रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली का रंग

होली का रंग
-- परशुराम राय


होली के रंग कैसे सजन
मस्त हमारा इतना तन-मन
साँस-साँस में झूमे फागुन
मदभरे नयन के कोर-कोर।

सर-सर पवन चले घर-बाहर
गाएँ भौंरे फूल-फूल पर
देती कोयल कूक ताल पर
चूम के डाली की हर पोर।


तरु-तरु की गदराई डालें
रंग-बिरंगी चूनर डाले
उषा सबेरे कलि गागर ले
भर गयी दिशा की छोर-छोर।


रंग भरे अपनी झोली में
भरता मद लोगों के मन में
देता वसंत आवाज हमें
धरा की थामे चूनर छोर।



लगता है पूरी जगती पर
डाल गया कोई मद पागल
जर्रा-जर्रा मदिरा पी कर
कर रहा बहुत सब ओर शोर ।

बोल जोगीरा सा..रा...रा..रा...रा.... होली है !!!!

-- करण समस्तीपुरी
कल आप लाल,पीले, नीले, हरे हो जायेंगे। अजी ये आपकी राशिफल नहीं, कल होली है.................... भैय्या रे सा..रा...रा...रा..... !!! भाई नाच में सकीरा का, ताल में मजीरा का और होली में जोगीरा का बड़ा ही महत्व है। बिन जोगीरा होली के रंग फीके। यूँ तो हम इस ब्लॉग पर अडवांस में ही जोगीरा सा....रा...रा...रा....रा...... करते आ रहे हैं और आपने भी जम कर मेरे साथ जोगीरा सा...रा...रा...रा...रा किया। आपके जोश से प्रोत्साहित हो आज मैं जोगीरा का वास्तविक रूप आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। दरअसल जोगीरा चार, छः, आठ या बारह बन्दों का एक पद्य होता है जिसके अंत में सा....रा....रा....रा...रा... लगा कर इसे गाते हैं। इसमें बहुत ही महीन व्यंजना छुपी होती है। विभिन्न सामजिक, राजनितिक, सांस्कृतिक विषयों पर सरस व्यंग्य समेटे इसका चटपटा अंदाज़ होली की मस्ती में चार चाँद लगा देता है। तो आईये अब मैं जोगीरा कहता हूँ और आप सा....रा...रा....रा....रा.... कीजिये !
अरे, हल्ला-गुल्ला बंद करो, सुनो हमारी वाणी जी !
वाह जी वाह !
सतगुरु का ज्ञान है, ब्लॉग दुनिया की कहानी जी !!
वाह जी वाह !
अरे पहले आये लार-पोआल, तब आये समीर लाल जी !
सत्य है जी !
समीर लाल ने उड़ाया उड़न-तश्तरिया, तब आये ताऊ रामपुरिया जी !!
वाह जी वाह !
ताऊ रामपुरिया ने दिखाया दल-बल, तब हुआ मानसिक हल चल जी !
वाह जी वाह !
मानसिक हल-चल में हुआ हो-हल्ला, तब आया अविनाश जी का मोहल्ला जी !!
सत्य है जी !
मोहल्ला में हुई टोला की बतिया, तब आये अनूप शुक्ल फ़ुरसतिया जी !
वाह जी वाह !
फ़ुरसतिया दिखाया लिखने का जज्बा, तब आया रवीश जी का क़स्बा जी !!
सत्य है जी !
क़स्बा में रवीश जी ने बढाया परचा, उसके बाद आया चिटठा-चर्चा जी !
वाह जी वाह !
चिटठा-चर्चा का भारी असर, रखता है छुप-छुप के सब पे नजर !
बात बड़ी करता है छोटी सी बोल, सारे ब्लोगर का खोल दिया पोल !!
अब देख-देख रे देख जोगीरा सा....रा....रा...रा...रा...... !!!!
गुड मोर्निंग ! गुड मोर्निंग ! वैरी गुड सर !
गुड मोर्निंग ! गुड मोर्निंग ! वैरी गुड सर !
कहना है वाजिब तो है किसका डर ?
लाया हूँ जोगीरा भैय्या घर से बना कर !
लाया हूँ जोगीरा भैय्या घर से बना कर !
सुन ले सकल पंच जरा कान लगा कर
जोगीरा सा...रा....रा...रा....रा.... !!!
कांग्रेस जुलुम किया, सरकार बनाया !
बढ़ती मंहगाई से देश हिलाया !!
पहले तो थाली से दाल उठाया !
फिर एक कप चाय पर आफत आया !!
डीजल पेट्रोल को आकाश चढ़ाया !
हाथ दिखा के अंगूठा दिखाया..... !!
जोगीरा सा....रा...रा...रा..... !!!!
छोट मुँह बात बड़ी सुन ले जानी !
छोट मुँह बात बड़ी सुन ले जानी !
कहता हूँ सच्ची संसद की कहानी !!
रामविलास हाय-हाय ! हाय अडवानी !
दीदी वा दादा के सोना कहानी !!
नीचे से ऊपर है बहता पानी !
अरे नीचे से ऊपर है बहता पानी !
सोनिया जी राजा मनमोहन रानी !!
जोगीरा...... सा...रा...रा....रा....रा.... !!!!
किसने पाया खेती-बारी ?
किसने पाया रेल ??
किसने पाया खेती बारी ?
किसने पाया रेल ??
कौन खिलाड़ी गद्दी बैठा ?
कौन हो गया फेल ??
जोगीरा सा...रा....रा....रा...रा.... !!!
शरद पवार को खेती-बारी !
ममता दीदी रेल !!
शरद पवार को खेती-बारी !
ममता दीदी रेल !!
मनमोहन ने गद्दी पाया !
लालू यादव फेल !!
जोगीरा सा...रा....रा....रा...रा..... !!!
किसने मरा डबल सैंकड़ा ?
किसने जीता कप ??
कौन खिलाड़ी विकेट उखारा ?
कौन हो गया फ्लाप ?
जोगीरा सा...रा...रा....रा...रा.... !!!!
सचिन ने मरा डबल सैंकड़ा !
धोनी जीता कप !!
प्रवीण कुमार ने विकेट उखारा!
आशीष नेहरा फेरल !!
जोगीरा सा...रा....रा....रा...रा.... !!!!
अब इस से आगे,
भूल गए...भूल गए.... भूलन भैया !
इतने पर झूल गए.... झूलन भैय्या !!
जोगीरा सा...रा...रा...रा...रा...... !!!
!! यह होली आपके जीवन में खुशियों के हर रंग घोल दे !!

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

काव्यशास्त्र : भाग 4

आचार्य भामह

-- आचार्य परशुराम राय

आचार्य भामह का काल निर्णय भी अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह विवादों के घेरे में रहा है। आचार्य भरतमुनि के बाद प्रथम आचार्य भामह ही हैं जिनका काव्यशास्त्र पर ग्रंथ उपलब्ध है। आचार्य भामह के काल निर्णय के विवाद को निम्नलिखित मतों में विभाजित कर सकते हैः-

1. कालिदास पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

2. माघ पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

3. भाष पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

4. भट्टि पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

5. दण्डी पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

आचार्य भामह ने अयुक्तिमत् दोष के उदाहरण में मेघ आदि निर्जीव चीजों को दूत बनाने उल्लेख किया है। इसके आधार पर कतिपय विद्धान महाकवि कालिदास द्वारा विरचित खण्डकाव्य मेघदूतम् से सम्बन्ध जोड़ते हुए आचार्य भामह को महाकवि कालिदास का उत्तरवर्ती आचार्य मानते हैं। वैसे डॉ टी. गणपति शास्त्री आदि अनेक विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। इसके लिए प्रमाण स्वरूप इनका कहना है कि आचार्य भामह ने मेधावी, रामशर्मा, अश्मकवंश, रत्नाहरण आदि कवियों/आचार्यों के नामों का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है और यदि कालिदास उनके पूर्ववर्ती होते तो वे उनके नाम का भी उल्लेख अवश्य करते। इस आधार यह दल आचार्य भामह को महाकवि कालिदास का पूर्ववर्ती मानता है। अन्य साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में अन्तिम मत अधिक सशक्त है।

महाकविमाघ कृत शिशुपालवधम् महाकाव्य के एक श्लोक में उन्होंने लिखा है कि जिस प्रकार सत्कवि शब्द और अर्थ दोनों की अपेक्षा करता है, वैसे ही राजनीतिज्ञ भाग्य और पौरुष दोनों चाहता है। आचार्य भामह ने काव्य को परिभाषित करते हुए शब्दार्थौ सहितौ काव्यम् लिखा है। इसी आधार पर कुछ विद्वान आचार्य भामह को महाकवि माघ का पूर्ववर्ती मानते हैं। ऐसे ही अन्य युक्तियाँ दी गयीं हैं। ऐसी युक्तियों के आधार पर पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती होने का निर्णय न्याय संगत नहीं हैं।

ऐसी ही युक्तियों को आधार मानकर कुछ विद्वान आचार्य भामह को नाटककार भास का उत्तरवर्ती मानते हैं। क्योंकि आचार्य भामह ने वत्सराज उदयन की कथा का उल्लेख किया है और इसी कथा का वर्णन महाकवि भास द्वारा विरचित नाटिका प्रतिज्ञायौगन्धरायण में आया है। जबकि इस कथा के अलावा अनेक कथाएँ वृहत्कथा में मिलती हैं। हो सकता है कि आचार्य भामह ने वृहत्कथा के आधार पर वत्सराज उदयन की कथा का उल्लेख किया हो। क्योंकि वृहत्कथाअत्यन्त प्रसिद्ध ग्रंथ-कथा साहित्य है। इसलिए मात्र इस आधार पर आचार्य भामह को भास का उत्तरवर्ती नहीं माना जा सकता।

इसी प्रकार अन्य मत भी ऐसी ही युक्तियों पर आधारित हैं। विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर आचार्य भामह का कालनिर्णय छठवें विक्रमसंवत माना गया है। आचार्य भामह के माता-पिता, गुरु आदि के विषय में कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है।

अन्य ग्रंथों में आये उद्धरणों से पता चलता है कि इन्होने काव्यालंकार के अलावा छंद-शास्त्र और काव्यशास्त्र पर अन्य ग्रंथों की रचना की थी। किन्तु दुर्भाग्य से इनका केवल काव्यालंकार ही मिलता है। राघवभट्ट ने अभिज्ञान-शाकुन्तलम् की टीका करते समय पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण आचार्य भामह के नाम से उद्धृत किया है जो काव्यालंकार में नहीं मिलता। इससे माना जाता है कि काव्यालंकार के अलावा काव्यशास्त्र पर आचार्य भामह ने दूसरे ग्रंथ का भी प्रणयन किया था। लेकिन इस तर्क से सभी विद्वान सहमत नहीं हैं। यहाँ उन लक्षणों को उद्धृत किया जाता है।

पर्यायोक्तं प्रकारेण यदन्येनाभिधीयते।

वाच्य-वाचकशक्तिभ्यां शून्योनावगमात्मना।।

(भामह के नाम से राघवभट्ट द्वारा उद्धृत पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण (परिभाषा)

पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते।

उवाच रत्नाहरणे वैद्यं शार्ङ्गधनुर्यथा।।

(उक्त अलंकार का लक्षण काव्यालंकार के अनुसार)

उक्त दोनों आरिकाओं के पूर्वाद्ध थोड़ा अन्तर के साथ समान हैं। इसमें एक सम्भावना बनती है कि काव्यालंकार की जो प्रति राघवभट्ट के हाथ लगी हो उसमें पर्यायोक्त का लक्षण उस रूप में दिया गया हो। क्योंकि वर्तमान काव्यालंकार में मिलने वाला पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण अधूरा लगता है। अतएव लगता है कि दूसरी पंक्ति प्रतिलिपि करने में छूट गयी हो, जिसके आधार पर वर्तमान काव्यालंकार प्रकाशित हुआ है।

इस प्रकरण में जो दूसरा अन्तर देखने में आता है कि उक्त अलंकार के उदाहरण में हयग्रीववधस्थ के एक श्लोक को उदाहरण के रूप में आचार्य भामह द्वारा उद्धृत करने का उल्लेख राघवभट्ट द्वारा किया गया है। परन्तु वर्तमान काव्यालंकार में नहीं मिलता। इस सम्बन्ध उपर्युक्त उक्ति सार्थक लगती है, अर्थात् वर्तमान काव्यालंकार की पाण्डुलिपि करने में छूट गया हो।

आचार्य भामह के काव्यालंकार पर आचार्य उद्भट ने भामहविवरण नामक टीका लिखी थी, जो आज उपलब्ध नहीं है। केवल अन्य ग्रंथों में आए उद्धरणों से ही इसकी जानकारी मिलती है।

*** ***

पिछले अंक

|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||,

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

त्याग पत्र : भाग 18

पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना ! फिर रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती ! रामदुलारी अब पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत है ! गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा होती है ! रामदुलारी से प्रकाश की और रुचिरा से समीर की मित्रता प्रगाढ़ होती जाती है ! शिवरात्रि में रामदुलारी गाँव आना और घरवालों द्वरा शादी की बात अनसुनी करते हुए शहर को लौट जाना ! अब पढ़िए आगे !!

-- मनोज कुमार



प्रो. सहाय बाबू के निर्देशन में "हिंदी साहित्य की आधुनिक विधाओं में नारी विमर्श' पर रामदुलारी का शोध पूरा हो चुका था। विश्वविद्यालय से प्रस्तुति एवं मौखिक परिक्षा की तारीख मिलने का इन्तिज़ार था। रामदुलारी के कार्य पर सहाय बाबू को न केवल भरोसा बल्कि गर्व भी था। उन्होंने तो रामदुलारी के महान साहित्यकार होने की समपुर्व घोषणा भी कर रखा था। शोध-कार्य पूर्ण हो जाने पर पटना में रामदुलारी को खालीपन सालने लगा। विश्वविद्यालय आने-जाने, पुस्तकों का गहन अध्ययन, थीसिस लिखने आदि का सिलसिला थम सा चुका था। अब सिर्फ पत्र-पत्रिकाओं का पाठन और उनके लिए थोड़ा-बहुत लेखन भर रह गया था रामदुलारी की दिनचर्या में। गाहे-बगाने रुचिरा और समीर मिलने आ जाते थे। प्रकाश शहर से बाहर गया हुआ था। पटना आये वर्षों बीत चुके थे। पढाई-लिखाई में मशगूल होने के कारण वक़्त कैसे निकल गया, पता भी नहीं चला। इन वर्षों में शहर का परायापन और भीड़-भाड़ कब उसका अपना हो गया, शायद वह जान नहीं सकी थी। वर्षों बाद एक बार फिर शहर उसे उमस देने लगा था।


प्रकाश की अनुपस्थिति उसके खाली के अहसास को और बढ़ा रही थी। इस दौरान भी प्रकाश एकाध बार फ़ोन कर के रामदुलारी की सुध लेना नहीं भुला था किन्तु रामदुलारी अपनी तरफ से कभी हिम्मत नहीं जुटा पायी थी। प्रकाश कल ही पटना वापस आया था। बता रहा था कि म्यूजिक-डायरेक्टर मित्रघोष को उसकी आवाज़ और गायन शैली पसंद आ गयी है। ऑडिशन के लिए मुंबई बुअलाया है। अगर चयन हो गया तो मुंबई में ही रुकना पड़ेगा। कल से ही रामदुलारी के विचारों में जबर्दश्त संघर्ष चल रहा है। वह लगातार मौन है किन्तु दिमाग में कठिन कसरत चल रहा है। तरह-तरह के विचार उम्र रहे थे। किसी भी व्यक्ति की सबसे बड़ी खूबी चरित्र और अनुशासन है। चरित्र में सत्यप्रियता, बड़ों का आज्ञा का पालन करना, दया और प्रेमपूर्वक रहना सम्मिलित है। रामदुलारी में ये गुण कूट-कूट कर भरे हैं। हालाकि मन विद्रोह करना चाह रहा था। वह कह रहा था गायक का तेरे प्रति आकर्षण है। वह भी तेरी तरह पढ़ा लिखा है। तुझे उस-सा प्रियतम नहीं मिलेगा। उसके प्रेम का प्रतिदान दे।


.... .... नहीं-नहीं मैय्या को वचन दिया है।विवेक ने समझाया ... मैय्या को दिया वचन निभा। नहीं तो दुनियां थूकेगी तुझ पर। बाबू की प्रतिष्ठा भी नहीं बचेगी। बाबा तो प्रण ही त्याग देंगे।रामदुलारी का विद्रोह ठिठक गया। .... नहीं-नहीं मुझे इस माया-जाल से निकलना होगा। कल ही गांव जाकर हामी भर दूंगी।


गायक का कुछ दिनों के लिए पटना छोड़कर जाना और आकर फिर-से उसकी जाने की बातों ने रामदुलारी के सपनों के संसार में भयंकर भू-चाल खड़ा कर दिया। वह मन-ही-मन सोचने लगी ... जन्म काल से लेकर अबतक केवल अपार दुःख-दुर्भाग्य ही मेरे साथ रहा है। परलोक की तो मैं जानती नहीं। इस लोक में जो जीवन सारतत्व है, वह तो माता-पिता की ही देन है। उनसे अलग नहीं जा सकती मैं।

रामदुलारी ने राघोपुर जाने का मन बना लिया।

वह गांव आ गई। घर के सभी लोग रामदुलारी के कक्ष में एकत्रित हो गये। मैय्या, चाचा, बाबू, बाबा ...। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। एक अपरिचित-सा मौन उनके बीच था। पर किसी ने तो बात छेड़नी ही थी। छोटके चाचा ने ही शुरु किया, कैसी चल रही है तेरी पढ़ाई, की औपचारिकता से। उतनी ही आत्मीयता से रामदुलारी ने जवाब दिया .. बहुत अच्छी। …. “थोड़ी दुबली हो गई है” … वाला वाक्य भी दुहराया गया, चाची की तरफ से। और औपचारिकता वाला जवाब भी कि … “नहीं ठीक तो हूं। शिष्टाचार वाली औपचारिकता बाबू ने पूरी की, रास्ते में कहीं तकलीफ़ तो नहीं हुई।“ ……. नहीं, रामदुलारी ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया। मुख्य मुद्दे पर कोई आ ही नहीं रहा था। रामदुलारी की मां को लगा आहे माहे गोजा रोटी खाहे कब तक चलता रहेगा। उसने शुभस्यशीघ्रम् की नीति अपनाई। माधोपुर वालों ने जवाब मांगा है।फिर तो सब लोगों ने अपने-अपने ढ़ंग से विवाह की बात छेड़ दी। सब अपनी-अपनी भावनाएँ और विचार व्यक्त करने लगे, जो लगभग एक समान ही थे। रामदुलारी कुछ सुन रही थी, अधिकांश नहीं। बैठक के द्वारे वह टेक लगाए बैठी थी। अपने घुटनों पर मुट्ठी बांधे बांहें टेक कर उन पर अपनी ठोढ़ी टिकाकर सुन रही थी। त्याग वाली बात उसके मन में चल रही थी। मन में उठ रही उत्तेजना को उसने दबा लिया था। माता-पिता की झोली में अपना जीवन-वृत्त डाल देने की कामना उठने लगी। झट-से उठी। मैय्या के कांधे पर सिर रख कर बोली, जो तेरी इच्छा।

भावावेश में मैय्या रोने लगी। ... ...

रामदुलारी ने मन-ही-मन सोचा ... त्याग है यह या और कुछ।

वह स्वयं अपनी ही मानसिक यंत्रणाओं से अत्यधिक त्रस्त थी। पर उसे अपना वचन तो निभाना ही था, कर्तव्य भी। मन अपनी आशाओं और

यथार्थ के बीच तालमेल बिठाना चाह रहा था।


सपना या सम्मान.... किसकी होगी जीत ? क्या नारी सिर्फ त्याग करने के लिए बनी है ?? पढ़िए अगले हफ्ते ! इसी ब्लॉग पर !!

*** *** ***

पिछले पड़ाव

भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||

कुछ ख़ास है....... !

नमस्कार मित्रों !
मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि आप हैरत कर रहे होंगे या कोफ़्त........ ये ब्लॉग का कीड़ा अब दिन में तीन-तीन बार काटने लगा ? ख्वातीन-ओ-हजरात ! अजी बात ही है कुछ ख़ास !! मैं तो बस कहने आया हूँ, "मुबारक हो ..... !!!" दरअसल आज इस ब्लॉग के संचालक श्री मनोज कुमार जी का वैवाहिक वर्षगाँठ है। वर्षों पूर्व 26 फरबरी 1988 को उनके साथ हुए इस 'अत्याचार' (हा...हा....हा....! हमें तो बड़ा मजा आया था !!) का गवाह मैं भी हूँ। कैसे भूल सकता हूँ यह दिन...... वर्षों बीत गए पर जख्म अभी भी हरा है। शायद आपकी दुआ में असर हो..... आईये 'चिर-दम्पति' को उनकी शादी की बाइसवीं सालगिरह पर दे दें मुबारकबाद !!
-- करण समस्तीपुरी

चूम ले हर ख़ुशी आपके हर कदम,
दरमयां आपके ना मोहब्बत हो कम !
हैं बांधे सात फेरों से सातो जनम,
दरमयां आपके ना मोहब्बत हो कम !!

आपके नूर से ही है रोशन समां,
लेके खुशबू तुम्हारी है महकी फिजां !
हो दुआ पाक दिल की, खुदा की कसम,
दरमयां आपके ना मोहब्बत हो कम !!






आप से ही चमन अपना गुलज़ार है,
आपके अक्स में रब का दीदार है !
आप गुलशन हैं, गुलशन के बुलबुल हैं हम,
दरमयां आपके ना मोहब्बत हो कम !!


आज तक जिन्दगी में जो गुजरे हैं दिन,

दूने उसके मिले आज का ये सुदिन !

ख्वाब में भी ना आये कभी कोई ग़म,

दरमयां आपके ना मोहब्बत हो कम !!



श्री मनोज कुमार से मेरा पारिवारिक सम्बन्ध है। और सम्बन्ध क्या है, वो ग़ज़ल से जाहिर हो ही गया होगा। तो मेरे साथ आप भी दुआ करें कि श्री कुमार दम्पति के जीवन में यह दिन बार-बार आये !!!

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

चौपाल : आंच पर देसिल बयना

आँच-5

-- हरीश प्रकाश गुप्त

रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। सृजन का मूल संवेदना है। इसी संवेदना से बीज ग्रहण कर रचनाकार अपने सृजन में जीवन का सत्य और यथार्थ मात्र ही प्रस्तुत नहीं करता वरन् उसमें समाज के संस्कार और आदर्श के रंग भी भरता है, अपनी कलम-तूलिका से सजा-संवारकर उसमें नयापन पैदा करता है और आकर्षक रुप प्रदान कर समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। उसके सृजन का उद्देश्य मात्र वाणी-विलास अथवा मनोरंजन ही नहीं होता वल्कि वह अपने समाज के संस्कारों व मूल्यों की रक्षा हेतु भी प्रवृत्त होता है। सामाजिक सरोकारों के प्रति रचनाकार की इसी निष्ठा का परिचायक है देसिल बयना। इस ब्लाग पर प्रति सप्ताह प्रकाशित होने वाले स्थाई कालम देसिल बयना में रचनाकार ने स्थानिक लोक व्यवहार में सामान्यतः प्रचलित उक्तियों को विषय रूप में चुना है और अपनी सृजन प्रतिभा से उसके व्यापक अर्थ को कथारुप में पिरोकर प्रस्तुत किया है। उसका प्रयास कहाँ तक सफल है, इसकी पड़ताल के लिए आँच के इस अंक में करन समस्तीपुरी द्वारा लिखित देसिल बयना के चौदहवें अंक भला नाम ठिठपाल और पन्द्रहवें अंक छोरा मालिक बूढ़ा दीवान........ को लिया गया है।

लोकोक्तियों का संसार इस देश के जन-मानस में रचा-बसा है। ग्राम्य जीवन मे लोकोक्तियों की जड़ें बहुत गहरी है। यही कारण है कि भौगोलिक सीमाओं के भीतर इनका प्रयोग बहुत ही सहज है। अंचल का भोला मानुष इनके अर्थ को अपनी वाणी से विस्तार देने में भले ही समर्थ न हो, लेकिन अपनी सामान्य दिनचर्या की भाषा को इनसे समृद्ध बनाए हुए है।

सामान्य जन की तुलना में रचनाकार का दृष्टिकोण व्यापक होता है। क्योंकि वह अपनी संवेदनशीलता के जरिये जन-मन की उस भावभूमि को स्पर्श कर लेता है, जिसे आम जन भोगते तो हैं लेकिन जीते नहीं। संवेदना एक अनुभूति है जिसमें कुछ भी प्रक्षेपण सम्भव नहीं है। उसे सीमाबद्ध भी नहीं किया जा सकता। लेकिन जब किसी रचनाकार के सामने सीमारेखा खींच दी जाती है या उद्धेश्य विशेष के लिए वह स्वयं सीमाएं तय कर लेता है तो उसके लेखन की राह कठिन हो जाती है। इस दृष्टिकोण से हम देंखे तो देसिल बयना में लेखक की सीमाएं सुनिश्चित हैं- लोकोक्ति के विस्तार तक। तथापि रचनाकार ने कठिन राह पर चलते हुए लोकोक्तियों को अपनी कल्पनाशक्ति से कथारुप में संवारकर प्रस्तुत करने का यथासम्भव प्रयास किया है।

भलानाम ठिठपाल....’ का सारांश है कि बड़ा नाम या अच्छा नाम होने से ही कुछ नहीं होता। यदि उसका कुछ प्रभाव व्यक्तित्व पर हो तो ही सार्थक है, अन्यथा बड़े नाम का बोझ ढोने से क्या भला। इससे तो वह नाम फिर भी ठीक है जो स्वभाव के अनुरूप है, भले ही वह असुन्दर क्यों न हो। इसमें आवृत्त जीवन दर्शन की भी झलक मिलती है कि जो यथार्थ है उससे असंतोष रखने के बजाय उसी में जीवन का रस खोज लिया जाए।

जबकि ‘छोरा मालिक बूढ़ा दीवान........’ पूर्णतः व्यावहारिक जीवन में नेतृत्व की सफलता का मंत्र है। छोरा मालिक, अर्थात् नेतृत्व जो नियामक है, सत्ता है, वह युवा है और परिपक्व नहीं है। उसमें जो अनुभव होना चाहिए वह नहीं है और दीवान जो कार्यकारी है उसे ऊर्जावान होना चाहिए, वह बुर्जुवा है, ऊर्जाविहीन है। मतलब सब उलटा-पलटा। तो मामला बिगड़े सांझ विहान अर्थात् कुछ भी सही होने वाला नहीं है, सिवाय बिगड़ने के।

दोनों रचनाओं में कथानक की रचना यथार्थपूर्ण है। कहानी शुरुआत से ही ग्राम्य जीवन का वास्तविक परिवेश निर्मित करती चलती है। लोकिक्तियाँ आचंलिक-मैथिली में है सो भाषा और शब्दावली पर लेखक ने विशेष सजगता बरती है। लेकिन भाषा का यही आत्यंतिक रूप अन्य भाषी समुदाय के लिए दुरूह है और इसके व्यापक प्रसार में बाधक है। स्थानिक प्रयोग में भाषा में लिंग त्रुटि बहुतायत देखी जाती हैं, लेखक ने यहाँ पर भी त्रुटिपूर्ण लिंग प्रयोग करते हुए पात्रों की भाषा में यथार्थ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। बीच-बीच मे, कुछ जगह, सपाट वाक्य विन्यास भी हैं। किरिन डूबते-डूबते...... चढ़ते अगहन कट्ठे मन फसिल..... गये हथिया में जड़े से उलट गया...... जो रैय्यत हमरे बाबा पुरखा का पैर पूजता था...... आदि में व्यंजना आकर्षक है जिसका लेखक ने कुशलता से प्रयोग किया है। पात्र, परिवेश और संवाद एक दूसरे के अनुकूल हैं तथा ये पाठक को अर्थ से जोड़ते हुए कथा को सजीव बना रहे हैं।

अभिव्यक्ति से रचनाकार की ग्राम्य जीवन के प्रति अच्छी समझ प्रकट होती है। वह दैनिक चर्या के सामान्य क्रिया-कलापों को स्वाभाविक रूप से चित्रित करता है, तो वहीं मिट्टी से उपजे संस्कारों की खुशबू भी सर्वत्र महकती दिखाई पड़ती है और गंवई रंग हर जगह बिखरा नजर आता है। दोनों रचनाओं का शिल्प समान है। ऐसा प्रतीत होता है कि एक प्रसंग समाप्त होते ही दूसरा प्रसंग शुरू हो गया हैं। कथा का साधारणीकरण बहुत सहजता से हुआ है। भाषा में प्रवाह तो है लेकिन रचनाकार कहीं कहीं पर वर्णनात्मकता के मोह का संवरण भी नहीं कर सका है। रचना में कुछ प्रसंगों ने विस्तार अधिक ले लिया हैं विशेष रूप से ‘भला नाम...’ के पूर्वार्ध में दूसरे और तीसरे पैराग्राफ में और छोरा मालिक बूढ़ा दीवान..... के मध्य भाग में। हालाँकि रचनाओं में बिखराव तो नहीं है लेकिन कतिपय स्थानों पर कसाव की कमी भी दिखती है। तथापि रचनाएं अपना अर्थ सम्र्पेषित करने में सफल हैं और यदि सम्भावनाओं की सीमा में बंधे रचनाकार की कठिनाइयों को ध्यान में रखा जाए तो ये रचनाएं रचनाकार की क्षमता को प्रमाणित करती दृष्टिगत होती हैं।

इस के माध्यम से लेखक से अवश्य अनुरोध करूँगा कि यदि वह आंचलिक शब्दों को कोष्ठक में हिन्दी के मानक शब्दों से उन्हें इंगित कर दे, तो अन्य लोगों को, जो उस आँचलिक शैली से परिचित नहीं हैं, समझने में सुविधा होगी और रचना की दुरूहता का निराकरण हो सकेगा।

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