सोमवार, 8 अगस्त 2011

कंठ चढ़ी कजरी

नवगीत

कंठ चढ़ी कजरी

श्यामनारायण मिश्र

झूम - झूम

मधु बरसे सावन

      मन - कदंब फूले।

बादल की

बाहों में बिजली

        हंस - हंस कर झूले।

 

पर्वत पर

चोली- से बादल

        दूध - सरीखे झरने।

पीकर पूत - पठार

         हिरन से

        लगे चौकड़ी भरने।

नदी

कगारों के ओठों को,

        अब छू ले तब छू ले।

 

खेत हुए तालाब

लहंगिया नाव

        चुनरिया पाल,

पुरइन जैसी देह

कमल – मुख

        भौरों जैसे बाल।

निरा-निरा कर

धान कामिनी

        विरह व्यथा भूले।

बादल की

बाहों में बिजुरी

        हंस - हंस कर झूले।

21 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी सुन्दर रचना, सावन के मौसम सी।

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  2. सावन की छटा बिखेरता बहुत सुन्दर नवगीत.
    ज़बरदस्त लयात्मकता और शब्द सौन्दर्य इसमें देखने को मिला.

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  3. सही समय पर सुन्दर नवगीत पोस्ट किया है आपने!

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  4. मौसम का सुन्दर शब्द चित्र !

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  5. वाह-वाह!
    अद्भुत!!
    नदी कगारों के ओठों को, अब छू ले तब छू ले।

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  6. वाह वाह वाह क्या कहें प्रकृती का इतना सुंदर मानवी करण वह भी साज श्रृंगार सहित । गीत बहुत सुंदर होने के सात गेय भी है ।

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  7. नए विम्बो से सुशोभित सुन्दर गीत !

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  8. बिजली बादल के लिए सुन्दर बिम्ब ...खूबसूरत रचना पढवाने के लिए आभार

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  9. बड़ी सुन्दर रचना, सावन के मौसम सी।

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  10. सावन की प्रकृति को रूपायित करता नवगीत अत्यन्त मोहक और भाषा ताजगी से भरी है। साधुवाद।

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  11. बादल की

    बाहों में बिजली

    हंस - हंस कर झूले।

    वाह वाह …………सुन्दर बिम्ब से सजी मनमोहक रचना।

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  12. बहुत सुंदर नवगीत.
    श्यामनारायण मिश्र जी को नमन...

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  13. माटी की सौंधी सुगंध का आभास करा दिया आपने|

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  14. लाजवाब...शब्दों का क्या खूबसूरत प्रयोग किया है आप ने अपनी इस रचना में...कमाल किया है...बधाई स्वीकारें.

    नीरज

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  15. झूम - झूम
    मधु बरसे सावन
    मन - कदंब फूले।


    सुन्दर नवगीत ...

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  16. अजी कहां की बदली और कौन सी वर्षा। यहां तो मारे चिपचिपाहट के कामिनी भी बिजली हुई जा रही है!

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  17. बहुत बढ़िया लगा...
    फालो भी कर लिया है...

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