्रा वृत्तांत’ से समबन्धी पोस्ट भी शुरू की जा सकती हैं.

कुछ सुझाव कुछ शिकायत : रचनाएँ बहुत जल्दी बदल जाती हैं. कई बार पाठक रचना को पढ़ने से वंचित रह जाते हैं. साथ ही आलेख का प्रारूप प्रकाशन के पूर्व सावधानीपूर्वक पढ़ा जाना चाहिए. क्योंकि कई बार टंकण की त्रुटि तथा वर्त्तनी का दोष दिखाई देता है. प्रकाशन के समय यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि उसका फोर्मेटिंग सही है. यह भी प्रायः देखने में आया है कि आलेख के पहले और दूसरे अनुच्छेद के फॉण्ट अलग-अलग हैं.

आपका यह ब्लॉग मेरे हृदय के अत्यंत समीप है और मेरे प्रिय ब्लॉग में से एक है. आपके दो साल पूरे होने पर हमारी (सलिल एवं चैतन्य) हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार करें. साहित्य सेवा का यह मंच हमें इसी प्रकार प्रेरणा देता रहे यही हमारी मंगलकामना है!”

मंजू वेंकट (बैंगलोर, कर्णाटक, भारत)manjuvenkat

“देसिल बयना जैसी रचनात्मक प्रस्तुतियों के कारण ब्लाग की सार्थकता समझ में  आती है। दूसरे वर्षगांठ पर हार्दिक बधाई।”

अरुणचन्द्र राय (ग़ाजियाबाद/नई दिल्ली, भारत)

“मनोज ब्लॉग अन्य ब्लोगों से भिन्न है. यहीं शुद्ध साहित्यिक लघुपत्रिका का आनंद आता है. देसिल बयना, फुर्सत में और आंच मेरे पसंदीदा स्तम्भ हैं. इनमें से आंच अपनी समीक्षा की गुणवत्ता के लिए सर्वाधिक पसंद है. किन्तु मनोज नाम से व्यकिगत ब्लॉग सा लगता है. कोई सामुदायिक नाम दिया जा सकता है. बाकी सब अच्छा है.

रंजना (जमशेदपुर, झारखंड, भारत)

यह चुनिन्दा उत्कृष्ट ब्लॉगों में यह एक है..जो मन और मस्तिष्क दोनों को ही अपने प्रत्येक प्रविष्टि में खुराक देती है. आजतक की एक भी प्रविष्टि ऐसी न लगी जिसे कमतर कहा जा सके. वैसे सबका अपना स्थान और अहमियत है,पर देसिल बयना पढ़ मन बस जुड़ा जाता है.

आपलोगों का अपार और ईमानदार प्रयास इसे उत्कृष्टता के नवीन आयाम दिए जा रहा है. प्रतिदिन की जगह एक दिन छोड़कर प्रविष्टि डालने से बेहतर होगा क्योंकि कई बार समयाभाव में कई प्रविष्टियाँ छूट जाती हैं. साधुवाद और शुभकामनाएं.

परशुराम राय (कानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत)

हिन्दी ब्लॉग जगत में अभी तक मुझे कोई ब्लॉग देखने में नहीं आया, जिस पर प्रतिदिन बिना किसी व्यवधान के लगातार दो वर्षों से पोस्टें लग रही हों। नए स्तम्भ भारत और सहिष्णुता के लिए हम श्री जितेन्द्र त्रिवेदी, उपमहाप्रबन्धक, आयुध निर्माणी कानपुर के ऋणी हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि की आधार शिला पर अपने मौलिक चिन्तन को उत्कीर्ण किया और हमें प्रकाशन का सुअवसर प्रदान किया। इस ब्लॉग का सर्वाधिक प्रिय स्तम्भ आँच है, जिस पर श्री हरीश जी ने अपनी व्यक्तिगत गुरुतर दायित्वों के होते हुए भी आँच नहीं आने दी। स्थायी और सन्दर्भ लेखन और प्रकाशन की दृष्टि से देसिल बयना, भारतीय काव्यशास्त्र, शिवस्वरोदय तथा भारत और सहिष्णुता उल्लेखनीय हैं। पाठकों की दृष्टि से देखें, तो सबसे अधिक पाठकों को आकर्षित करता है फुरसत में......।

होमनिधि शर्मा, (हैदराबाद, आंध्र प्रदेश, भारत)

'मनोज' की दूसरी सालगिरह मुबारक हो. इन दो सालों का मेरा अनुभव कहता है कि आपने अपने आपको रिडिस्‍कवर किया है. आपके इस प्रयास ने ब्‍लाग जगत में एक नया ट्रेंड स्‍थापित किया है. आज आप सबके निरन्‍त परिश्रम का नतीजा है कि आप सभी की एक राष्‍ट्रीय पहचान है. आपकी लघु कथाएं, कविकर्म और साहित्‍यकारों के प्रति सोच का नजरिया, 'जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री जी' के वह पॉंच भागों में लिखे गये संस्‍मरण, वहीं राय साहब की ऑंच, शिवस्‍वरोदय तथा काव्‍यशास्‍त्र का तात्‍विक विश्‍लेषण,श्री करण का देसिल बयना और जितेन्‍द्र के देश के इतिहास-दर्शन पर सिलेसिलेवार लेखन ने पाठकों में साहित्‍य के प्रति फिर से रुझान पैदा करने में सफलता प्राप्‍त की है. युवाओं में जानकारी और जागरुकता की कमी आज साहित्‍य के पिछड़ने का कारण है जिसे आपका ब्‍लाग एड्रेस करता है. आप सभी के परिश्रम को नमन एवं साधुवाद!

हरीश प्रकाश गुप्त (कानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत)

सात सौ तीस दिनों में इस ब्लाग पर लगभग साढ़े सात सौ से भी अधिक पोस्टें लगीं। अर्थात, प्रतिदिन एक पोस्ट से भी अधिक। वह भी बिना एक भी दिन के अन्तराल के। देखने में ये आँकड़े भले ही छोटे लगते हों, लेकिन जब भी हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो सीमित जनों के सहयोग से यह एक बड़ी उपलब्धि से कम नहीं लगता। प्रतिदिन एक आलेख तैयार करना सहज नहीं था लेकिन उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता ने हमको ऊर्जा दी और पाठकों की अपेक्षाओं ने आत्मविश्वास। केवल पाठकों की टिप्पणियों को लोकप्रियता का मानक माना जाए तो इस ब्लाग की लोकप्रियता का आकलन सतही ही होगा। हमें पता है कि ब्लाग को पसन्द करने वालों, पढ़ने वालों की संख्या उनसे कई गुना अधिक है। सीधे प्रतिक्रिया देने वाले पाठकगण हमारे प्रत्यक्ष मार्गदर्शक हैं। वे हमारे बहुत करीब आ चुके हैं और ऐसा करके वे अपने दायित्व का साधिकार निर्वाह कर रहे हैं। हम उनके बहुत-बहुत आभारी हैं।

हिन्दी का एक साहित्यिक ब्लाग शुरू करने की परिकल्पना आदरणीय मनोज कुमार जी की थी और वही इस पूरे प्रयोजन के सूत्रधार हैं तथा केन्द्र विन्दु भी हैं। ब्लाग पर आए आलेखों की बड़ी संख्या आचार्य राय जी की रही है। नियमित स्तम्भ “काव्यशास्त्र” और “शिवस्वरोदय” के अतिरिक्त “आँच” की लौ भी उन्होंने समय-समय पर थामी है। करण जी ने अपनी रचनाओं से, अपनी भाषा-शैली से ब्लाग पर अत्यधिक प्रशंसा पाई है। “भारत और सहिष्णुता” नामक अपनी पुस्तक के माध्यम से अभी हाल में हम सबसे जुड़े श्री जितेन्द्र त्रिवेदी जी से हमारी अपेक्षाएं बढ़ गई हैं। सभी को हार्दिक धन्यवाद।

हाँ तो जी ई तरह से ई डाकखाना अब बंद हुई रहा है। तौ एक बार फिर से धन्यवाद अर्पित करि देत हैं। सबसे पहिला धन्यवाद तो उनहि को जौन साफ़-साफ़ मना करि दिये रहे। दूसरा धन्यवाद उनका जौन सहयोग का भरोसा दिलाए रहे मगर कौनो कारण से करि नहीं पाए। तीजा धन्यवाद उन्हैं, जौन यदा-कदा ही सही मगर नजर-ए-इनायत करते रहे। धन्यवाद की झोलिया अबहि खाली तो नहीं हुई है मगर उन पाठक-शुभचिन्तक का धन्यवाद हम कैसे दें जौन कदम-कदम पर हमरे साथ रहिन। धन्यवाद की अगली कड़ी मा हम उईका नाम लेव जौन-जौन भाई-बहिन इ बिलाग के जनमदिन की शुभकामनाएं भेजी हैं। हमें आपकी शुभांशा और सुझाव बहुतहि पसंद आएन। अरुण भैय्या के सामुदायिक नाम वाला सुझाव “इस्टैंडिंग कमिटी” को भेज दिया गया है और सलिल चचा वला “मेहमान का पन्ना” के लिये हम हाथ-पैर फ़ैला के आप लोगों से रचनाएं माँगते हैं। ज्यादा का लिखें? कम लिखना, अधिक समझना। बड़ों को प्रणाम और हम-उम्रों को सलाम। छोटे को स्नेह और माता-बहिन को राम-राम! विशेष अगले पत्र में।

पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में,

आपका,

करण समस्तीपुरी

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

आँच - 88 : रामेश्वर दयाल की ’चित्रकूट’

आदरणीय पाठक वृंद,

नमस्कार !

अब मैं आप से पहले ही माफ़ी मांग लेता हूँ, क्योंकि हो सकता है कि आज आपको "आँच" की उष्मा कम लगे। आज की आँच पर कोई समीक्षा नहीं वरन एक अनुभव है। पिछले दिनों बंगलोर के बिशप काटन वुमेन्स कालेज में बतौर अतिथि अध्यापक व्याख्यान देने का अवसर मिला। संयोग से यह कविवर रामेश्वर दयाल दूबे जी की कविता थी "चित्रकूट"। अब वहाँ क्या-क्या कहा, यह तो उसी रूप में याद नहीं लेकिन छात्राओं के आग्रह पर एक-पृष्ठिय टीका लिखवानी पड़ी। आज "आँच" पर आप-लोगों के नजर कर रहा हूँ, इस खेद के साथ की संबधित कविता को प्रस्तुत नहीं कर पा रहा हूँ। -- करण समस्तीपुरी

रामेश्वर दयाल दूबे का चित्रकूट

प्रकृति चित्रण प्रारम्भ से ही कवियों का प्रिय शगल रहा है ! आख़िर कुदरत की खूबसूरती का जादू स्वभावतः सौन्दर्य के उपासक कवियों के सर चढ़ कर तो बोलेगा ही. और कवि ही क्यों सौंदर्य का जादू तो हर किसी के सर चढ़ कर बोलता है. जॉन कीट्स कहते हैं, "अ थिंग ऑफ़ ब्यूटी इस जॉय फॉर एवर" तो शेक्सपियर लिखते हैं, "ब्यूटी प्रोवोकेथ थीव्स सूनर देन गोल्ड!" यहाँ भी प्रकृति की सुन्दरता कवि को प्रेरित करती है. और कवि भगवान राम के वन-गमन का आलंबन (जिसके सहारे भाव को प्रस्तुत करते हैं) लेकर वन-खंड चित्रकूट की प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन करता है.

वैसे तो तुलसी के राम और रामचरित मानस सदियों से साहित्य का श्रृंगार रहे हैं ! हिदी साहित्य में तो राम काव्य की एक अलग ही श्रृंखला है. रामचरित मानस में तुलसी दास और साकेत में मैथिलि शरण गुप्त ने भी चित्रकूट की छटा का बड़ा ही मनोरम चित्रण किया है. लेकिन तुलसी के प्रकृति चित्रण में जहाँ इष्ट और उपासक भाव की छाया है वहीं गुप्त प्रकृति के सहज सानिध्य में विषम सामजिक परिस्थिति के चित्रण को उद्धत प्रतीत होते हैं. किंतु रामेश्वर दयाल का चित्रकूट उन दोनों कवियों से अलग है. वन तो अमूमन सुंदर रहता ही है. लेकिन दूबेजी के वन की सुन्दरता आज तो मुखर हुआ चाहती है. इस में चार चाँद क्यूँ लगे हैं ? क्यूंकि वन के प्रांगण में सौन्दर्य के साक्षात अवतार श्री राम विहर रहे हैं.

राम को कवि, जीवन और ऊर्जा के अनंत स्रोत के रूप में प्रतिस्थापित कर रहे हैं, जिनके आगमन मात्र से वन्य जीव व वनस्पति अपूर्व उत्साह से अनुप्राणित हो उठे हैं. कवि ने राम के आगमन पर चित्रकूट की सुरभि को सजीव बनाने के लिए मानवीकरण अलंकार का बड़ा ही प्रभावशाली प्रयोग किया है. 'प्रकृति नटी' और 'दूर छितिज पर देख श्याम घन' जैसे उत्कृष्ट उपमा और उपमान तथा 'अनिल (हवा) चपल बालक सा' जैसे रूपक से कविता का शिल्प और कथ्य दोनों ही बेजोर बन रहा है.

किसी भी कविता की सफलता की कसौटी होता है "साधारणीकरण" अर्थात कवि ने जिस भाव के साथ कविता लिखा है, पाठक या स्रोता भी कविता के पाठ में उसी भावानंद का अनुभव करे ! और इस कविता को पढ़ते समय हमेशा ऐसा लगता है कि मंद मुस्कराहट लिए श्याम-सुंदर राम की मंगलमय मूर्ती वन में विहार कर रही है और उसके दिव्य आलोक से वन के लता-पुष्प, चर-अचर सब में नव-प्राण आ गए हों और वे उमंग से खिल उठे हों.

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

देसिल बयना – 98 : अरहर की टाट अलीगढ़ का ताला

देसिल बयना – 98 : अरहर की टाट अलीगढ़ का ताला

n करण समस्तीपुरी

रेवाखंड में सालो भर हरियरी रहता था। फ़गुआ, चैती, कजरी, झूला, बिरहा, चौमासा नहीं कुछ तो बारहमासा। नाच, नौटंकी, कुश्ती, मेला, खेल-तमाशा भी चलते ही रहता था। बड़ा मौज था। बड़ी निश्चिंती। चौठचंद के खीर-पूरी खाते ही रामलीला का सूर-सार शुरु हो जाता था। पहिले आशिन से स्थल पर गनगनाने लगता था, “जो सुमिरत सिधि होय............... !” दिन भर खेत-पथार, बाड़ी-झाड़ी में मेहनत मजदूरी करके लोग रात में खेल-तमाशा का आनंद लेते थे। हमलोग तो सांझे से अगले पांति में जगह छेके रहते थे।

उधर कुछ दिनों से फ़ुटबाल का खेल भी होने लगा था। पछिला सीजन में रेवाखंड का टीम भी उतरा था जिला-जीत मुकाबला में। सच में, बजा के चुटकी धूल चटा दे... पूरा इलाका हरहरा दिया था। बरहमदेवा बाप रे बाप उ तो ससुर ई कोना से ऐसन लात मारता था कि गेंद उ तरफ़ के गोलकी को लेकर उड़ जाए। और जगिया था कलाकार। उ लोग का बोलता था पिलंडी कोरनल का ससपेस्लिस्ट ( पेनाल्टी कार्नर का स्पेस्लिस्ट)। ऐसन चकमका के लात घुमाता था कि गेंद गोलकी के टांग के बीच से पास।

ई गुरुप से रेवाखंड और उ गुरुप से गंडक पार का टीम पहुँचा था फ़ाइनल में। एतबार के दिन जोरदार टक्कर चल रहा था। दोनों गाँव उठ कर चला आया था, पटेल मैदान समहतीपुर में। एक-एक गोल पर दे ताली गरगराके। बाप रे बाप... महंगू बूढा भी बजरंगिया के साइकिल पर लद के आया था। बूझे कुछो नहीं बूझे मगर कपार पर हाथ चढ़ाए आँख सिकोरे एकटक निहार रहा था। नहीं बरदास हुआ तो पुछिये दिया, “हौ मरदे... ई दू-दू दर्जन आदमी एगो गेन (गेंद) खातिर काहे एतना धर-पकर किये हुए है...?” हम बोले, “कका उ सब गोल कर रहा है... गोल...!” महंगू कका थोड़ा चिढ़ते हुए बोले थे, “मार बुरबक... ! गोल कर रहा है.... अरे उ गेन तो पहिलहि से एतना गोल है.... अब केतना गोल करेगा....?”

“अ... हा.... हा... हा.... हें.... हें.... हें.... हें....... हु...हु.... हु... हु....” अरे बाप रे बाप महँगू बूढ़ा की बात खतम भी नहीं हुई थी ई खेमा का लोग सब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गया था... ! इ से पहिले कि सब हँस के दम धरे मैदान में हो-हल्ला शुरु हो गया।.... पकड़ो... मारो... स्स्स्स..... ला... बेइमान.... धराम..... चटाक....! आहि तोरी जात के.... ई का हो गया....? फ़ुटबाल के बदले रेसलिन शुरु हो गया...! जिसके हाथ जो ही लगा उसी से दे दना... ई पाटी का आदमी उ पाटी को... उ पाटी का आदमी ई पाटी को...! मगर जादा पिटाया गंडके पार वाला।

उ तो कहिये कि इसपी ओफ़िस का डंटाधारी जवान किसी तरह रेलम-पेल करके दुन्नु पाटी को अलग किया। घमासान थमने के बाद पता चला कि गोल पर गोल से नरवासाया उ पार का इस्टाइकर जान-बूझ कर जगिया को नाके पर एक लात मार दिया तान के...!

जगिया को उधरे होस्पीटल ले जाया गया...! और बांकी आदमी गरियाते-धिक्कारते वापिस रेवाखंड। मुखिया-सरपंच सब बैठा था। मगर बिगरु ठाकुर बमक गये, “ससुर गेंद का आँख देखा नहीं लात चला दिया खिलाड़ी पर....! और आया है पंचायती करने....? उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे... अएं....? ई बार रवी का आधा फ़सल उठा लायेंगे रेवाखंड।” इहां भी झंझट-पंगा हो गया। उ पार वाला मोछुआ लठैत भी बमक गया, “हे... गाँव में आये हैं तो जादा बलगरी नहीं दिखाइये... नहीं तो पूरे रेवाखंड को रात भर चैन से सोना मोस्किल कर देंगे...!” उ तो धन भाग कि मुखिया जी थे नहीं तो उहाँ लट्ठम-लाठी हो जाता।

फ़िर रवी घर आया और खरीफ़ खेत में। होली, चैता के बाद रेवाखंड कजरी के मद में था। सब लोग आनंद का झूला झूल रहे थे। एक दिन भोरे-भोर पता चला कि पैंचू साह कने चोरी हो गया है। आह... बोरा के बोरा तोरी, खल्ली, और न जाने केतना कनस्तर तेल उठा ले गये थे। सुने कि कुछ गहना जेवर और नकदी भी गया। दफ़ेदार झा इधर-उधर डंटा चमका रहे थे, “हई... उधर कोई टपना नहीं... अभी साहेब आ रहे हैं तफ़तीस के लिये...!” केहु का पैर-निशान नहीं उखरना चाहिये... हे... हौ... उधर नहीं... उधर नहीं....!” दफ़ेदार झा की चौकस नजर उत्सुक दर्शनार्थियों के लिये बड़ी वाधा थी। पहर सांझ गये पुलिस-दरोगा भी आये थे। बाप रे सुखरिया और जटबा तो पुलिस को देखते ही डरे गीला कर दिया....!

धनमा चट से परमोध बाबू कने से दू कुर्सी खीच लाया था। फिर शुरु हुआ दरोगा साहेब का पूछ-ताछ, “केतना बजे रात में आया....? केतना लोग था...? पूरब से घूसा कि पच्छिम से...? एतना बड़ा सेंध फोर दिया और आप लोग नींद नहीं खुली....? एतना सारा गहना-जेवर घर में काहे रखते हैं....?” दरोगा साहब के सवालों की झड़ी लगी हुई थी और बेचारा पैंचू साह जवाब क्या दे... उ तो फ़फ़क-फ़फ़क कर रोने लगा, “हाकिम... हम तो बरबाद हो गये हाकिम....! अब तो जिंदगी भर भीख मांगे पड़ी हाकिम....!” दरोगाजी का सवाल आगे भी जारी था। उ तो सहुआइन हिम्मत कर के थोड़-बहुत बता रही थी। पैंचू साह तो भोकार पार के रो रहे थे। आखिर करते भी तो का....? एक तो धन-माल चोरी गया उपर से दरोगा साहेब ऐसे “इंटरीगेट” (एंट्रोगेट) कर रहे थे जैसे घर में चोरी हो जाना पैंचू साह का ही अपराध हो।

मोहन मांझी इसटिलही (स्टील की) थाली में दू गिलास चाह और एम्प्रो बिस्कुट ला कर रख दिया था। चाह-बिस्कुट के बाद दरोगा जी फ़टफ़टिया हांक दिये थे। दफ़ेदार झा आसन्न गतिविधियाँ सबको समझा रहे थे। घरों में दिया-बाती जल गया तो लोग-बाग भी खिसकने लगे। पैंचू साह का फ़फ़काना भी कम हो चुका था। उस रात और दो-चार रात तक लोग बड़ी सावधानी से बिताए थे।

अगिला हफ़्ते फिर गोधन कका कने सेंध फोर दिया। उतना माल असबाब तो नहीं मिला मगर कका का कचहरिया कमाई....! फिर दफ़ेदार झा का डंडा डोलने लगा था। फिर वही सब बात-व्यवहार। दो-चार रात गये फ़ुचाई झा कने भी अटेंप किया था मगर जाग हो गया तो भाग खड़े हुए मगर पछियारी टोल में एक जगह हाथ मार ही लिये थे।

बाप रे बाप फिर तो पूरे गाँव में रतजग्गा ही होने लगा था। दुकान-दौरी वाला सब मोटका-मोटका जंजीर और बड़का-बड़का ताला लटकाके भी अचकते रहता था। ओहि दिन में स्थल पर शुरु हो गया मेला। मरद-मानुस जाए रमलीला देखे तो बूढ़-बिरिध और जर-जनानी जगे। मगर मंगनी महतो क्या करें? घर में कुल जमा दो जने एक फ़ुसही घर। उ में भी लुगाई पीहर में। रामलीला देखने के लिये जी तो जोर मारता था मगर घर छोड़कर जाएं कैसे?

बतहू सिंह कहे, “धुर्र बुरबक अरे बुटला और झुरखना कैसे जाता है..? ताला... मरदे .... ताला....! अरे बजार से एगो बढ़िया मजबूत ताला खरील लाओ और लटकाय दो घर में....!” बेचारे मंगनी महतो को सिंहजी का विचार खूब सूझा। कनहू कका के मार्फ़त बजार से मंगाइये लिये बड़का ताला, अलीपुर वाला।

जैसे ही ताला हाथ में आया, महतो जी पूरे गाँव में हकार बाँट दिये, “आज रात से हमभी चलेंगे रमलिल्ला देखने। सब लोग बोला बढ़िया बात। उनका घर पड़ता था गाछिये टोल में। हमलोग सबेर-सकाल खा-पीकार महतो जी का फ़ाटक ठकठका दिये। बेचारे हरबराकर चिल्लाये, “क...कौन है...?” फिर हमलोग की आवाज पहचान हथबत्ती लेकर निकले। उनके निकलते ही चौठिया फ़ाटक सटाते हुए बोला, “चलिये जल्दी... मरदे जो सुमिरत सिधि हो गया....!” महतोजी बोले, “धर खचरा कहीं के... घर में ताला तो लगा लेने देओ।” महताजी घपोचन भैय्या को हथबत्ती थमाकर बड़ा सा पितरिया ताला लगाने लगे। अरहर के सूखे डांट से बने फ़ाटक को लोहे के जंजीर से कस अलीपुरिया ताला जर दिये। दो बार खींच के इत्मिनान कर लिये। तभी दमरी दास पूछ बैठा, “अहो महतो....! उ टाट पर पीला-पीला क्या चमक रहा है?” “कहाँ?” महतोजी चौंके थे फिर ताला की तरफ़ इशारा पाकर बोले, “अरे उ ताला है...! आज-कल देखिये रहे हैं, चोर-चुहार सब कैसा उतपात मचाया हुआ है। सार रमलिल्ला पर भी आफ़त...! आजे बजार से मंगाए हैं, पकिया पीत्तल है, अलीपुर वाला...! चोर का नाना भी पकर के झूलते रह जाए।”

बेचारे मंगनी महतो का गर्व ज्यादा देर तक टिक नहीं सका। दमरी दास बोला, “वाह बहादुर...! इसे कहते हैं ’अरहर की टाट पर अलीपुर का ताला....!’ मरदे जितने की टाट भी नहीं होगी, उतने का ताला लगा लिया है। और फ़ायदा भी क्या... ताला छोड़ के अधफ़टा टाट में न घुस जाए चोर....? बुद्धि की बलिहारी, ग्राम-पोस्ट रेवाड़ी, चलो झार के...!”

बात में पाइंट था। थोड़ा हंसी-ठहक्का भी हुआ मगर सब दमरी दास के मुँह पर हथबत्ती जला-जला कर देखने लगे। सही तो कहा था, “जितने की टाट नहीं उतने का ताला लगा लिया। वैसे भी बेकार की वस्तु की रक्षा के लिये बेशकीमती इंतजाम किया जाए तो सब केन्द्र सरकार ही न हो जाए..... “अंदर सेफ़ रहो कसाब... बाहर मिलिटरी का पहरा है... सबा करोड़ महीना पर!”

भारत और सहिष्णुता-अंक-20

भारत और सहिष्णुता-अंक-20

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जितेन्द्र त्रिवेदी

अंक-20

इतनी स्‍पष्‍ट और इंसानियत भरी बातें जब मक्‍का वालों ने सुनी तो बहुत से लोग मुहम्‍मद साहब के मुरीद हो गये किन्‍तु जिन लोगों के कारनामों के खिलाफ ये बातें जाती थीं वे उनके विरोधी हो गये और उन्‍होंने उन्‍हें अपमानित करना शुरू कर दिया। जब हजरत मुहम्‍मद साहब रास्‍ते में निकलते तो उनके टखनों पर निशाना बना-बना कर पत्‍थर मारे जाते। फिर भी उन्‍होंने बाहर निकलना जारी रखा तो उनके मुँह पर खाक फेंकी जाती। इन जुल्‍मों से भी वे नहीं घबराये और अमन और शांति का पैगाम देते रहे तो मक्‍का में उन्‍हें मारने के लिये षड़यंत्र रचा गया जिसमें उन्‍हें आधी रात में घर के भीतर जिंदा जलाने की योजना थी, किन्‍तु दैवयोग से उन्‍हें इसकी जानकारी हो गई और आजिज आकर हिजरी संवत 01 (ई. सन् 622) को उन्‍होंने अपनी स्‍वरक्षा (Self Defence) और मिशन को पूरा करने के लिये एक जद्दोजहद शुरू की जिसे उन्‍होंने ‘जिहाद’ का नाम दिया और मक्‍का छोड़कर मदीना आ गये। अनाचर-अत्‍याचार के दम घोंटू वातावरण के खिलाफ उन्‍होंने भरसक तालमेल बिठाने की कोशिश की, बातचीत, सुलह-सफाई और समझाइश के सारे रास्‍ते इख्तिहार किये, किन्‍तु जब ‘कुरैश’ (मक्‍का का उनका विरोधी कबीला) ने उनके अस्तित्‍व को ही मिटाने की चाल चली तब उन्‍हें विवश होकर ‘जिहाद’ करना पड़ा और वे मदीना आकर अपने अस्तित्‍व की लड़ाई लड़ने लगे। मदीना में उन्‍होंने अपने अनुकूल परिस्थियाँ तैयार कर ली और अपने समान विचारों वाले लोगों को संगठित कर मक्‍का पर 628 ई. में हमला बोल दिया। उनके साथ मात्र 10 हजार लोग थे जिन्‍होंने वीरता पूर्वक मक्‍का पर कब्‍जा कर लिया। मक्‍का की विजय के तुरंत बाद उन्‍होंने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया जिसे यहाँ ताजा हवाले के ख्‍याल से दिया जा रहा है -

"मक्‍का वालो ! एक ईश्‍वर के अलावा कोई पूज्‍य नहीं। उसका कोई सहभागी नहीं। उसी ने अपने बंदों की सहायता की और समस्‍त झुंडों को तोड़ दिया। हाँ ! सुन लो। समस्‍त अभियान, पुरानी हत्‍याएं और खून के बदले एवं जो भी खून बहा वह मेरे पैरों के नीचे है। हे कुरैश वालों! ईश्‍वर ने अब जहालियत का घमण्‍ड तथा वंश पर गर्व करना खत्‍म कर दिया है। तुम सब लोग आदम की संतान हो और आदम मिट्टी से पैदा हुये थे।"

हजरत मुहम्‍मद के उपरोक्‍त भाषण से स्‍पष्‍ट होता है कि अपने विरोधियों पर जीत दर्ज करने के बाद भी न वे इतराये और न ही उस जीत में अपनी खुद की विलक्षणता दर्शायी, अपितु उन्‍होंने सबको खोलकर बता दिया कि जो कुछ हुआ है वह ईश्‍वर की कृपा से ही हुआ है।

इस तरह मक्‍का पर विजय करने के साथ इस्‍लाम दुनियां के धर्मों के बीच खड़ा हुआ और इन विजय अभियानों का सिलसिला पूरे अरब प्रायद्वीप से होता हुआ यूरोप, एशिया माइनर और अफ्रीका तक चला गया, किन्‍तु हमारे अध्‍ययन का विषय भारतीय प्रायद्वीप में इस्‍लाम के आगमन से संबंधित है, अत: हम उसी पर अध्‍ययन केन्द्रित करते हैं।

भारत में मुसलमानों की सबसे पहली आवाजाही सन् 626 ई. में ही शुरू हो गई थी जब अरब सौदागरों का पहला बेड़ा भारत के पश्चिमी समुद्र तटों पर उतरा। उनका यह आगमन व्‍यापार के लिये और मित्रतापूर्ण था किन्‍तु हमले के रूप में मुसलमानों का आगमन हुआ सन् 712 ई. में जब खलीफा के अल्‍पव्‍यस्‍क 17 वर्षीय सिपहसालर मु0 बिन कासिम ने भारत का सीना छलनी कर दिया। मु0 बिन कासिम ने भारत पर अब तक हुये हमलों को मात दे दी किन्‍तु उसका प्रभाव क्षणिक रहा। मुसलमानों के दल के दल धर्म विजय के जोश में यहाँ आए किन्‍तु भारत के सीमावर्ती प्रदेशों से आगे नहीं बढ़ पाये। वे मात्र लूटमार करके चल जाते। उनकी यह आवाजाही अगले 200 वर्षों तक जारी रही और उल्‍लेखनीय सफलता हासिल की महमूद गजनी ने जो सन् 1001 ई. में भारत को लूटने के इरादे से यहाँ आया था और उसने यह प्रतिज्ञा की हुई थी कि वह हर साल भारत पर कम से कम एक हमला जरूर करेगा। उसे इस्‍लाम के खोखले साम्राज्‍य के लिये उसे धन की आवश्‍यकता सता रही थी। उसने हिन्‍दुस्‍तान पर लगभग 17 हमले किये और हर बार भारी माल यहाँ से लेकर गया। इन 17 हमलों में से किसी ने इतना दुख भारत को नहीं दिया जितना 1025-26 ई. में उसके सोमनाथ के हमले ने।

गजनी के चले जाने के बाद भी मुसलमानों की रिहाइश भारत में जारी रही और कई दल भारत में स्‍थायी रूप से बस गये। यहीं से एक अनोखी संस्‍कृति की शुरुआत हुई जिसे अब ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ कहा जाता है। यद्दपि तुर्क हमलावरों ने भारत के कलेजे को भारी दुख पहुंचाया था तथापि इन हमलावरों के साथ ऐसे नायाब तत्‍व भी जाने-अनजाने में भारत आ गये जिनकी व्‍याख्‍या करने का प्रयास हम करेंगे। महमूद गजनी भारत के इतिहास में केवल तबाही के लिये ही याद नहीं किया जायेगा अपितु ‘अलबरनी’ जैसे विद्वान को भारत में लाने के लिये भी याद किया जोगा। अलबरनी एक ऐसा व्‍यक्ति था जो अपने समकालीनों में सर्वाधिक संतुलित और ज्ञानवान था। उसे ईश्‍वर ने बहुत बड़ा हृदय दिया था जो अपने-पराये के भेद को महत्‍व ही नहीं देता था और किसी के भी गुणों की प्रशंसा करने में सिद्धहस्‍त था। जिन भारतीयों को गजनी ने ‘काफिर’ कह कर दुत्‍कारा था उनके बारे में अलबरनी की यह राय थी कि हिन्‍दुस्‍तान की गली-गली में एक सुकरात रहता है। अलबरनी उस समय तक की ज्ञान की सभी विधाओं में निपुण था। क्‍या खगोलशास्‍त्र, क्‍या विज्ञान, क्‍या भूगर्भशास्‍त्र, क्‍या गणित, क्‍या दर्शन, क्‍या साहित्‍य, क्‍या इतिहास, ज्ञान की सभी विधाओं में वह पारंगत था और उसने अपने ज्ञान को दुनिया को बाटनें के उद्देश्‍य से सैंकड़ों किताबें लिखी जिन्‍हे पढ़कर आज भी उसकी प्रतिभा का लोहा मानना पड़ता है। वह एक निष्‍पक्ष व्‍यक्ति था जिसनें साफ-साफ लिखा है कि कुछ प्रारंभिक मुस्लिम शासकों के कार्य प्राय: धार्मिक भावनाओं पर आधारित न होकर केवल राजनीतिक स्‍वार्थों पर आधारित थे। लूटमार उनका प्रमुख धंधा था। इसीलिये उसके दिये गये विवरणों पर विश्‍वास होता है और इसीलिये उसके इस विवरण पर भी विश्‍वास किया जाना चाहिये जिसमें उसने यह महत्‍वपूर्ण तथ्‍य दिया है जिसे जानकर कई लोग चौंक सकते हैं, वह यह कि सुल्‍तान महमूद गजनी की सेना में कई कन्‍नड़ सैनिक थे जो कर्नाटक में भर्ती हुये थे। बड़ी ईमानदारी से उसने यह भी खुलासा किया है कि बार-बार के तुर्क हमलों से हिन्‍दू व मुसलमानों के बीच सैद्धांतिक और भावनात्‍मक शत्रुता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। अलबरनी मनोविज्ञान का भी अच्‍छा ज्ञाता था उसने ‘किताबुल हिन्‍द’ में लिखा है:

"अपने हाव-भाव व्‍यवहार आदि को लेकर भारतीय हम लोगों से बहुत ही अलग हैं – यहाँ तक कि हमारी बात, पहनावा और रस्‍मों आदि की चर्चा कर वे अपने बच्‍चों को डराते भी हैं। वे हमारा चित्रण शैतान की औलाद के रूप में करते हैं और हमारे प्रत्‍येक कार्य को सद्कार्य और सद्व्‍यवहार के एकदम विपरीत मानते हैं किन्‍तु हमें यह भी मान लेना चाहिये कि विदेशियों के बारें में ऐसे भ्रांतिपूर्ण विचार केवल हमारे देश और भारत में ही प्रचलित नहीं हैं – ये तो दुनियां के सभी देशों में व्‍याप्‍त होते हैं।" स्‍व-अलोचना (अपने भीतर झांकना) और सामान्‍यीकरण के ऐसे उदाहरण कम ही मिलेंगे।

सोमवार, 19 सितंबर 2011

जब सवेरे आंख खुलती है


जब सवेरे आंख खुलती है


श्यामनारायण मिश्र

जब सवेरे आंख खुलती है
इस तरह महसूस होता है।

हम धकेले जा रहे हैं
    म्युजियम से जंगलों में।
बिस्तरों से दफ़्तरों तक
    बजबजाते   दलदलों में,
मन में शमशान वाली
         नीम घुलती  है।

मस्तिष्क की शिराएं
सड़कें  हो  जाती हैं
    मन विचारों के
        चकों पर दौड़ता।
भावना के किसी
छज्जे के  तले
    तोड़कर दम बैठ  जाती
        अनामंत्रित प्रौढ़ता।
कुंठा की नागिन
    तब विष  उगलती  है।