शुक्रवार, 7 मई 2010

त्यागपत्र : 28

पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना ! रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती! फिर पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत ! गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा ! शिवरात्रि में रामदुलारी गाँव आना और घरवालों द्वरा शादी की बात अनसुनी करते हुए शहर को लौट जाना ! फिर शादी की सहमति ! माधोपुर से बारात चल पड़ीं है ! अब पढ़िए आगे !! -- करण समस्तीपुरी

प्रजापति ठाकुर के आँगन में पारिजात तरु सा रुचिर मंडप विद्यमान है। लक्ष्मण जीजाजी का दुशाला पकड़ धीरे -धीरे आँगन में ला रहा है। हास-परिहास से भरी नारिवृन्द लोक गीत गा रही हैं, "धीरे-धीरे दूल्हा चलै छथि कोना.... जेना कोल्हुआ के बरदा घुमै अछि तेना...!" (दूल्हा तो ऐसे धीरे चल रहे हैं जैसे कोल्हू का बैल घूम रहा हो...!) ही...ही...हे...हे... गीत के बोल पर दुल्हे की चाल देख कुछ युवतियों की ठिठोली होंठों पर आ गयी।

बांके आज तक कोई चुनौती हारे नहीं थे। तुरत कदम तेज़ कर दिया। अतरुआ वाली ओझाइन पकड़ी गीत की अगली पंक्ति, "डेग नमहर से दूल्हा चलै छथि कोना... जेना बंधन से बकरा भगै अछि तेना...!" (बड़े-बड़े कदमो से दूल्हा तो ऐसे चल रहे हैं जैसे बंधन से खुलने के बाद बकरा भागता है) अब लो... ये क्या ? धीरे चलो तो बैल और तेज चलो तो बकरा... ? भाई ! मिथिलानियों से तो भगवान राम भी हारे थे। बेचारे बांके ने भी हथियार डाल दिया। चुप-चाप आँगन में खड़े हो गए।

फिर भी लगन में उन्मत्त मिथिलानी छोड़ेंगी नहीं। ये लो, बड़की बुआ भी क्या गा रही हैं, "ठाढ़ अंगना में दुल्हा लगै छथि कोना... जेना मानिक-खंभ गड़ल हो तेना...!"

"ऐ लक्षमण ! मुँह का देखता है ? दूल्हा के गर्दन में चादर लपेट कर मंडप की परिक्रमा कराओ न !" लाल काकी की रोबदार आवाज़ उठी थी।

फिर छोटकी चाची गीत उठाती हैं, "अनका कहल किये एला महल... सिया साजन के पुछिऔन्ह हे।" मंडप की तीन परिक्रमा कर सिर नावाने के बाद ही मंडप में प्रवेश की अनुमति मिलती है।

पीले धोती और जनेऊ में गोबर्धन बाबू मंडप पर राजा जनक जैसे शोभ रहे हैं। उनके सम्मुख ही बैठे हैं दूल्हा बने बांके बिहारी। पंडित लहरू झा मंत्राचार करवा रहे हैं। श्वसुर होने वाले जमाता का पग-प्रच्छालन करते हैं। फिर कन्या को बुलाने की आज्ञा होती है।

मोतियों से रंगे लाल रंग के लहराते साड़ी और ऊपर से मढ़ी हुई शाल भी लाल रंग का ही। रामदुलारी के चेहरे पर सुहाग चढ़ा हुआ था। मंडप पर जाने से पहले दोनों माँ बेटी कुलदेवी को प्रणाम करती है। मैय्या ने दुआ मांगी, “हे भगवती ! हमरी धिया को बद-नज़रों से बचाना।” फिर सखी-सम्बन्धियों से घिरी रामदुलारी सलज्ज कदमों से मंडप में प्रवेश करती है। बड़की बुआ ने अपना आँचल रामदुलारी के सिर पर रख रक्खा है। गोबर्धन बाबू स्वयं खड़े हो कर अपनी लाडली को दाहिने भाग में बिठाते हैं। उर्मिला देवी उनके बाम भाग में ऐसे विराज रही हैं मानो हिमवंत के साथ मैनादेवी हों।

गोबर्धन बाबू जमता के हाथों पर जनेऊ-पान सुपारी और द्रव्य रखते हैं। फिर अपने हाथों में बांके का हाथ ले रामदुलारी का हाथ सौंपते हैं। संख से जलाभिषेक कर हाथ में कुश ले अपनी कन्या का उत्सर्ग कर देते हैं। आत्मजा आज से पराई हो गयी.... !

"जांघिया बिठाई बाबा करू कन्यादान..... बाबा करू कन्यादान हे.....!" स्त्रियों का स्वर मद्धिम हो जाता है..... "सुसुकी सुसुकी रोवे माई सुनयना आई धिया (पुत्री) भेली बिरान हे........!" मंगल-मुदित नर-नारी अचानक भावुक हो जाते हैं। कुछ पलकें गीली होती हैं और कई कंठ अवरुद्ध।

अरे.... मैय्या के साथ-साथ रामदुलारी का सिसकना भी बढ़ता ही जा रहा है। ओह... गोबर्धन बाबू के रुंधे गले से कन्यादान का मंत्र भी नहीं निकल रहा... ! संख से प्रवाहित जल में दृग-विन्दु भी मिल जाते हैं। गीत-नाद से गुंजायमान आँगन में कुछ पल के लिए सिर्फ पंडित जी का मंत्रोचार ही सुनाई देता है। अभी तक उल्लास से अठखेलियाँ करती सखियाँ और बहने भी चेहरे को हाथों से ढांपे आंसू छुपाने का कठिन यत्न कर रही हैं। अबोध लक्ष्मण सब का मुँह देख-देख कर कुछ समझने की कोशिश कर रहा है। है रे विधि.... बिटिया का जन्म ही क्यूँ दिया... ! जिसे प्राण समान पाला... वो अब पराई हो गयी !

अतरुआ वाली ओझाइन इन सभी मामलों की विशेषज्ञ हैं। उन्हें माहौल हल्का करना खूब आता है। चट से एक गीत उठा देती हैं,
"धुर्र....धुर्र..... छिया....ए...छिया..... ! अपन पुत्र के पढ़ा लिखा कर, बैल बना बेच दिया........ धुर्र.....धुर्र....छिया....ए....छिया....!!"

ओझाइन का गीत एकदम रामवाण निकला। पूरा माहौल तो हल्का हो गया लेकिन दुल्हे सरकार गर्म हो गए। आखिर बोल ही पड़े, "बहोत मजाक हुआ... लेकिन ये सही नहीं है ! मैं कोई बिकाऊ जानवर नहीं हूँ.... और मेरे बाप ने बेचा नहीं है !! क्या दिया है आपने.... खरीदने की हिम्मत है...?"

"आह.... ओह.... हा.... हा.... ! पाहून ऐसे नहीं बोलते हैं ! पाहून शांत रहिये !! अरे ये तो.... !!!" लालकाकी, बड़की बुआ, मामी सभी रोक-थाम अभियान में लग गयीं। पता नहीं बेदी के धुंए से या क्रोध से लेकिन बांके की आँखें सच में रक्तिम हो उठी थी। बांके तो धोती से बाहर हुए जा रहे हैं, "नो...नो... आई से, "इज दैट द मैनर टू वेलकम योर सन-इन-ला.... ? ब्लडी.... शेमलेस... !!" भोली ग्रामीण स्त्रियाँ भला 'ब्लडी' क्या समझें... ! वो तो ऐसे आश्चर्य से बांके का मुँह देखने लगी कि दुल्हे पर कोई बुरी हवा तो नहीं लग गयी।

सीढ़ी के पास कुर्सी पर बैठ मिथिला की सरस रीती का आनंद ले रहे, प्रो सहाय बाबू को मोर्चे पे आना पड़ा। बड़े स्नेह से सहाय बाबू ने बांके के कंधे पर हाथ रखते हुए उसे लोक-रीती की महत्ता और उसके आनंद को समझाया , "प्रेम के हाथ तो भगवान भी बिकाते हैं। ये अपने प्रेम से ही तो आपको ख़रीद रही हैं ! प्रेम तो अमोल है। लोक-रीती में तो सिर्फ प्रेम और आनंद ही हैं। अब प्रेम के आगे किसकी हिम्मत और औकात होगी ?"

फिर नारी वृन्द से भी कहा, "अरे ! आप लोग भी थोड़ा प्यार से दुल्हे सरकार को रिझाइये !"

मामी जी ने गाना शुरू किया, "हमर अपन केहनो छथि पाहून ! ओहि से मतलब अनका की......!" तब जाकर बांके का परितोष शांत हुआ। फिर रामदुलारी की सखियों ने गाना शुरू किया, "ललन तुझको मिथिला में रहना पड़ेगा... ! सरस मीठी गाली को सहना पड़ेगा !!

पंडित जी ने ओठंगर कूटने का निर्देश दिया। दुल्हे के साथ सात अन्य पुरुष मिल कर एक हाथ से धान कूटेंगे। मुसल के आठ चोट में धान से चावल निकाल उसे एक हाथ से ही चुनना होगा। दरअसल इसमें दुल्हे के बल और कौशल की परीक्षा होती है.... कि उसका एक हाथ दुल्हन से स्नेह के लिए रहेगा और वह दूसरे हाथ में बधू के पालन-पोसन का बल और दिमाग में चातुर्य है या नहीं। एक सूत्र में आठ पुरुषों को आवद्ध कर पंडित जी मंत्र पढ़ाते हैं। स्त्रियाँ मंगल-गान गाती हैं, "आजू धनमा कुटाऊ चारु वरवा से..... !"

अब सिंदूरदान होगा.... और फिर रामदुलारी सात जन्मों के लिए बांके-बिहारी की हो जायेगी। छोटकी चाची के गीत के बोल में उल्लास के साथ-साथ भावुकता भी बढ़ गयी है, "कौने नगर के सिन्दुरिया सिंदूर बेचे आयेल हे.... कौने नगर के कुमारी धिया सिंदूर बेसाहल हे.... !"

बांके मयंकमुखी रामदुलारी की मांग गुलाबी सिंदूर से भर देते हैं। रामदुलारी के बंद आँखों से आंसुओं की धारा कोमल कपोल को गीला कर जाती है। फिर अग्नि के सात फेरे। पंडित जी ने सात जन्मों तक साथ रहने के सातों वचन पढाये। सखियाँ गाती हैं, "बबुआ हो बाबुआ...... ललना हो ललना....... ! जब तक फेरे न हों पूरे सात.... हो.... तब तक दुल्हिन नहीं दूल्हा की.... !!

फिर ध्रुवतारा को इस सम्बन्ध का साक्षी बनाया जाता है। चन्द्र-चंद्रिका की भांति रामदुलारी और बांके बिहारी की युगल जोड़ी ठाकुर जी के आँगन की शोभा बढ़ा रहे हैं। सखियों ने गाना शुरू किया, "मोरा अंगना में उगी गेल चान.... सिया जी के राम सजन.... !!" फिर कोहबर और लाहकौरी गाते हुए सुहासिनी महिलायें वर-दुल्हिन को सुहाग-कक्ष में ले जाती हैं।

"रामदुलारी और बांके बिहारी का विवाह हो गया। अब शुरू होगा उसकी जिन्दगी का एक नया अध्याय।। क्या करवट लेती है रामदुलारे की जिन्दगी...... पढ़िए अगले हफ्ते इसी ब्लॉग पर !!!

9 टिप्‍पणियां:

  1. मिथिलाक विवाह सुन्दर चित्रणक संगहि संग रोचक पोस्ट करण जी। वाह। नीक लागल।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. ....rochak chitramay prasuti...
    bhavpurn aanchlik bhasha..... gramya pradrishy kee sundar jhanki prasutiti ke liye Abhar....

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