मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

निरपेक्षता

-- सत्येन्द्र झा


दो लोगों के बीच शुरू हुई बाताबाती दो गुटों के बीच लड़ाई और मार-पीत में तब्दील हो गयी। दोनों तरफ से गरमी बढ़ती गयी और नौबत लाठी, भला, फरसा और बन्दूक तक पहुँच गयी। सामने एक विशाल वृक्ष पर एक कौव्वे का परिवार यह दृश्य देख रहा था।


व्यस्क कौव्वे ने अपने बच्चों की आँखें अपने पंख से ढांप कर बोला, "बेटे ! यह मनुष्य की लड़ाई है। यह कभी नहीं ख़त्म होगी। ये एक दिन इसी तरह लड़ते-लड़ते मर जायेंगे। तुमलोग ये सब मत सीखो। हाँ ! जब इनमें से कोई मर जाएगा तो हमलोग जी भर के उनका मांस खायेंगे।"


(मूल कथा "अहींकें कहै छी" में संकलित 'मनुक्खक माँउस' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

8 टिप्‍पणियां:

  1. .....बिचारा कौआ नहीं जानता कि मनुष्य लड़ते-लड़ते मरने से पहले कितने जीवों का वंश ही समाप्त कर जायेंगे।
    .....दुर्लभ बोधकथा पढ़ाने के लिए आभार।

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  2. हाँ ठीक कहा। हालात तो ऐसे ही हैं कि अब हमें पशु पक्षियों से शिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी।

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  3. शिक्षाप्रद बोधकथा प्रस्तुत करने के लिए आभार।

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  4. कौवे अभी भी यही कर रहे हैं और हम लड़ रहे हैं।

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  5. दुर्लभ!
    प्रेरक, विचारोत्तेजक लघुकथा।

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