बुधवार, 31 अगस्त 2011

देसिल बयना – 96 : खेल खेलाड़ी का पैसा मदारी का

-- करण समस्तीपुरी

“नंद घर अनंद भयो.... जय कन्हैया लाल की...! हाथी-घोड़ा पालकी....!! मदन-गोपाल की....!!! जय कन्हैया लाल की...!!!! हफ़्ता दिन से स्थल पर किशनअठमी का मेला जमा हुआ था। ढकरु ठाकुर वाला परती खेत में अनेक देवी-देवता की मूर्ति सजी हुई थी। किशन भगवान की तो तरह-तरह की झांकी थी। गाय-बछरू सब....। एगो कंश भी था... हई विशाल...! बाप-रे-बाप, कंश को तो देखिये के पकौरिया की हवा गुम हो गई...।

दखिनवारी साइड से जिलेबी और कचरी के गमागम सुगंध उठता था। पचीसनो दुकानें सजी हुई थी। खेल-तमाशा सब। बिहुला के नाच और डरोरी का कीर्तन-मंडली भी आया था। बैसकोप वाला भी था। सच्चे बेजोर मशीन था। न बिजली ना एंटिना। बस चुक्का में आँख घुसाओ और दिल्ली का कुतुब-मीनार देखो.... घर बैठे सारा संसार देखो। बंबईया हिरोइनी सब भी रहती थी उके बक्सा में। हम तो घंटा में एक बार देखिये आते थे।

पुरवारी साइड अखाड़ा पर गाँव-जवार इहाँ तक कि परदेसिया पहलवान सब भी दंड पेलते रहते थे। दुपहरिया दो बजे से झल-फल सांझ तक कुश्ती की आजमाईश होती थी। हलांकि ई बार कलकतिया पहलवान भी आये थे लेकिन लोग-बाग कहते थे कि मुकाबला फिर से जीतेगा बनारस वाला बंठा पहलवान। बाप रे बंठा पहलवान क्या था... बिजली था बिजली। चट हाथ मिलाये.... पट कैसे पटकनिया दे दे... राम जाने। मिनटे भर में हल्दी-चूना बोला देता था। लटोरन भैय्या दुपहर से लेकर सांझ तक अखाड़ा पर से हिलते नहीं था। फिर सांझे खाकर बैठ जाते थे बिहुला के नाच में... किला हिला दे महोबा गढ़ के....!

मतलब एहि बूझ लीजिये कि रेवाखंड के किशनअठमी का मेला क्या था... सतरंगी इंद्रधनुष। सब के लिये अनंद ही अनंद। बुढौ लोक कीर्तन.. जुआन सब कुश्ती-बिहुला, लड़िका बच्चा बैसकोप, मेहरी-मेहरारू के लिए मीना बजार... झुमका-बाली, अंगिया, टिकुली सब बिक रहा है चकाचक। ई किस्सा तो हर किशनअठमी का था। ई बार का इस्पेसल था नैनागढ़ के नटलीला।

मोछुआ मदारी दर्जन भर नट-नट्टिन लेके आया था। सब अपना-अपना फ़न का माहिर। उका ढोलकिया भी था कसरती। कमची और बेंत से डा... डिग्गा.... डा... डिग्गा.......... दे ढोलक पर ताल.... पूरा इलाका गनगना देता था। मोछुआ मदारी के सीटी के साथ ही शुरु हो जाता था करतब। रस्सी पर चले में फूलबा नट्टिन का कोई जोर नहीं था। एकदम से लिक-लिक पतरी थी.. उ से भी पतरी रस्सी और उ रस्सी पर लौंग की डाल की तरह लचकती हुई चलती थी। रस्सी पर कबड्डी के बाद होता था मौत का झूला। बाप रे बाप, डाँर और गर्दन में रस्सी बांध के उपरका रस्सी में लटका देता था और फूलबा रस्सी के गोल-गोल ऐसे रोलर-कास्टर करती थी जैसे कि साच्छात किशन भगवान के अंगुरी में सुदर्शन चक्र नाच रहा हो। मौजूद भीड़ दे ताली और रेजगारी की वर्षा...।

वही में एगो था खिलाड़ी मोतीलाल। उ तो पछिला जनम में जरूर हनुमानजी रहा होगा। बेटा हवा में बेलटी उलटते रहता था। एक बार उड़े तो सुंई-सुंई कर गोल चक्कर खाते उपर और फिर सुंई-सुंई करते नीचे। कम से कम चौबिस राउंड मारता था हवा में। उका सबसे फ़ेमस करतब था अग्निपथ को पार करना। जैसे हनुमानजी समुंदर पार किये थे वैसे ही मोतीलाल आग का समुंदर पार करता था। चार गो बांस का चौकोर बना के बीच में आग लगा देता था। उके चारो दिश बड़ा-बड़ा नुकीला चाकू लगा रहता था। ई मोतिया फ़र्लांग भर दूर से दौड़ कर आता था और सराक से आग और चाकू के बीच से उ पार। का एम था! थोड़ा भी उनीस-बीस हो तो चाकू दे चीथड़े उतार और वहीं पर अग्नि-संस्कार भी हो जाए। हरि बोल।

मोतीलाल के बाद नंबर आता था नट चौठीमल का। उ था भाला एक्सपर्ट। भाला के नोख को सीधा हाथ पर खड़ा करे। दोनों हाथ पर बारी-बारी से लोकता था भाला को। फिर हवा में उछाल के जीभ पर और जीभ से उछालकर माथा पर... तब पब्लिक देती दनादन ताली।

ई तरह का एकावन खेल दिखाते थे। खेल खतम होते-होते मोछुआ मदारी के सामने रेजगारी की ढ़ेर लग जाती थी। बीच में एकाध मुड़े-तुड़े नोट भी होते थे, जिसे मोछू मदारी बड़ी सावधानी से सीधाकर के मिर्जई के दामन में सहेजकर रखता था। फिर सारे नट-नट्टिन सिर नवा-नवाकर भीड़ की जय-जयकार करते हुए तंबू में चले जाते थे। सारा पैसा समेट कर मोछुआ सब से पीछे सीना ताने चलता था। हमलोग पछिला पांच दिन से लगातार देख रहे थे। मिस करने का तो सवाले नहीं था।

लड़िकन के साथ-साथ कई बड़े बुजरुग भी मोछुआ मदारी का खेल देखने आते थे। रोज नियम से। बतहू काका भी उनमें से एक थे। पहिला दिन तो खूब ताल ठोंक-ठोंक के उत्साह बढ़ाए थे खिलाड़ियों के। दूसरे दिन भी। मगर तीसरे दिन से थोड़ेक सुस्त पड़ गये। चौथे दिन गये नहीं। पांचवे दिन हमलोग उनके घर से गुजर रहे थे। चौबनिया अवाज लगा दिया, “हौ बतहू काका....! अरे चलिये महराज... नट-खिलाड़ी का करतब शुरु है....।” बतहू काका बीड़ी का सोंट मारते हुए निकले। धुआं उगलते हुए बोले, “तुम लोग जाओ... हमको ई नजायज खेल नहीं पचता है।” “खेल में का जायज और नजायज...?” अगिला सवाल खिखरा पूछा था। बतहू काका बीड़ी के बचे हुए हिस्से को जमीन में रगड़कर अपने दहिने कान के उपर खोंसकर बोले, “अरे तुम लोग अभी बाल-बुतरुक हो... सिरिफ़ खेल देखते हो... और कछु नहीं दिखाता है न तुमको...। हमलोग तो परदा के पाछे का भी खेल देख लेते हैं। गंधी बाबा क्या कहे हैं...? कि बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो...। तो बताओ भला के... सरकस हो कि नटखेल... हम बुरा देखने काहे जाएं?”

“मगर ई में बुरा क्या है, काका?” जोखूलाल चिढ़कर बोला था। “वाह रे वाह... बुरा नहीं है...? सिरिफ़ खेल देखोगे तो क्या बुझाएगा...? खेल के बाद देखो, तब पता चलेगा। अरे हमलोग तो पाटी-पोल्टिस सब जानते हैं। दो आँखे आगे तो चार आँख पाछे भी रखते हैं। तुमलोग सिरफ़ खेल देखे और हम देखे “खेल खिलाड़ी का पैसा मदारी का”। बताओ ई कहाँ का इंसाफ़ है ? मेहनत किसी का और फल पाए कोई और? बेचारा खिलाड़ी सब जान पर खेल-खेलकर करतब करे... और पैसा का पोटली बांधे सार मोछुआ मदारी...। ऐसन खेल तुम्ही लोग देखो।” बोलते-बोलते बतहू काका की आँखों में रोष की लाली दौड़ गयी थी।

मगर काका की बात सुनने के बाद हमलोगों को भी नटखेल देखने का मन नहीं कर रहा था। मन कचोट रहा था। सच्चे तो बेचारी फुलवा रस्सी पर कबड्डी खेलती है...कहीं दायें-बायें हुआ तो जय-जय श्रीसीताराम। मोतीलाल का निशाना कहीं चूका तो बोलदे वृंदावन बिहारीलाल की जय। और सबसे तो चौठीमल का भाला कहीं जीभ के बदले आँखे पर आ लगे तब तो हो गया हर-हर महादेव। इतना जोखिम भरा खेल दिखाए खिलाड़ी और माल समेटे मोछुआ मदारी... सच में क्या देखने जाएं... खेल खिलाड़ी का पैसा मदारी का?” हमलोग सकदम वहीं खड़े रहे।

कुछ देर तक मन संताप, क्षोभ, संकल्प-विकल्प में उलझा रहा। फिर सोचे ई में मोछुए मदारी का क्या दोष। ई खेल तो उपर से लेके नीचे तक हो रहा है। घर से लेकर दफ़्तर तक। सड़क से लेकर संसद तक। सब जगह तो वही बात है। “खेल खेलाड़ी का पैसा मदारी का”। फिर काहे नटखेल का मजा लेने से भी वंचित रहें? धीरे-धीरे चल दिये स्थल दिश। ढोल की थाप साफ़ सुनाई देने लगी थी, “डा... डिग्गा... डा... डिग्गा...।”

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

भारत और सहिष्णुता-अंक-17

भारत और सहिष्णुता-अंक-17

clip_image002

जितेन्द्र त्रिवेदी

अध्‍याय – 8

इस अध्‍याय में मैं भारत में हुए बाहरी हमलों का लेखा-जोखा लेने का प्रयास करूँगा क्‍योंकि इन बाहरी हमलों ने भी भारत के निर्माण में उल्‍लेखनीय भूमिका निभाई है। इन हमलों की वजह से की कई जातियाँ भारत में आ गईं और आज तक साथ-साथ रह रही हैं जो कि भारत की अपनी अनूठी विरासत है।

पिछले अध्‍याय में जहाँ बाहरी आक्रमणों और पुष्‍यमित्रशुंग द्वारा प्रजा की रक्षा हेतु किये गये प्रयासों के माध्‍यम से यह दिखाने का प्रयत्‍न किया गया है कि भारतीयों की सहिष्‍णुता को दब्‍बूपन या कायरता नहीं समझा जाना चाहिये और न ही तख्‍ता पलट को षडयंत्र कहकर उसके महत्‍व को घटाना चाहिए। भारतीयों में यह विलक्षणता शुरू से ही रही है कि उन्होंने अति सर्वत्र वर्जयेत्’ के सूत्र वाक्‍य को जीया है और जब भी कोई सोच अतिवादी होने लगी तो इस धरती ने कभी बुद्ध के रूप में मध्‍यमार्गी पैदा कर वैदिक हिंसा और प्रवृत्तिमार्गी सोच के बीच का रास्‍ता दिखाया। एक ओर जब मौर्य साम्राज्‍य के वंशजों द्वारा अहिंसा और सहिष्‍णुता के अतिवादी छोर को पकड़ने की कोशिश की गयी तो वहीं दूसरी ओर पुष्‍यमित्रशुंग जैसे व्‍यावहारिक और प्रजा की नब्‍ज टटोलने वाले व्‍यक्तियों का भी यहाँ उदय हुआ, जिन्‍होंने अपने कार्यों से यह दिखा दिया कि शासन के अंतर्गत व्‍यक्ति की निष्‍ठा वंश के प्रति न होकर प्रजा और देश के प्रति होनी चाहिये। इस प्रकार महात्‍मा बुद्ध और सेनापति पुष्‍यमित्रशुंग दोनों ने अरस्‍तू के ई.पू. 350 में प्रस्‍तुत किये गये अध्‍ययन ‘यूडीमियन एथिक्‍स (किसी भी व्‍यक्ति के सुख-चैन की आदर्श स्थिति) का जाने-अनजाने में पालन किया था। यहगँ अरस्‍तू के उस अध्‍ययन की थोड़ी सी चर्चा करना प्रसंग से भटकना नहीं कहा जाये तो मैं यह स्‍वतंत्रता लेता हूँ। इस अध्‍ययन में अरस्‍तू ने मानवीय व्‍यवहार के ऐसे कुछ भावों की व्‍याख्‍या करके यह बताने का प्रयास किया कि यदि मानव अपने क्रिया-कलापों का विश्‍लेषण करना छोड़ देता है तो उसके व्‍यक्तित्‍व और कार्यों में अधूरापन रह जायेगा किन्‍तु यदि वह थोड़ा सा इस तरफ ध्‍यान दे ले तो उसका व्‍यक्तिव और कर्म दोनों पूर्णता की तरफ जा सकते हैं। इसे ही अरस्‍तू ने मानव के लिये ‘सुखचैन की आदर्श स्थिति कहा है जिसमें बीच की स्थिति में रहने से व्‍यक्ति आत्‍मप्रसादी’ का अनुभव कर सकता है, किन्‍तु थोड़ी भी कमो-बेशी उसके चरित्र और व्‍यवहार में क्‍या बदलाव ला सकते हैं। इसे नीचे दिये गये चार्ट से समझा जा सकता है:-

कम होने पर (–)

आदर्श स्थिति/बीच की स्थित

अधिक होने पर (+)

कायरता (Cowardice)

मक्‍खीचूस (Stinginess)

लुल्‍ल (Spinelessness)

भोंदू (Boorishness)

खूसट (Surliness)

निखट्टू (Lethargy)

साहस (Courage)

उदारता (Liberality)

सौम्‍यता (Gentleness)

हाजिर-जबाबी (Wittiness)

मैत्रीपूर्ण (Friendliness)

महत्‍वाकांक्षी (Ambitious)

हड़बडि़यापन (Rashness)

फिजूलखर्ची (Profligacy)

झक्‍की (Rage)

मुँहलगापन (Buffoonery)

चमचागीरी (Obsequiousness)

उन्‍मादी (Hysterical)

पिछले अध्‍याय के अंतर्गत मैंने अध्‍याय दो में उठाये उन सवालों के भी जबाब देने की कोशिश की है कि सहिष्‍णुता भारतीयों में कायरता और सब कुछ सहते जाने की प्रवृत्ति को जन्‍म देने का कारक है या नहीं है। किसी भी निष्‍कर्ष तक पहुँचने का हक इसके अभिज्ञ पाठकों के ही अधिकार क्षेत्र में है, अत: मैं इसे उन्‍हीं के विवेक पर छोड़कर इस अध्‍याय को प्रारम्भ करता हूँ।

भारत पर हुये बाहरी हमलों का लेखा-जोखा करते समय हम यह देखेंगे कि उन सब हमलावरों को भारत की मिट्टी ने कैसे अपने में मिला कर अपने सदृश बना लिया और आज वे तत्‍व किसी भी दृष्टिकोण से विजातीय नहीं कहे जाएगें, अपितु, यदि भारत-निर्माण की प्रक्रिया में से उन्‍हें निकाल दिया जाये तो भारत का वह स्‍वरूप ही नहीं दिखेगा जो आज दिखाई देता है। विभिन्‍न संस्‍कृतियों के आगमन से यहॉं जो विविधता पैदा हुई है, उसी ने दुनियां में हमें ‘विलक्षण बना दिया है। इन बाहरी हमलों से उस समय तो जनता में काफ़ी हरारत हुई होगी और परस्‍पर मार-काट ने जन-जीवन को अस्‍त-व्‍यस्‍त कर दिया होगा किन्‍तु अपने जातीय स्‍वभाव के वशीभूत होकर हमने उसे भी सहन करने की अद्भुत क्षमता दिखाई है।

यूँ तो भारत में बाहरी हमले आर्यों के आगमन से ही शुरू हो गये थे जिसका जिक्र पहले ही किया जा चुका है। इस प्रकार इस क्षेत्र में आर्यों के सहयोग से सभ्‍यता, संस्‍कृति और शहरों के उदय ने समकालीन ईरानियों का ध्‍यान इस भू-भाग की ओर खींचा। उस समय ईरान के इखमनी शासक अपने राज्‍य विस्‍तार की लिप्‍सा से भारत की ओर बढ़ने लगे। ईरानी शासक देरियस 516 ई.पू. में पश्चिमोत्‍तर भारत में घुस गया और उसने पंजाब, सिंधु नदी के पश्चिम के इलाके और सिंध को जीत कर अपने साम्राज्‍य में मिला लिया। इस तरह भारत का यह भू-भाग ईरान (तब का फारस) का बीसवाँ क्षत्रपी (प्रांत) बन गया। भारत का यह हिस्‍सा सबसे अधिक आबादी वाला और उपजाऊ था। भारतीय प्रजा ईरानी साम्राज्‍य का अंग बन गयी और भारतीय युवक इरानी फौज में भरती होने लगे। तभी से पंजाब के आस-पास के इस भू-भाग में फौज में भरती होने की तीब्र उत्‍कंठा विद्यमान है जो आज भी देखी जा सकती है। भारत और ईरान का यह सम्‍पर्क करीब 20 वर्षो तक रहा जिससे इस भू-भाग को फायदा हुआ। इससे भारत और ईरान के बीच व्‍यापार को बढ़ावा मिला। इस सम्‍पर्क के सांस्‍कृतिक परिणाम और भी महत्‍वपूर्ण हुए। ईरानी लिपिकार, जिन्‍हें ‘कातिब कहा जाता था, भारत में लेखन का एक खास रूप ले आये जो ‘खरोष्‍ठी लिपि के नाम से मशहूर हुई। यह लिपि अरबी की तरह दाईं से बाईं ओर लिखी जाती है। अशोक के कई अभिलेख इसी लिपि में पाये गये हैं जो यह बताते हैं कि कितनी तेजी से इस क्षेत्र के बाशिन्‍दों ने बाह्य चीजों को अपनाने में कितनी फुर्ती दिखाई साथ ही साम्राज्‍य को प्रांतों मे बाँटने के तत्‍व का ज्ञान भी हमें ईरानियों से ही हुआ।

लेकिन ईरानियों के संपर्क में आने के कारण इस भू-भाग की जानकारी यूनानियों को भी हो गईं और ईरानियों के जरिये ही उन्‍हें भारत की अपार सम्‍पत्ति का पता चल गया था। जिससे उसके लिये उनमें लालच बढ़ा आर अंततोगत्‍वा सिकंदर ने भी भारत पर आक्रमण कर दिया। लूट-मार, खून-खराबे और आगजनी की इतनी बीभत्‍स घटना इस क्षेत्र में पहली बार हुई और मजे की बात यह थी कि ये संघर्ष पहले-पहल भारत की धरती पर भारतीयों में नहीं, अपितु दो बाहरी जातियों - ईरानियों और यूनानियों के बीच हुये और आखिरकार मकदूनियावासी यूनानियों ने भारत से ईरानी साम्राज्‍य का नामो-निशान मिटा दिया, किन्‍तु ईरानी यहाँ फलते-फूलते रहे और हजारो कोस दूर स्थित ईरान की कई चीजें यहाँ बदस्‍तूर जारी रहीं। ईरानियों पर विजय पा लेने के बाद सिकंदर ने भारतीय राजाओं को अपना निशाना बनाया जहाँ उसे सबसे कड़ी टक्‍कर झेलम नदी के किनारे पोरस ने दी और उसके सम्‍पूर्ण भारत जीतने के मंसूबे को कमजोर कर दिया। यद्यपि पोरस परास्‍त हुआ किन्‍तु सिकंदर का मनोबल भी उसी के साथ परास्त होने लग गया था। सिकंदर के हवाले से जो वर्णन मिलते हैं वे उसकी तबकी मनोदशा को दर्शाते हैं:- "मैं दिलों मे उत्‍साह भरना चाहता हूँ, जो निष्‍ठाहीन और कार्यरतापूर्ण डर से दबे हुये हैं।" इस प्रकार वह राजा जो अपने शत्रुओं से कभी नहीं हारा, अपने लोगों के मनोबल टूटने से वापस लौटने को तैयार हो गया। सिकंदर भारत में लगभग 19 महीने (ई.पू. 326 से 325 तक) रहा और उसने अपने भू-भाग को तीन हिस्‍सों में बाँटकर उसे तीन यूनानी गवर्नरों के हाथों में सौप दिया। सिकंदर के भारत आगमन का सबसे महत्‍वपूर्ण परिणाम था, भारत और यूरोप के बीच पहला सम्‍पर्क अथवा पूर्व और पश्चिम का परिचय। शुरुआत में कुछ यहूदियों के भारत में घुस आने के और यहीं बस जाने के उल्‍लेख प्राप्‍त होते है परंतु उल्‍लेखनीय तत्‍व तब भारत आये जब ईसा की मृत्‍यु के बाद कई दल यहाँ आये। रोमिला थापर ने अपनी पुस्‍तक ‘भारत का इतिहास’ में उल्‍लेख किया है कि ईसा की पहली शताब्‍दी में पश्चिम से व्‍यापारिक जहाजों के साथ भारत में ईसाई मत का प्रवेश हुआ। ईसाई मत के भारत आगमन का सम्‍बन्‍ध सन्‍त पाल के आगमन से जोड़ा जाता है जो एडेसा के कैथोलिक चर्च के अनुसार ईसाई धर्म के प्रचार के लिये दो बार भारत आये थे। संत थामस लगभग ईसा की आधी सदी में मालाबार पहुंचे थे और वहाँ कई गिरजाघरों की स्‍थापना करने के बाद मद्रास के निकट उपदेश देने लग गये और वहीं मैलापुर में उनकी हत्‍या कर दी गई। मालाबार क्षेत्र में सीरिया से आये उस समय के ईसाई मतानुयायी आज भी शक्तिशाली रूप में पाये जाते हैं। इस तरह भारत ने ईसा की पहली सदी से ही ईसाई धर्म के उन अवशेषों को अपने वक्ष में स्‍थान दिया है जिन्‍हें उन्‍हीं के देश में उन्‍हीं के बन्‍धुओं ने सलीब पर चढ़ा दिया था।

सोमवार, 29 अगस्त 2011

अगहन में

नवगीत

अगहन में

श्यामनारायण मिश्र

अगहन में।

 

चुटकी भर धूप की तमाखू,

बीड़े भर दुपहर का पान,

दोहरे भर तीसरा प्रहर,

दाँतों में दाबे दिनमान;

मुस्कानें अंकित करता है

फसलों की नई-नई उलहन में।

 

सरसों के छौंक की सुगंध,

मक्के में गुंथा हुआ स्वाद,

गुरसी में तपा हुआ गोरस,

चौके में तिरता आल्हाद;

टाठी तक आये पर किसी तरह

एक खौल आए तो अदहन में।

 

मिट्टी की कच्ची कोमल दीवारों तक,

चार खूंट कोदों का बिछा है पुआल;

हाथों के कते-बुने कम्बल के नीचे,

कथा और किस्से, हुंकारी के ताल;

एक ओर ममता है, एक ओर रति है,

करवट किस ओर रहे

ठहरी है नींद इसी उलझन में।

रविवार, 28 अगस्त 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 81

भारतीय काव्यशास्त्र – 81

- आचार्य परशुराम राय

09956326011

पिछले कुछ अंकों से गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा की जा रही है। अबतक गुणीभूतव्यंग्य के आठ भेदों पर चर्चा की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त गुणीभूतव्यंग्य के बयालीस और भेद बताए गए हैं। उनपर चर्चा करने के पहले पुनः एक बार गुणीभूतव्यंग्य की परिभाषा का उल्लेख करना आवश्यक है- जब व्यंग्य गुणीभूत हो जाय अर्थात् अप्रधान हो जाय (अर्थात् वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ से अधिक चमत्कारपूर्ण हो) तो वहाँ गुणीभूतव्यंग्य होता है। अतएव व्यंग्य (ध्वनि काव्य) के मुख्य 51 भेद, जिनकी चर्चा ध्वनि काव्य के अन्तर्गत की गयी है, यदि गुणीभूत हो जाएँ, तो वे भी गुणीभूतव्यंग्य होंगे। लेकिन ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य आनन्दवर्धन के अनुसार वस्तु से अलंकार व्यंग्य सदा व्यंग्य ही होता है। इसलिए ध्वनि के इन भेदों को छोड़ दिया जाय तो गुणीभूतव्यंग्य के कुल 48 भेद होंगे। इसके लिए फिर से एक बार ध्वनि के उन भेदों की यहाँ पुनरावृत्ति आवश्यक है। इन्हें नीचे दिया जा रहा है-

ध्वनि के दो भेद- 1. लक्षणामूलध्वनि और 2. अभिधामूलध्वनि

लक्षणामूलध्वनि के दो भेद – 1. अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य और 2. अत्यंततिरस्कृतवाच्य

अभिधामूलध्वनि के दो भेद- 1. असंलक्ष्यक्रम (रसादिध्वनि) और 2. संलक्ष्यक्रम

संलक्ष्यक्रम ध्वनि के तीन भेद-

1. शब्दशक्त्युत्थ, 2. अर्थशक्त्युत्थ और 3. उभयशक्त्युत्थ

शब्दशक्त्युत्थ ध्वनि के दो भेद – 1. वस्तुध्वनि और 2. अलंकारध्वनि

अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के तीन भेद-

1. स्वतःसम्भवी, 2. कविप्रौढोक्तिसिद्ध और 3. कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध

इन तीनों के चार-चार भेद होते हैं-

1.वस्तु से वस्तु, 2. वस्तु से अलंकार, 3. अलंकार से वस्तु और 4. अलंकार से अलंकार

इस प्रकार अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के कुल 12 भेद होते हैं। इनमें से अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के तीनों भेदों के वस्तु से अलंकार ध्वनि के गुणीभूतव्यंग्य रूप नहीं पाए जाते हैं। इसके सम्बन्ध में आचार्य आनन्दवर्धन ने अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में कहते हैं-

व्यज्यन्ते वस्तुमात्रेण यदाSलङ्कृतयस्तदा।

ध्रुवं ध्वन्यङ्गता तासां काव्यवृत्तेस्तदाश्रयात्।।

अर्थात् वस्तु से अलंकारों की व्यंजना की ध्वन्यंगता निश्चित है, क्योंकि काव्य की प्रवृत्ति उसी पर आश्रित होती है।

अतएव जो 51 प्रकार के ध्वनिकाव्य माने गए हैं, उनमें से स्वतःसम्भवी, कविप्रौढोक्तिसिद्ध और कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध के अन्तर्गत वस्तु से अलंकार ध्वनि के तीन भेदों के पदगत, वाक्यगत और प्रबंधगत भेद करने से इनकी संख्या 3X3=9 हो जाती है। अब 51 में से 9 निकाल देने पर 42 प्रकार के जो ध्वनिकाव्य हैं, उनमें ही गुणीभूतव्यंग्य की स्थिति बनती है। वैसे तो आचार्यों ने गुणीभूतव्यंग्य की संख्या 122248240 बतायी है। लेकिन यह विस्तार काफी लम्बा और श्रमसाध्य है। साथ ही यह बहुत उपयोगी भी नहीं है।

अतएव इस विषय अर्थात् गुणीभूतव्यंग्य को यहीं समाप्त किया जाता है और अगले अंक से काव्यदोषों पर चर्चा की जाएगी।

*****

शनिवार, 27 अगस्त 2011

फ़ुरसत में … “स्टुपिड ? कॉमन मैन !”

फ़ुरसत में …

“स्टुपिड ? कॉमन मैन !”images (58)

“मनोज” टीम

“ए वेन्ज़्-डे” फिल्म में अधिकांश डायलाग बड़े चुटीले हैं। इसके “स्टुपिड कॉमन मैन” को पहले “ही इज गुड” और अन्त में “ही इज नॉट जस्ट गुड, बट ही इज द बेस्ट” कहकर एक “हैकर” पुलिस कमिश्नर से उसे छोड़ देने का आग्रह करता है। कुछ इसी प्रकार का नजारा हम पिछली दस अगस्त से देख रहे हैं जिसमे एक ऐसे ही “कॉमन मैन” को “तुम ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबे हो .....”, “मीडिया में फोटो खिचवाने वाला”, “जन लोकपाल बिल के पास होने पर भ्रष्टाचार मिट जाएगा - यह लिखकर देने” आदि आरोपों के दलदल में डालने का प्रयास दिखा। 16 अगस्त को इसी “कॉमन मैन” के अनिश्चित कालीन अनशन को न होने देने के लिए सारे हथकण्डे अपनाए गए। लेकिन वे सभी हथकण्डे कारगर कम, सरकार के गले की फाँस ही अधिक बनते गए। संसद के अन्दर उस “कॉमन मैन” और उसके साथ आए लाखों-करोड़ों “कॉमन मेन” को उनके द्वारा चुने गए सांसदों द्वारा बाहर का आदमी बताया गया। संसद और संविधान को ढाल बनाकर जितनी कुछ तोहमत लगाई जा सकती थी, लगाई गई, उसके लिए सब कुछ किया गया और “सिम्पल कॉमन मैन” को “स्टुपिड कॉमन मैन” सिद्ध करने का हर-सम्भव (असफल) प्रयास देखने को मिला। संविधान और संसद की मनमानी व्याख्या बार-बार की जाती रही। बीच-बीच में जिम्मेदार मंत्रियों द्वारा शगूफे छोड़े जाते रहे कि ‘हम भ्रष्टाचार को मिटाने के प्रति गंभीर हैं”, “जन लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा”, आदि-आदि।

IMG_1582पिछले तीन चार दिनों से यह “कॉमन मैन” अब उन्हीं लोगों को महान लगने लगा और वे उससे मार्गदर्शन की अपेक्षा करते दिखने लगे हैं। इस प्रसंग में मुझे “बरदाश्त” पिक्चर का एक डायलाग याद आ रह है जिसमें आर्मी से डिस्चार्ज्ड एक अफसर से उसकी प्रेमिका का पिता कहता है कि “जब एक सैनिक अपनी औकात पर आ जाय तो विरोधी देश का झण्डा झुका देता है, फिर यह तो अपनी पुलिस है”। भारत की राजधानी ही नहीं बल्कि पूरे देश में यही देखने को मिला कि एक सैनिक ने पूरे देश का आवाह्न कर सड़क पर आन्दोलन करने को बाध्य कर दिया है और सरकारी तंत्र तथा पूरा राजनीतिक तंत्र किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं। सरकारी तंत्र ने बैक डोर से एक अलग मोर्चे को जन्म दिया जिसके परिणामस्वरूप दो और लोकपाल बिल आ गए, ताकि “जन लोकपाल बिल” को डिफ्यूज किया जा सके। पर, सरकार को कोई रास्ता मिल नहीं पा रहा है। एक दिन जो रास्ते निकाले जाते हैं, वहाँ दूसरे दिन बैरीकेडिंग लगा दी जाती है। राजनीतिक दलों की अवस्था साँप-छछूँदर की हो गई है। इनमें न गलत कहने का साहस हो रहा है और न ही स्वीकार करने का। पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की खोट निकालने में व्यस्त हैं और एक “कॉमन मैन” 16 अगस्त, 2011 से लगातार हजारों-लाखों के जनसमूह से घिरा अनशन पर बैठा है। विश्व का राजनीतिक जगत हत-प्रभ है कि जहाँ लाखों-करोड़ों लोग इतने दिन से सड़क पर उतरे हुए हैं, वहाँ अब तक हिंसक घटना कहीं भी देखने को नहीं मिली है। मीडिया द्वारा तो यहाँ तक खबरें दी गईं कि इस आन्दोलन के कारण दिल्ली में अपराध की घटनाएं आधी रह गईं हैं। इन सभी खबरों से सभी पाठक परिचित हैं। इसलिए इसे यहीं छोड़कर इस आन्दोलन से उठे प्रश्नों पर चर्चा अधिक अपेक्षित है कि - सर्वोच्च कौन है ? जनता, संसद अथवा संविधान ?

IMG_1581क्यों न इन प्रश्नों के उत्तर कुछ ऐसे ही प्रश्नों से ढूँढे जाएँ। क्योंकि जो उत्तर राजनीतिक खेमे से आए हैं उनमें कहा गया है कि संसद सर्वोच्च है, कुछ ने कहा संविधान सर्वोच्च है, आदि-आदि। इस प्रकार के विचार रखने वाले कितने सक्षम हैं, इस पर प्रश्नचिह्न लगाना ठीक नहीं। संसद और संविधान की सर्वोच्चता के विवाद पर पिछले सप्ताह देश के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय संविधान भारतीय संसद से उच्च है। अब प्रश्न यह है कि भारतीय जनता इसकी संसद और संविधान में कहाँ खड़ी है ? इस प्रश्न का उत्तर बहुत आसान हो जाएगा यदि हम पूछें कि संसद और संविधान किसके हैं और किसके लिए हैं ? इनके उत्तर में बड़ी आसानी से मिल जाएँगे कि संसद और संविधान दोनों भारतीय जनता के हैं और उसी के लिए हैं, सांसदों के नहीं। सांसद मात्र जनता का काम करने के लिए उसके द्वारा चुने लोग हैं और मूल भावना उनके जनता के सेवक होने की है। लेकिन इन दिनों जिस तरह मीडिया के सामने सांसदों और राजनीतिक दलों के विचार आए हैं, उससे लगता है कि संसद सांसदों की जागीर है, जिस पर प्रश्न उठाने का भारत की जनता को कोई अधिकार नहीं। वह इन दोनों के लिए अनपेक्षित वस्तु मात्र है। जबकि पूरी संप्रभुता भारतीय जनता की ही है जिसे उसने संविधान और सांसदों को दे रखा है।

IMG_1576अगला वक्तव्य विभिन्न कोनों से आया है कि “कामन मैन” श्री अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों द्वारा किया जा रहा आन्दोलन अप्रजातांत्रिक, असंसदीय, असंवैधानिक, लोकतंत्र पर हमला और संसदीय प्रणाली के लिए खतरा है। यह वक्तव्य एक गैरजिम्मेदराना और भ्रामक लगता है। ऐसा नहीं लगता है कि कोई समझदार व्यक्ति इससे सहमत होगा। पिछले बीस-पचीस वर्षों से हम लोग देख रहे हैं कि सांसदों द्वारा संसद की गरिमा की जितनी अवहेलना की गई है, उतनी और किसी ने नहीं की। कल शुक्रवार को संसद में सांसदों के व्यवहार कामन मेन के व्यवहार से भी न्यून स्तर के लगे। अपनी सरकार को बचाने के लिए नोट फार वोट कांड संसद की किस सम्प्रभुता और सर्वोच्चता की मर्यादा की रक्षा करता है। इसकी जाँच के लिए बनी संसदीय समिति की रिपोर्ट की कोई दिशा नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दखल देने के बाद अभी दो-तीन दिनों पहले प्राथिमिकी दर्ज की गयी है और कार्यवाही के लिए समन जारी हुए हैं। दूसरी बात यह है कि जिस समय आपातकाल लागू किया गया, उस समय संसद की सर्वोच्चता पर विचार क्यों नहीं किया गया था? उस समय भी यही लोग सत्ता में थे। आए दिन संसद स्थगित कर दी जाती है, क्या यह संसदीय गरिमा के अनुकूल है और संसद के उत्तरदायित्व का निर्वाह करती है? प्रश्न पूछने के लिए सांसदों द्वारा रुपये लेने से क्या संसद की गरिमा महिमा-मंडित हुई है? संसद में तोड़-फोड़ तक की गयी, संसद के अन्दर अमर्यादित भाषा, गालीगलौज हाथापाई तक होती रही है। जब ये सब संसद पर हमला और उसकी गरिमा के खिलाफ नहीं कहे गये तो आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध श्री अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में जनता का अहिंसक आन्दोलन संसद, लोकतंत्र या संसदीय प्रणाली पर हमला कैसे हो सकता है?

IMG_1578एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि लोकतंत्र में जब जनता का विश्वास अपने नेताओं पर से उठ जाए तब यह लोक अपनी बात कहाँ कहे? क्योंकि जब जनता लोकतांत्रिक रीति से अहिंसक तरीके से अपना विरोध दर्ज कराए, अपनी बात कहे तो उसे संगठित तरीके से लोकतंत्र पर खतरा करार दिया जाता है और इसके लिए बन्द कमरे में कैमरे के सामने अपना बौद्धिक, तर्क-वितर्कपूर्ण प्रवचन देने वाले प्रायोजित विद्वान सुनियोजित ढंग से खड़े कर दिए जाते हैं जो सीधी-सीधी बात करने वालों के सामने तर्कों का ऐसा जाल बुनते हैं कि मुख्य विषय ही भटककर रह जाता है। आखिर जनता की आवाज कौन लोग हैं। ये बन्द कमरे में बैठकर बहस करने वाले? इस परिप्रेक्ष्य में हमें यह भी देखना चाहिए कि यदि प्रायोजित भीड़ न मिले तो बड़ा से बड़ा राजनेता अपने एक आवाह्न पर दस हजार लोग भी इकट्ठा नहीं कर सकता, इस आन्दोलन में लाखों लोग दिल्ली में और करोड़ों लोग पूरे भारत में स्वतःस्फूर्त ढंग से अपने-अपने घरों से निकलकर सड़क पर आए हैं। कुछ तो दूर-दराज के क्षेत्रों से दिल्ली तक पहुँचे हैं। ये लोग कोई प्रलोभन देकर, भाड़े की गाड़ियाँ मुहैया कराकर अथवा रेलगाड़ियों में बलात् कब्जा करके नहीं पहुँचाए गए हैं। कहीं न कहीं लोगों के मन में भ्रष्टाचार के प्रति असहनीय पीड़ा है और सांसदों या फिर संसद में भी विश्वास की कमी है जो मुखरित होकर उन्हें सड़कों तक खींच लाई है। अगर यह जन आन्दोलन नहीं है, जनता की आवाज नहीं है, जैसा कि कहा जा रहा है, तो फिर इन लोगों के अनुसार स्वतंत्रता पूर्व के आन्दोलनों और स्वतंत्रता के बाद आपातकाल के दौरान हुए आन्दोलन को पुनःपरिभाषित करने की आवश्यकता होनी चाहिए।

IMG_1577रही बात एक समय-सीमा के अन्दर जन लोकपाल बिल को पास करने की। कामन मैन अपने आन्दोलन और बिल को पास करने की समय-सीमा की शर्त दो महीने पहले से ही घोषित करता आ रहा है। इस पर न तो सरकार और न ही राजनीतिक दल गम्भीर दिखे और आन्दोलन को हलके में लिया लेकिन बाद में भारी जन समर्थन मिलने पर इसके रूप को देखकर उसे प्रजातंत्र के लिए खतरा और संसदीय प्रणाली पर हमला करार दिया। अब इस कामन मैन के बारह दिन के अनशन पूरे होने के बाद सारी दौड़-धूप निरर्थक से अधिक कुछ नहीं दिख रही है। ऐसा भी नहीं कि इसके पहले सारी संसदीय प्रणाली के अन्तर्गत सारे बिल पास हुए हैं। अनेक बिल और संविधान में कई संशोधन बिना इन प्रक्रियाओं के अनुकरण के पास किए गए हैं। विगत वर्ष तो एक ही दिन में भारी शोरगुल के बीच 16 बिल पास हुए थे। उस दौरान माननीय सांसद शायद इन बिलों के नाम तक न सुन पाए होंगे। प्रायः देखा गया है कि जो काम करने होते हैं उनके लिए सारे नियम, कानून, पद्धति और गरिमा तक ताक पर रख दिए जाते हैं लेकिन जो कार्य नहीं करने होते हैं मात्र उन्हीं के लिए नियम, कानून, पद्धति और गरिमा की दुहाई दी जाती है। इस प्रकार यदि संसद, सांसद और सरकार अपने उत्तरदायित्वों के प्रति ही सजग न हों तो क्या उन्हें जन-आन्दोलन पर प्रश्नचिह्न लगाने का अधिकार है, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है।

बड़ा ही विचित्र है कि जनता द्वारा किया जानेवाला अहिंसक आंदोलन लोकतंत्र पर हमला हो जाता है और भ्रष्ट मंत्री, उच्च पद पर आसीन भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स को सुरक्षा प्रदान करना संसद की गरिमा पर कहीं कुछ दाग नहीं छोड़ता। इसपर अन्ना जी दो दिन से एक कहावत बार-बार दुहरा रहे हैं- नाच करे बन्दर और माल खाए मदारी। कामन मैन का जागना और अपने सरीखे कामन मेन को जगाना बड़ा ही बुरा लग रहा है सरकार को। पर वह क्या करे, भ्रष्टाचार का खटमल उसे सोने न दे तो उसके सामने जागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता और उनसे सुरक्षा के लिए उसे व्यवस्था करनी ही पड़ेगी, चाहे लोग उसके प्रयास को कोई भी संज्ञा क्यों न दें।

****

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

शिवस्वरोदय – 57

शिवस्वरोदय – 57

आचार्य परशुराम राय

09956326011

महीतत्त्वे स्वरोगश्च जले च जलमातृत:।

तेजसी खेटवाटीस्था शाकिनीपितृदोषत:।।315 ।।

भावार्थ – रोग सम्बन्धी प्रश्न के समय स्वर में पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित होने पर रोग का कारण प्रारब्ध होता है, जल तत्त्व प्रवाहित होने पर त्रिदोष (वात, पित्त व कफ) और अग्नि तत्त्व प्रवाहित होने पर शाकिनी या पितृदोष होता है।

English Translation – In case there is a question about a disease and Prithvi Tattva is active in the breath at the time, the cause of disease should be deeds of past life. Presence of Jala Tattva in the breath indicates physical cause (Tridosha-Vat, Pitta and Kaf) of disease and Agni Tattva presence indicates a kind of metaphysical cause (Shakini or Pitridosha).

आद शून्यगतदूत: पश्चात्पूर्ण विशेद्यदि।

र्च्छितोऽपि ध्रुवं जीवेदद्यर्थ प्रतिपृच्छति।।316 ।।

भावार्थ – प्रश्नकर्त्ता यदि अप्रवाहित स्वर की ओर से आकर प्रवाहित स्वर की ओर बैठ जाय और किसी रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो अन्तिम साँस गिनता हुआ मूर्च्छित रोगी भी रोगी भी ठीक हो जाएगा।

English Translation – If a person, desirous to know about health of a person, comes from the side, through which nostril breath is absent and sits on the opposite side, i.e. side of running breath, then it should be understand that the patient will recover even he is counting his last breath in unconscious state.

यस्मिन्नङ्गे स्थितो जीवस्तत्रस्थ: परिपृच्छति।

तदा जीवति जीवोऽसौ यदि रोगैरपद्रुत: ।। 317 ।।

भावार्थ – प्रश्नकर्त्ता सक्रिय स्वर की ओर से किसी रोग के विषय में प्रश्न करे, तो रोग किसी भी स्टेज पर क्यों न हो ठीक हो जाएगा।

English Translation – A person standing on the side of active breath questions about a disease, it can be predicted that the disease will be cured what so ever is the stage.

दक्षिणेन यदा वायुर्दूतो रौद्राक्षरो वदेत्।

तदा जीवति जीवोऽसौ चन्द्रे समफलं भवेत् ।। 318।।

भावार्थ –दूत (रोगी का सम्बन्धी प्रश्नकर्त्ता) हड़बड़ाहट में बड़बड़ाता हुआ आए और रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे तथा उस समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। परन्तु यदि उस समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो समझना चाहिए कि रोगी की बीमारी में होगा।

English Translation – If a relative of the patient comes grumbling in hurry and asks about the future of patient’s health during the flow of breath through the right nostril, restoration of health can be predicted. But if it happens during the flow of breath through right nostril, improvement in health can be indicated.

जीवाकारं च वा धृत्वा जीवाकारं विलोक्य च।

जीवास्थो जीवितप्रश्न तस्य स्याज्जीवितं फलम् ।। 319 ।।

भावार्थ – जिस व्यक्ति का स्वर नियंत्रण में हो या उसका मन एकाग्रचित्त हो और वह सक्रिय स्वर की ओर से अपने जीवन के विषय में प्रश्न पूछे, तो उसका उत्तर शुभ फल देनेवाला समझना चाहिए।

English Translation – A person with stable breath or peaceful mind asks question about his life from the side of active breath, a positive answer can be given.

वामाचारे तथा दक्षप्रवेशे यत्र वाहने।

तत्रस्थ: पृच्छते दूतस्तस्य सिद्धिर्न संशय: ।। 320 ।।

भावार्थ – बाईं अथवा दाहिनी नाक से साँस लेते समय यदि कोई किसी के रोगी के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो समझना चाहिए कि बिना किसी सन्देह के रोगी स्वस्थ हो जाएगा।

English Translation – If someone asks about a patient’s health at the time of breathing in either through right nostril or left nostril, it can be predicted that the will recover fully without any doubt.

*****

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

आँच-84 ­- 11 साल का मेंहदीवाला

समीक्षा

आँच-84

 11 साल का मेंहदीवाला

clip_image002हरीश प्रकाश गुप्त

मेरा फोटोप्रगतिशील/नई कविता के युग में आगे बढ़ते हुए जनवादी कविता सामाजिक सरोकारों का निर्वाह करती चलती है। वह कविता के केन्द्रीय पात्र की निजता को स्पर्श तो करती है लेकिन उसे उकेरती है सामाजिक संवेदना के विस्तृत पटल पर। इस प्रकार आज की नई कविता व्यक्तिनिष्ठता के आरोपों को खारिज करती हुई समाज का प्रतिबिम्ब बनती है और जनसामान्य से सहज जुड़ती जाती है। अरुण राय मूलतः इसी धारा के कवि हैं जो अपने इर्द-गिर्द बहुत ही सजग दृष्टि रखते हैं। वह समान्य से यथार्थ में भी असाधारण संवेदना की खोज कर लेते हैं। उनकी बहुतायत रचनाएं इसका प्रमाण हैं। ऐसे ही सरोकारों को चित्रित करती हुई उनकी एक कविता “11 साल का मेंहदीवाला” उनके ब्लाग “सरोकार” पर विगत 30 जुलाई को प्रकाशित हुई थी। यह कविता ही आज की चर्चा का प्रतिपाद्य है।

विकासशील समाज का एक निर्मम चेहरा भी होता है जो विकास की चकाचौंध के पार्श्व में कहीं छिपा सा रहता है। सामान्यतया विकास के लुभावने आकर्षक प्रकाश में उसपर दृष्टि नहीं जाती, लेकिन जब दृष्टि उधर घूमती है तो वह (विकास) विद्रूप रूप में सामने आता है। प्रस्तुत कविता में 11 साल का मेंहदीवाला ऐसे ही विकास को मुँह-सा चिढ़ाता है। 11 साल की उम्र परिपक्व होने की उम्र नहीं होती, बल्कि यह उम्र खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने और बालमन में अनेकानेक सपने सजाने की होती है। ऐसी वय में जिम्मेदारियों का बोझ स्वीकार कर निपुणता और अपने तमाम कौशल से उनका निर्वाह करना आत्यंतिक आवश्यकताओं की परिणति ही माना जाएगा। यह समाज की विडम्बना नहीं तो क्या है। एक ओर विकास की बहती धारा है, आधुनिक सुख-सुविधाओं और विलासिताओं की मार्केटिंग करने वाले भव्य मॉल और बाजार हैं तो दूसरी ओर समानान्तर समाज भी है जिसमें अर्थाभाव है, शोषण है और कुपोषण भी है। यहाँ एक अल्पवय बालक अपने परिवार के भरण-पोषण के उत्तरदायित्व का बोझ अपने कंधे पर ढोने को विवश है। पर यह विवशता उसमें कहीं प्रकट नहीं होती बल्कि उसके जीवन में इस कदर समाहित हो जाती है कि वह इस उपक्रम में व्यावसायिक कौशल अर्जित करते हुए अपना निर्वाह करता है और यह जान ही नहीं पाता कि उसके सपने उससे कब का नाता तो़ड़ चुके हैं, तिरोहित हो चुके हैं, बल्कि वह दूसरों के सपनों को पूरा होते देखकर प्रसन्नता अनुभव करता है। वह उन्हें मात्र अर्थोपाय का साधन मान उन्हें दूसरों को सौपते हुए भी प्रसन्न होता है। हर उस अवसर पर उसकी दृष्टि आर्थिक संसाधन की खोज के रूप में होती है जो समान्य स्थितियों-परिस्थितियों में उसके अथवा उस जैसे बालकों के लिए प्रसन्नता और खुशी का कारक बनने चाहिए। तब, ऐसे में वह अल्पवय बालक अपनी उम्र से कहीं अधिक उम्र के लोगों की तरह व्यवहार करता है, जिम्मेदारियाँ उठाता है तथा सजगता और परिपक्वता का परिचय देता हुआ पाठकों के हृदय में संवेदना जगाता है।

यदि कहीं प्रकाश है तो उसके ही पार्श्व में सघन अंधकार भी है। यह समाज की सच्चाई है। जीविकोपार्जन के लिए श्रमसाध्य कार्य करते बालक हमें यहाँ-वहाँ अवश्य दिखते हैं। लेकिन हमारा ध्यान उनके सपनों के दमन और उससे उपजी उनकी पीड़ा पर न जाकर हमारा बर्ताव अपना साध्य पूर्ण कर उन्हें उनके श्रम के बदले कुछ पैसे देकर मुँह मोड़ लेने का होता है। अरुण राय ने उनकी इस पीड़ा को केवल शिद्दत से महसूस ही नहीं किया है बल्कि उनकी भावनाओं को गहरे तक सम्प्रेषित भी किया है। उन्होंने इस कविता के माध्यम से समाज के व्यतिरेकी चेहरे को बहुत सरल शब्दों में उद्घाटित किया है। यह अरुण राय का काव्य-कौशल और भाषिक-सामर्थ्य है कि वे अभिव्यक्ति के लिए अपने आसपास से समान्य सी घटनाएं उठाते हैं और आसान शब्दों का प्रयोग करते हुए सरल भाषा में समाज की पीड़ा कह जाते हैं।

हालॉकि भाषा के प्रति उनका यह व्यवहार कभी-कभी विरल भावाभिव्यक्ति का कारक बनता है तथा काव्यत्व न्यून करता है। कमोवेश इस कविता में भी यह दृष्टिगोचर होता है। यथा, कविता में “11 साल का मेंहदीवाला” की गूँज अधिक है। अंकगणितीय पद वैसे ही जिह्वा की नाहक कसरत के साथ-साथ उसकी ग्राह्यता दुरूह बनाता है, ऊपर से पुनरावृत्ति – यह काव्य के रसास्वादन में बाधक है। दूसरे स्टेंजा में प्रयुक्त बहुवचन में “उम्रों” अप्रयुक्त दोष है, अतः निरर्थक लगता है। इसी प्रकार तीसरे स्टेंजा में “जचेगा चाँद, तारे, मोर के चित्र” में एकवचन क्रिया “जँचेगा” के साथ एक ही संज्ञा “चाँद” हो तो ही उपयुक्त है। शेष - “तारे, मोर के चित्र” अगली पंक्ति में आने से अर्थ अन्वित हो जाएगा अन्यथा एकवचन “जँचेगा” के साथ बहुत सी संज्ञाएं अटपटी लगती हैं। कुछ टंकण त्रुटियाँ भी हैं, यथा – “मॉल के” जिसे “मॉल की” होना चाहिए क्योंकि “चकाचौँध” स्त्रीवाची है – आदि में संशोधन अपेक्षित है।

बुधवार, 24 अगस्त 2011

देसिल बयना – 95 : करमहीन खेती करे....

देसिल बयना – 95

vcm_s_kf_m160_160x120करमहीन खेती करे....

करण समस्तीपुरी

मो. 9740011464

नेपाल के दच्छिन, बंगाल के पच्छिम और बिहार के पूरब में बहती है कोसी की निरंकुश धारा। कोसी मैय्या हाथ-पैर बांधी रही तो आय-हाय... नहीं तो हाय-हाय। वही कोसी के प्रसस्त अंचल में एक जुड़ुवाँ गाँव है, राधापुर बनवारी। एक जैसे लोग, घुटने तक धोती सिर पर एक गमछी... एक जैसा पहना-ओढावा। एक जैसे कच्चे-पक्के रास्ते, कच्चे-पक्के मकान। ज्यादा फ़ुसही और बीच-बीच में एकाध पक्की इमारत। एक जैसे खेत-खलिहान। एक से पर्व-त्योहार। सिर्फ़ एक रेलवे लाइन ही थी जो दोनों गाँवों की छाती को चीर कर गुजरती थी। दोनों गाँव दो हो जाते थे। गाँव वाले पाहुने-मेहमानों को बताते थे, ई पार राधापुर है आ उ पार बनवारी। गोया दोनों की संस्कॄति की तरह रेलवे स्टेशन भी साझा ही था – राधापुर बनवारी।

बड़की दीदीया का ब्याह हुआ था राधापुर गाँव में, वर्षों पहले। संपन्न किसान थे उ लोग। राधापुर के अलावे बनवारी गाँव में भी जमींदारी थी। बनवारी गाँव भी थोड़ा भीठ (ऊंचा) पर था। बाबूजी कह रहे थे कि सावन-भादों में दीदीया के परिवार के साथ-साथ रैय्यत-बेगार भी राधापुर से बनवारी ही आ जाते थे। दीदीया का तो अपना बंगली (बंगलो का छोटा रूप) था। और लोग तिरपाल गिराकर कोसी मैय्या के वापसी का रस्ता देखते थे। साल के चार महीना तक दीदीया के परिवार ही सबके अन्नदाता होते थे। कभी-कभी ऊँट के मुँह में जीरा भी गिरता था, सरकारी पाँवरोटी। लोग पाँवरोटी से जादे हेलीकोप्टर देखने के लिये मार करते थे।

सब दिन होत न एक समान। इधर परिवार बढ़ता गया और उधर सरकारी लाठी ऐसी लगी कि जमींदारी गयी जनदाहा बूँट लादने। बचे-खुचे जमीन के हुए टुकड़े हजार उपर से कोसी मैय्या के हाहाकार...! दीदीया तो चल बसी थी बांकी परिजन अब रेवाखंड ही आते थे चौमास में। किसानी तबाह हुआ तो लोग इस्कुल-कौलेज पकड़े। नौकरी-चाकरी, इजनेस-बिजनेस में लग गये। उ जमाना में पढ़ा-लिखा लोग का कमी था। दीदीया के दो बेटे से आठ पोते। सात-के-सात लाट-मजिस्टर। एक बचे घपोचनलाल। लड़िकपने में विद्पतिया के नाच का ऐसन आदत पकड़ा कि हर-हर महादेव। न पढ़े-लिखे न ग्यान सीखे, न मेहनत करे का आदत।

घपोचनलाल का वयस तीसन बरिस हो गया था मगर घर बसे का कौनो गुंजाइश नहीं। सगरे परिवार वही को लेकर परेशान रहते थे। बमपाठ झा पंडीजी फ़ंसौआ ब्याह में इलाका-चैम्पियन हैं। घपोचनलाल न बेकार है, बांकी खानदान तो ओहदेदार। इशारा मिलते ही घपोचनलाल को लेकर गये मुलुक बंगाल। हफ़्ते भर में लौटे जोड़ा लगाकर। लुगाई का रूप-रंग जो भी हो मगर केश था घुटना तक। चोटी खोले तो ऐसे लगे जैसे झरे धान का बोझा। अकिलगर भी थी।

पछिले साल से घपोचनलाल के गिरिह-व्यवस्था की नीव पड़ गयी थी। बनवारी गाँव वाला बंगली गिरहस्थी और रेलवी के उ पार राधापुर में खेती। बड़का भैया जोड़ा बैल भी खरीद दिये थे। पुरनका हल-चौपाल पर से झोल-मकरा भी झारा जा चुका था। नयी-नयी लुगाई के ललकार से अकर्मण्य घपोचनलाल की हिम्मत भी दोबर हो गयी। धोती बांधकर पिल गया पहलवान।

सरकार ने कोसी मैय्या का हाथ-पैर बांध दिया था। उपर से इंदर महराज भी बिहंस-बिहंसकर पौ खोले थे। राधापुर में धनरोपनी शुरु हो गयी। घपोचनलाल भी दिन-दोपहर हल-बैल पेले रहता था खेत में। बंगाल वाली खेत पर कलेउ लेके आती थी तो घपोचन लाल की बांछे खिल जाती थी। एक-एक कौर पर लुगाई की तारीफ़ करे। फिर बंगालिन बरतन-बासन समेटती थी और घपोचनलाल तंबाकू मसलता था। जान बूझकर तंबाकू का नोस उड़ा देता था लुगाई के नाक पर। फिर उ अछी...अछी करते हुए लेती थी गाँव का रस्ता और घपोचनलाल उसे निहारते हुए होंठ में तंबाकू दबाए और फिर आ ठाम पे।

एक चौथाई रोपनी कंपलीट हो गया था। मगर चारा-पानी का सही प्रबंध नहीं होने से एकदिन चितकबरा बैल बीचे खेत में टें बोल गया। दूसरा सिंघा भी एतना कमजोर कि कौनो किसान के बैल के साथ नहीं जमता था। हार कर औने पौने दाम में पतैली पेठिया चढ़ाकर बेच लिया।

फ़ागुन आते-आते घर में दाना हर-हर महादेव। उ तो भैय्या लोग आये तो बांकी बचा खर्चा पानी मिला। बैल की कहानी सुनकर बड़का भैया को रोष भी आया था मगर झुरुखन भाई समझा लिये, “जीव का कौन ठिकाना... कौन घड़ी चोला बदल जाए... जीवन-मरन घपोचना के हाथ में थोड़े है... उ तो विध का विधान है।”

मझिला भैय्या बैंक में मनेजर थे। सोच-समझ कर टरेक्टर सैंसन करा दिये थे। घपोचनलाल भी खूब खुश हुआ। “ससुर बरदा पछारी साल धोखा दे दिया... टरेक्टर तो मरने वाला नहीं है। राधापुर में पहिला टरेट्टर... ! सब खेत को रीद्दी-रीद्दी उड़ा देंगे...! राधापुर-बनवारी में धान का सबसे बड़ा मचान लगेगा अपने दुअरा पर!” बेचारा लुगाई को समझा रहा था। बंगालिन का चेहरा भी भविष्यत संपन्नता के आश से भुरुकवा तारा जैसा चमकने लगा था।

रवी की कटाई हुई और घपोचनलाल राधापुर से बनवारी तक टरेक्टर हरहराकर गाँव वालों को अपनी संपन्नता का संदेश देने लगा था। घपोचनलाल को टरेक्टर पर चढ़े देख रौदी की आहट से परेशान किसानों के कलेजे पर सांप लोट जाते थे। वैसाख गया, आर्द्रा गया... सेवतिया बीता... एक पक्ख अषाढ भी गया... कनहा धमक आया था पर इंदर महराज तो जैसे कनटोप पहिन कर सो गये थे। पूरे परान्त में भयंकर सूखा।

मनसुख चौधरी के टैनचिस्टर पर अकसबानी से समाचार आ रहा था, “सरकार ने सूबे को सूखागिरहस्थ (सूखाग्रस्त) क्षेत्र घोषित कर दिया है। अब अगर हथिया बरसेगा भी तो “का बरखा जब कृषि सुखाने....”। किसनमा भैय्या सत्तु बांध के परदेस का रस्ता नापने लगे। घपोचनलाल उम्मीद में थे। एक्कहु नच्छत्तर बरस गया तो टरेट्टर अपना है... एक्कहि दिन सारा चौरी तोड़ देंगे। महर हथिया का सूँड़ भी सूखे रह गया।

घर में मकई भी नहीं बची थी जो लावा भुज के भी दिन काटें। हार-पछताकर घपोचन लाल भी गये पुरैनिया। तीन भाई तो वहीं रहते हैं। मगर एक कमौआ दस खबैय्या उपर से हरजाई महंगाई.... भाइयों ने भी हाथ खड़े कर दिये। घपोचनलाल सांझे पुरैनिया कोट से पच्छिमवरिया टरेन पकड़ लिये थे।

कोठीवाला दुआरी पर बाबूजी से वार्तालाप चल रहा था। खटिया पर बैठे घपोचनलाल दोनो हाथों से माथा पकड़े थे। छोटका कक्का चाह सुरकते हुए पूछे थे, “अब का हुआ....?” घपोचन लाल एक नजर घुमाकर देखे थे फिर माथा से गमछी खोलकर चेहरे पर चुहचुहा आया पसीना पोछकर जमीन निहारने लगे। बाबूजी जम्हाई लेकर बोले थे, “होगा क्या... ’करमहीन खेती करे... बैल मरे या सूखा पड़े।’ बेटा पछिला साल बैल लिया... इंदर महराज जमके बरसे, रात-दिन इतना खटाया कि एक्के चौथाई में बरदा टी-री-री-री-फ़ट बोल गया। उ से सीख लेके ई साल टरेट्टर खरीदा तो रौदी मार गयी... मतलब एहि बूझ लो कि करम माने कि किस्मत के हीन हो तो सब जगह घाटे लगता है। सब जतन निरर्थक।

बाबूजी के कथन और घपोचनलाल की मुखमुद्रा में एक जैसी पीड़ा थी।

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

भारत और सहिष्णुता-16

भारत और सहिष्णुता-अंक-16

clip_image002

जितेन्द्र त्रिवेदी

भाग दो

ईसा पूर्व दूसरी शताब्‍दी का काल इस देश में घोर निराशा का काल था। महान सम्राट अशोक के वंशज घोर विलासी, कायर और भ्रष्‍ट हो गये थे। देश का स्‍वाभिमान नष्‍ट प्राय: हो गया था। विदेशी हमलावरों ने पूरे मध्‍य देश को रौंद डाला था। मगध पर उस समय मौर्य वंश का शासक वृहद्रथ राज कर रहा था जो एक निर्वीर्य शासक था। उसके शासन काल में प्रजा असहाय थी और विदेशी हमलावरों की लूट-खसोट से त्रस्‍त हो गयी थी, किन्‍तु शासक प्रजा की रक्षा करने में असमर्थ था। तत्‍कालीन ऐतिहासिक साक्ष्‍यों से पता चलता है कि यवन, आक्रमणकारी बिना किसी अवरोध के पाटलीपुत्र के अत्‍यंत निकट आ पहुँचे। इस आक्रमण की चर्चा पतंजलि के ‘महाभाष्‍य’, ‘गार्गी संहिता’ तथा कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्र’ नाटक में हुई है। ‘महाभाष्‍य’ में इसका उल्‍लेख भूतकाल को समझाने के लिये इस प्रकार किया गया है:- ‘अरुणद् यवन: साकेतम्। अरुणद् यवन: माध्‍यमिकाम्।‘ (महाभाष्‍य, 3/3, 111) अर्थात- ‘यवनों ने साकेत पर आक्रमण किया, यवनों ने चित्‍तौड़ (तब माध्‍यमिका कहा जाता था) पर आक्रमण किया। इस प्रकार का प्रयोग व्‍याकरण में उस सर्वविदित घटना के लिये किया जाता है, जो तुरंत घटी हो और यदि कोई देखना चाहे तो उसे ताजे हवाले के रूप में देख सकता है। गार्गी संहिता में भी स्‍पष्‍टत: इस आक्रमण का उल्‍लेख हुआ है:

"तत: साकेतमाक्रम्‍य पञ्चालान्‍मथुरान्‍स्‍त‍था। यवना दुष्‍टविक्रान्‍ता प्राप्‍यस्‍यन्ति कुसुमध्‍वजम्।।"

अर्थात - दुष्‍ट विक्रांत यवनों ने साकेत, पंचाल तथा मथुरा को रौंद दिया और पाटलिपुत्र तक पहुँच गये। इस यवन आक्रमण के नेता संभवत- डिमेट्रियस अथवा मिनांडर को बताया गया है। टार्न ने अपनी पुस्‍तक –‘ग्रीक्‍स इन बैक्ट्रिया एण्‍ड इंडिया’ में इसका उल्‍लेख किया है।

ऐसे समय में जब भारत यवनों द्वारा रौंदा जा रहा था और देश के वैय्याकरण (व्याकरण के ज्ञाता) भी देश की दुर्दशा के प्रति चिन्तित होकर अपने उदाहरणों के रूप मे तत्कालीन घटना का उल्लेख करके अपनी चिन्ता जाहिर की है। इस देश का भाग्‍यविधाता, भ्रष्‍टाचार और भोग विलास में लिप्‍त था और आक्रमणकारियों को रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रहा था। अपितु जब सचिव और मंत्रियों द्वारा उसे ठोस निर्णय लेने के लिये सलाह दी जाती थी। तब वह ‘अहिंसा परमो धर्म:’ का राग अलापता था और हिंसा को पापकारी बताते हुए अपने महान पितामह अशोक का हवाला देने लग जाता था। इस तरह वह महान सम्राट अशोक की ‘धम्‍म’ नीति के सिद्धांतो की आड़ में अपनी कायरता को छिपाने की कोशिश करता था और अहिंसा की शपथ के कारण शस्‍त्र धारण को वर्जित बता कर यवनों के हमलों की उपेक्षा कर जाता था। उसके इस व्‍यवहार से मंत्री, सचिव, दरबारी, सेना सब लाचार और दुखी थे।

प्रजा पर यवनों के अत्‍याचार बढ़ रहे थे। प्रजा की कसमसाहट और व्‍याकुलता को देख कर वृहद्रथ का सेनापति पुष्‍यमित्र शुंग द्रवित हो गया था। उन्‍होंने इस विकट परि‍स्थिति से उबरने के लिये अपने समान विचार वाले लोगों से विचार-विमर्श शुरू किया। यह विचार-विमर्श बहुधा ‘महाभाष्‍य’ के रचयिता पंतजलि के आश्रम में हुआ करता था, परन्‍तु इस तथाक‍थति विचार-विमर्श की पराकाष्‍ठा हुई सेनापति पुष्‍यमित्र शुंग द्वारा मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्‍या के रूप में।

पुष्‍यमित्र शुंग ने, एक दिन जब सम्राट शाही परेड का निरीक्षण कर रहे थे, संपूर्ण सेना के सामने यह घोषणा कि ‘मौर्य सम्राट अब और अधिक प्रजा की रक्षा करने के काबिल नहीं रह गये हैं, अत: मैं प्रजा की रक्षा के निमित्‍त से इस सेना की सर्वोच्‍च कमान अपने हाथों में लेता हूँ और सम्‍मानीय राजा को सभी के सामने मार रहा हूँ,’ कहते हुये अपनी तलवार वृहद्रथ की गर्दन के आर-पार घुमा दी। सम्राट की हत्‍या करने के बाद पुष्‍यमित्र शुंग ने यद्यपि शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली किन्‍तु अपने जीवनपर्यन्‍त ‘शासक’ की उपाधि नहीं प्राप्‍त की। पुराण, हर्षचरित्र, मालविकाग्निमित्र एवं ततयुगीन ऐतिहासिक दस्‍तावेजों में पुष्‍यमित्र के लिये ‘सेनानी’ शब्‍द का उल्‍लेख मिलता है, न कि ‘राजा’। इस आधार पर इतिहासकारों का विचार है कि वह कभी राजा नहीं बना, किन्‍तु उसने यवनों को भारत से बाहर खदेड़ने और प्रजा की रक्षा के लिये सभी संभव प्रयत्‍न किये। उसने मगध साम्राज्‍य की खोई हुई गरिमा पुन: स्‍थापित की और अमन-चैन का राज्‍य स्‍थापित किया। किन्‍तु बौद्धग्रंथ दिव्‍यावदान तथा तिब्‍बती इतिहासकार तारानाथ के विवरणों में उसे बौद्धों का घोर शत्रु तथा स्‍तूपों का विनाशक बताकर भर्त्‍सना की गई है। इस पर टिप्‍पणी करते हुये काशी प्रसाद जायसवाल ने अपनी पुस्‍तक – ‘जर्नल ऑफ बिहार एण्‍ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी’ में लिखा है कि- ‘कुछ बौद्ध भिक्षु शाकल (स्‍यालकोट जो वर्तमान में पाकिस्‍तान में है) में यवनों से जा मिले थे और उन्‍हीं देश द्रोहियों का वध करने के लिये पुष्‍यमित्र ने साम्राज्‍य की सुरक्षा की दृष्टि से यह सब किया होगा।

इसके अलावा उसका बौद्ध भिक्षुओं से कोई झगड़ा नहीं था। अपितु कुछ बौद्धों को तो उसने अपना मंत्री नियुक्‍त कर रखा था’ इस कथन की पुष्टि बौद्ध ग्रंथ – दिव्‍यावदान से भी मिलती है, जिसमें पुष्‍यमित्र शुंग के दरबारियों में कई बौद्धों को दर्शाया गया है। यहाँ उन विदेशी हमलावरों को आंतकी कहें और अपने क्षुद्र स्‍वार्थों की पूर्ति के लिये उन बौद्धों को देशद्रोही, तो ऐसा कहना गलत नहीं होगा। अपितु यह साबि‍त होता है कि आंतकियों की मदद के लिये इस देश में कोई न कोई गुट हमेशा उपलब्‍ध रहा है, चाहे ईसा पूर्व की सदी में, चाहे अब 21वीं सदी में। इस तरह हम कह सकते हैं कि आतं‍कियों को मदद देना कोई आधुनिक घटना नहीं है।

आज कोई कहना चाहे तो पुष्‍यमित्र शुंग के कांड को आज की भाषा में पतंजलि के आश्रम में हुए षडयंत्र के परिणाम स्‍वरूप मगध में हुआ सैनिक तख्‍ता पलट कह सकता है लेकिन शताब्दियों बाद आज तटस्‍थता से देखें तो इस कांड के पीछे पुष्‍यमित्र शुंग का सत्‍ता-लोभ कम और देश और प्रजा की रक्षा की चिंता अधिक नजर आयेगी। क्‍योंकि देश का राजा व्रहद्रथ ‘अहिंसा परमोधर्म: का जाप करने वाला एक कायर व्‍यक्ति था, जो देवयोग से विरासत प्राप्‍त पद का उपभोग करने में मग्‍न था। देश किस विपत्ति से आक्रांत है, इसकी तरफ उसका कुछ भी ध्‍यान नहीं था और वह आँखे बंद किए हुए था। उसके पास चतुरंगिणी सेना थी और उसका सेनापति एक बहादुर व्‍यक्ति था। फिर भी संपूर्ण सेना मात्र शोभा की वस्‍तु बनकर रह गई थी और विदेशी हमलावर प्रजा के सुख-चैन को लूट रहे थे।

बाहरी हमलों से देश की सार्वभौमिकता और संस्‍कृति के लिये खतरा उत्‍पन्‍न हो गया था। सवाल किसी साम्राज्‍य की रक्षा का नहीं था, प्रजा की अस्मिता की रक्षा का था। पुष्‍यमित्र ने देखा कि ऐसे समय वही संकट का समाधान कर सकता था और उसने ई.पू. 185 में वह कर दिखाया जिसे पुन: व्‍याख्‍यायित करने के लिए हमें इस ऐतिहासिक तथ्‍य की विवेचना करनी पड़ रही है। जिसे पुष्‍यमित्र ने देखा था कि उसकी निष्‍ठाएँ केवल राजवंश के प्रति नहीं, अपितु राजवंश की अपेक्षा देश के प्रति पहले हैं और उसने अपनी निष्‍ठा को साबित करके भी दिखाया – विदेशी हमलावरों को भारत की सीमा से बाहर खदेड़ कर। क्‍या पुष्‍यमित्र शुंग के हवाले से यह विनम्र प्रश्‍न करने का साहस नहीं किया जा सकता है कि देश के सर्वोच्‍च पद पर आसीन व्‍यक्ति की निष्‍ठाएँ किसी वंश के प्रति निष्‍ठा की अपेक्षा देश के प्रति सर्वोपरि होनी चाहिये?

*****

सोमवार, 22 अगस्त 2011

आग छूटी जा रही


आग छूटी जा रही

श्याम नारायण मिश्र

अंगुलियां सम्हालूं
    या दिया बालूं,
        आग छूटी जा रही है
            मुट्ठियों से।

आग का आकार
हाथों में अधूरा है,
इसे भीतर तक उतरने दो।
दे रहा हूं
एक आकृति आग को
रोशनी में धार धरने दो।
आप भी अवसर मिले तो,
    खोजना भीतर
    आग जो मां ने भरी
        है घुट्टियों से।

रविवार, 21 अगस्त 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 80


भारतीय काव्यशास्त्र – 80
-         आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में वाच्यसिद्ध्यंग और अस्फुट (अगूढ़) गुणीभूतव्यंग्य  पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में गुणीभूतव्यंग्य के तीन अन्य भेदों- संदिग्धप्राधान्य, असुन्दर, तुल्यप्राधान्य व्यंग्य और काक्वाक्षिप्त व्यंग्य पर चर्चा होगी।
जब यह स्पष्ट न हो सके या सन्देह बना रहे कि काव्य में वाच्यार्थ प्रधान है या व्यंग्यार्थ तो वहाँ संदिग्धप्राधान्य गुणीभूतव्यंग्य समझना चाहिए। इसके लिए काव्यप्रकाश में कुमारसम्भव महाकाव्य का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है-
हरस्तु किञ्चित्परिवृत्तधैर्यश्न्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः।
उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास  विलोचनानि।।
अर्थात् चन्द्रोदय के समय सागर के समान अधीर होकर भगवान बिम्ब फल की तरह लाल अधरोष्ठ से युक्त उमा (पार्वती) के मुख पर अपने तीनों नेत्र गड़ा दिए।
यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि भगवान शिव पार्वती के मुख का चुम्बन करना चाहते थे या मात्र उनके मुख को निहारना उद्देश्य है। अतएव यहाँ संदिग्धप्राधान्य व्यंग्य माना गया है।
इसके लिए एक हिन्दी का दोहा उदाहरण के लिए लेते हैं-
मानहु बिधि तन अच्छ छबि, स्वच्छ राखिबे काज।
दृग  पग  पोंछन  को  कियो,  भूषण  पायंदाज।।
यहाँ आभूषण मानो आँख के पैरों को पोछने के लिए पायंदाज हैं से व्यंग्य है कि आभूषण उनके शरीररूपी भवन में पायंदाज हैं, अर्थात् आभूषण की शोभा शरीर की शोभा के सामने निरर्थक है, नगण्य है। इसमें वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ कौन प्रधान है, यह स्पष्ट नहीं है।  
जब काव्य में वाच्यार्थ से अभिव्यक्त व्यंग्यार्थ चमत्कार का अभाव हो तो वहाँ असुन्दर गुणीभूतव्यंग्य होता है। इसके लिए उदाहरण स्वरूप प्राकृत भाषा का एक श्लोक संस्कृत छाया सहित नीचे दिया जा रहा है-
वाणीरकुञ्जुड्डीणसउणिकोलाहलं सुणनतीए।
घरकम्मवावडाए  बहुए  सीअन्ति   अंगाइं।।
(वानीरकुञ्जोड्डीनशकुनिकोलाहलं शृण्वन्त्याः।
गृहकर्मव्यापृताया  वध्वाः  सीदन्त्यङ्गानि।।) संस्कृत छाया।
अर्थात् बेत-कुंज में उड़ते हुए पक्षियों के शोर-गुल को सुनकर घर के काम में व्यस्त वधू के अंग शिथिल हो रहे हैं।
बेत-कुंज में पक्षियों का कोलाहल सुनकर बधू को यह पता चल गया कि उसका प्रेमी वहाँ नियत समय पर पहुँच गया जिसकी उपस्थिति के कारण पक्षियों का कोलाहल हो रहा है। लेकिन घरेलू कामों में व्यस्त होने के कारण वह नहीं पहुँच पा रही है जिसके कारण उसके अंग शिथिल हो रहे हैं। यहाँ पक्षियों के कोलाहल से प्रेमी का बेत कुंज में पहुँचना व्यंग्य है और इससे बधू के अंग शिथिल हो रहे हैं यह वाच्यार्थ अधिक चमत्कारपूर्ण है। इसलिए यहाँ असुन्दर गुणीभूतव्यंग्य माना गया है।  
नीचे उद्धृत दोहा इस श्लोक का लगभग अनुवाद है। इसमें बेत-कुंज के स्थान पर पछवारे की बाग कहा गया है और बधू के अंग शिथिल हो रहे हैं के स्थान पर प्रिया भरी अनुराग कहा गया है। शेष सब एक समान हैः-
बिहँग सोर सुनि सुनि समझि, पछवारे की बाग।
जाति  परी  पियरी  खरी, प्रिया भरी अनुराग।।
अब तुल्यप्राधान्य गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा करते हैं- जब काव्य में वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ दोनों में समान रूप से चमत्कार दिखाई पड़े तो उसे तुल्यप्राधान्य गुणीभूतव्यंग्य कहा गया है। इसके लिए महावीरचरितम् नाटक में रावण के मंत्री माल्यवान के पास रावण के लिए महर्षि जमदग्नि के पुत्र परशुराम का संदेश है-
ब्राह्मणातिक्रमत्यागो  भवतामेव  भूतये।
जामदग्न्यस्तथा मित्रमन्यथा दुर्मनायते।।
अर्थात् ब्राह्मण के अपमान करने का आदत छोड़ने में आपका ही भला है। क्योंकि इससे परशुराम आपके मित्र बने रहेंगे, अन्यथा वे अप्रसन्न हो जाएँगे।
यहाँ वे (परशुराम) अप्रसन्न हो जाएँगे से वे नाराज हो जाएँगे तो क्षत्रियों की तरह राक्षसों का विनाश कर देंगे व्यंग्य उतना ही चमत्कारपूर्ण है जितना कि वे अप्रसन्न हो जाएँगे। अतएव यहाँ तुल्यप्राधान्य गुणीभूतव्यंग्य है।
इसके लिए एक हिन्दी कविता का उदाहरण लेते हैं-    
आज बचपन का कोमल गात। आगे जरा का पीला पात।
चार दिन सुखद चाँदनी रात। और फिर अंधकार अज्ञात।।
यहाँ वाच्यार्थ से व्यंग्य है कि सबके दिन एक समान नहीं होते या सभी दिन एक समान नहीं होते, सुख और दुख का आना-जाना लगा रहता है। यह वाच्यार्थ के समान ही चमत्कारपूर्ण है।
इसके बाद अब चर्चा के लिए काक्वाक्षिप्त (काकु से आक्षिप्त) व्यंग्य लेते हैं- जहाँ काव्य में स्वर-शैली या लहजे (intonation) के माध्यम से व्यंग्यार्थ आए, तो वहाँ काक्वाक्षिप्त व्यंग्य होता है।
यहाँ उद्धृत श्लोक वेणीसंहार नाटक से लिया गया है और भीमसेन की उक्ति है। यह उस समय भीम के द्वारा कहा गया है जब कौरवों से संधि की बात चल रही थी-
मथ्नामि कौरवशतं समरे न कोपात् दुःशासनस्य रुधिरं न पिवाम्युरस्तः।
सञ्चूर्णयामि गदया    सुयोधनोरू सन्धिं करोतु भवतां नृपतिः पणेन।।
अर्थात् यदि आपका राजा किसी शर्त पर संधि कर ले तो क्या मैं युद्ध में क्रोधित होकर सभी कौरवों का विनाश नहीं करूँगा? अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दुःशासन के वक्षस्थल का रक्तपान नहीं करूँगा? और दुर्योधन की जाँघों को अपनी गदा से नहीं तोड़ूँगा?
इसमें निषेधात्मक कथन से व्यंग्यार्थ निकलता है कि महाराज युधिष्ठिर भले ही संधि कर लें मैं(भीम) कौरवों का विनाश अवश्य करूँगा। यह व्यंग्य को काकु से आक्षिप्त होकर आया है। इसलिए यहाँ काक्वाक्षिप्त व्यंग्य है।
इसी प्रकार रामचरितमानस की एक चौपाई की अर्धाली काक्वाक्षिप्त व्यंग्य के उदाहरण के रूप में उद्धृत है। यह विभीषण की रावण के प्रति उक्ति है-
हैं दससीस मनुज रघुनायक।
      जिनके हनूमान से पायक।।
      अर्थात् हे रावण जिस रघुनायक के पास हनुमान जैसे पायक हैं, क्या वे मनुष्य हैं? यहाँ व्यंग्य है कि वे साधारण मानव न होकर असाधारण महापुरुष, भगवान के अवतार हैं
      अगले अंक से गुणीभूतव्यंग्य के अन्य भेदों एवं पक्ष पर चर्चा होगी।
*****

शनिवार, 20 अगस्त 2011

फ़ुरसत में ... स्मृतियों के क्षण

फ़ुरसत में ...

स्मृतियों के क्षण

मनोज कुमार

कुछ चीज़ें विशेष महत्व की होती हैं। ... और हर चीज़ का अपना महत्व होता है। महत्वहीन समझकर किसी चीज़ का तिरस्कार या त्याग नहीं करना चाहिए। तिरस्कार कभी-कभी भारी पड़ सकता है और उसका त्याग किसी खास लाभ से वंचित कर सकता है।

ये बातें आज (19 अगस्त 2011 को) राजधानी एक्सप्रेस के ए.सी.-II टियर के साइड अपर बर्थ पर लेटे-लेटे याद आ रही हैं। आज से 22 साल पहले इसी दिन पटना से मद्रास एक्सप्रेस की ए.सी.-II टियर के साइड अपर बर्थ पर लेटे हुए अपने बीते दिनों की उपलब्धियों को सोचता हुआ नागपुर के लिए चला था। ऐसा नहीं था कि उसके पहले इस तरह की क्लास या बर्थ पर हमने यात्रा नहीं की थी। पिता जी रेलवे में कार्यरत थे और उनको मिलने वाले पास से देश के विभिन्न भागों की यात्रा का अवसर मिलता रहता था, पर उस बार की यात्रा का हमारे लिए विशेष महत्व था। वह टिकट आज भी मेरे पास सुरक्षित है। मेरे लिए वह एक विशेष महत्व की चीज़ है।

पिछले दो दिनों से दिल्ली में था। दिल्ली इन दिनों एक महान संघर्ष का गवाह बनी है। एक ऐसे व्यक्ति का संघर्ष है जिसने अपनी इस संघर्ष-यात्रा की शुरुआत राजघाट से मौन-ध्यान से शुरु की और तिहाड़ जेल होते हुए रामलीला मैदान तक पहुंची। इस दौरान एक ऐसी आत्मा का तिरस्कार किया गया जो बापू की समाधि पर मौन-ध्यान कर देश की दुर्दशा पर आंसू बहाता हुआ कुछ क़दम अगे बढ़ाना चाहता था, पर उसे हिरासत में लेकर वहां ले जाया गया जहां एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचारी मौज़ूद थे। कुछ खास लोगों के लिए यह तिरस्कार भारी पड़ा और इस पुनीत आत्मा के समर्थन में देश भर में जन-सैलाब उमड़ पड़ा।

इन दो दिनों में मैंने भी गांधी स्मृति केन्द्र, गांधी संग्रहालय और राजघाट में कई घंटे गुज़ारे। राजघाट से जब नई दिल्ली स्टेशन के लिए वापस हो रहा था तो रास्ते में रामलीला मैदान भी पड़ा और वहां उपस्थित मीडिया की भीड़ इस बात की तसदीक कर रही थी कि देश में जागृति की अलख जगाने वाला व्यक्ति अंदर अपना आसन जमा चुका है। बाहर सड़क पर अभी-अभी हुई वर्षा की तेज़ बौछारों से भींगे युवक-युवतियां, बाल-वृद्ध पूरे जोश और उत्साह का प्रदर्शन करते हुए उस मैदान की तरफ़ बढ़ रहे थे जहां एक और आज़ादी पाने का संघर्ष अपनी जड़ें जमा रहा था।

हमें ट्रेन पकड़नी थी इसलिए रुकने का तो अवसर नहीं था। पर मन में उस हुजूम में शामिल होने की तीव्र उत्कंठा हिलोरें मार रही थी। इस बार जान-बूझकर हमने ट्रेन से दिल्ली से कोलकाता वापसी का मन बनाया था, ताकि हम 22 साल पहले की पुरानी यादों को ताज़ा कर सकें। उस साल जब हम 19 अगस्त को चले थे और 20 अगस्त को हमें एन.ए.डी.पी. नागपुर में फाउण्डेशन कोर्स के लिए ज्वायन करना था, तो कई हलकों में इस बात की चर्चा थी कि यह दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री के जन्म दिन को ध्यान में रखकर चुना गया था, राजनीति का मज़ाक़ उड़ाने वाले इसका अर्थ अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग लगा रहे थे। मंशा चाहे जो भी हो, पिछले कई वर्षों से यह कोर्स सिविल सर्विस के लिए चुने गये अन्य सेवाओं के अधिकारियों के लिए बन्द कर दिया था, क्योंकि एल.बी.एस. में जगह कम पड़ती थी और इस बार तीन जगहों पर इसकी व्यवस्था की गई थी, जिनमें से एक नागपुर था, जहां हम जा रहे थे। अब तो यह दिन पूर्व-प्रधानमंत्री की याद में सद्भावना दिवस के रूप में मनाया जाता है। वे देश की सद्भावना के प्रयास में बहुत कुछ कर रहे थे। वे किसी खास वर्ग की नफ़रत का शिकार हुए और उनकी हत्या कर दी गई। ... देश में एक महात्मा और थे जिन्होंने देश की सद्भावना के लिए प्राणपण से कोशिश की और हत्यारों की गोली का शिकार हुए।

अक्टूबर 1946 को नवाखाली, पश्चिम बंगाल, में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। भारी लूट-मार, बलात्कार और आगजनी मची थी। वह महात्मा (बापू) बिल्कुल सामने से परिस्थिति का सामना करने और शांति और सद्भावना बहाल करने के उद्देश्य से नवाखली पहुंचे। गांव-गांव की पद-यात्रा की। एक दिन की बात है, सुबह का पानी गर्म करने के लिए जब मनु बहन चूल्हा जलाने बैठी तो आग सुलग ही नहीं रही थी। बापू को देर न हो इसलिए उन्होंने अपनी साड़ी का एक किनारा फाड़कर मिट्टी के तेल में भिंगोया ताकि जल्दी से आग सुलगा ली जाए। बापू ने इसे देख लिया। मनु से बोले, “यह तो नाड़े लायक चिन्दी है। इसे जलाया कैसे जाये? इसे धोकर सुखा दो। क्या नाड़े बनने लायक़ चिन्दी चूल्हा सुलगाने के काम में लायी जा सकती है? गरम पानी अगर देर से मिलेगा तो कोई हर्ज़ नहीं।”

ऐसे थे बापू। देश की महान समस्यायों में उलझे रहकर भी बापू को ऐसी छोटी-मोटी बातों में महत्व की चीज़ें बताते रहने में बड़ा आनन्द आता था।

आज मैं उनके द्वारा उपयोग की गई वस्तुओं को जहां संग्रह कर रखा गया है, उस जगह (राष्ट्रीय गांधी संग्राहलय) गया था। वहां पर उनके खून के धब्बों वाला वह वस्त्र भी है, जिसने देश की आत्मा को छलनी कर दिया था। पर आज उस प्रसंग पर चर्चा नहीं। आज तो मैं बात करना चाहता हूं उस संग्रहालय में रखे एक मामूली से दिखने वाले पत्थर की। उसे देखते ही मेरी श्रीमती जी ने प्रश्न किया था, “गांधी जी इस पत्थर से क्या करते थे?”

इस पत्थर से जुड़ा एक रोचक वाकया सुना कर आज मैं अपनी बात समाप्त करता हूं। बापू नहाते समय साबुन कभी नहीं लगाते थे। वे एक खुरदरा पत्थर काम में लाते थे। वह पत्थर 1922 में उन्हें मीरा बहन ने दिया था। नवाखाली के नारायणपुर गांव में जब पहुंचे तो उनके नहाने की तैयारी मनु बहन कर रही थी। बापू के नहाने के सामान में वह पत्थर नहीं था। बापू के पूछने पर मनु ने बताया कि वह तो उसे पिछले पड़ाव वाले गांव में ही भूल आईं। बापू अपने नियम के बड़े पक्के थे। उन्होंने मनु से कहा, “तुमने भूल की है तो उसे तुम्हें ही ढूंढ़ कर लाना होगा और तुम्हें अकेले ही जाना होगा, तुम्हारे साथ कोई स्वयंसेवक नहीं जायेगा। एक बार ऐसा करोगी तो जीवन भर तुम्हें याद रहेगा।”

अट्ठारह वर्षीय मनु नारियल और सुपारी के घने जंगल के बीच से अकेले गुज़र रही थीं। उस पर से क़ौमी तूफान के दिन थे। वीरान और उजाड़ रास्ते से रामनाम का जप करते हुए मनु चली जा रही थीं। घंटों की यात्रा के बाद वापस उस गांव के उस घर तक पहुंचीं जहां बीती रात बापू ठहरे थे। उस घर में एक वृद्ध महिला रहती थीं। उन्होंने उस पत्थर को अनुपयोगी समझा होगा और फेंक दिया होगा। मनु ने हिम्मत नहीं हारी और बड़ी मुश्किल से उसे खोज ही लिया। वापस आकर बापू के हाथों में पत्थर थमाया। बापू के चेहरे पर मुस्कान और मनु की आंखें में आंसू थे।

बापू ने समझाया, “यह तुम्हारी परीक्षा थी। ईश्वर जो करता है भले के लिए करता है। मेरी यह यात्रा यज्ञ है। इस यज्ञ में शामिल होना हिम्मत का काम है। यह पत्थर पच्चीस साल से मेरा साथी है। लोगों के लिए यह महत्वहीन भले लगे, पर मेरे लिए बड़ा ही महत्वपूर्ण है। यह बड़े काम की चीज़ है। काम की हर चीज़ को संभालना सीखना चाहिए।”

आज फ़ुरसत में ये कुछ बेतरतीब से ख़्यालात आए जिन्हें एक-साथ गूंथना मेरे वश की बात नहीं है। पर कहीं न कहीं मुझे इसकी कड़ियां जुड़ती दीख रही थीं इसीलिए लिखता चला गया। आज सत्य और अहिंसा की कड़ी परीक्षा की घड़ी है। चारो ओर झूठ चल रहा है। सत्य तो ढूंढ़े नहीं मिल रहा। अहिंसा के नाम पर हिंसा हो रही है। धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा है। ऐसे में देश की एक आत्मा बापू की समाधि पर जाकर प्रण लेकर परीक्षा देने बैठ गया है। अंधेरा तो है पर अंधेरे में इस दिए की ज्योति से उजाला फैलने की आशा है!

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत की ये पंक्तियां गुनगुनाने लगा हूं ....