शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

त्यागपत्र भाग-२

पिछले सप्ताह आपने पढ़ा --- सी.पी.डब्ल्यू.डी. के अभियंता बांके बिहारी सिंह की इच्छा थी कि एक पढ़ी लिखी लड़की से उसकी शादी हो। उसके पिता ठाकुर बचन सिंह ने जब राघोपुर के गोवर्धन बाबू की कन्या रामदुलारी के बारे में सुना तो उसे अपने घर की बहू बनाने के लिए लालायित हो गए। रामदुलारी ने जब महाविद्यालय में पढ़ाई करने का मन बनाया तो घर के सदस्यों की राय उसकी इच्छा के विपरित थी। ... अब आगे पढ़िए ....

सुषमा संपन्न तिरहुत का हरा-भरा गाँव, राघोपुर। कल-कल, छल-छल बहती हुई गंडक नदी से महज कोस भर पक्की सड़क की दूरी। गाँव की छटा निराली है। दूरतक पसरी हुई शस्य श्यामला धरती, ज्यादा तर कच्चे घरों के बीच एकाध पक्के मकान और दो हवेली। तिरछी, टेढी, संकड़ी और कहीं कहीं थोड़ी चौरी कच्ची सड़कें। सड़कों पर बैलगाड़ी के बैलों के गले की घुंघुरू की आवाज़ पर दौराते बच्चे और सडकों के किनारे हाथ मे लकुटिया लिए भैंस चराते अहीर। सांझ को फूस और भीत के घर के छप्परों से उठने वाला धुंआ खिलहा चौरी मे दाना चुग रहे परिंदों को मानो नीड़ वापसी का संदेश दे रहा हो। गाँव में एक विशाल पोखड़ है, पोखड़ के किनारे घने बरगद का पेड़, पेड़ से पोखड़ में छपाछप कूदते किशोर, मवेशिओं को नहलाते किसान और पल्लू को दांतों मे दबाये घुटने भर पानी मे अधपरे पाट पर पटक-पटक कर कपड़े धोती रजक कन्याएं, गाँव के सौहार्द्र और समरसता के प्रतीक हैं । इसी पोखड़ के दूसरे छोर पर महादेव का मंदिर है और मंदिर के पास ही गोवर्धन बाबू का मकान।
बांस के फट्ठे से बने मेहरावदार गेट से घिरी दो-दो अटारियों वाली हवेली, बिना पूछे ही संपन्नता की कहानी कह देती है। गोवर्धन बाबू की बेटी रामदुलारी शांत, सुशील, भोर के पवित्र धूप की तरह है। चौड़ा माथा, लम्बा मुंह, बड़ी-बड़ी आंखें, गोरा रंग, लम्बा कद, घने लम्बे बाल, सुतवा नाक, पतले ओठ, और उसकी वाणी में मिठास है। वह वाचाल तो नहीं है, पर चुनिंदा दोस्तों के बीच एक खिलंदरपने के साथ हंसी-ठिठोली करना उसके स्वभाव में है। साफ-सुथरे कपड़े पहनना उसे पसंद है, और किसी भी रंग की हो, साड़ी उस पर फबती खूब है। भीतर से वह सहृदय और कोमल स्वभाव की है।
जब दसवीं का परिणाम आया तो रामदुलारी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुई थी। उस गांव के विद्यालय में तो किसी का भी अंक उसके बराबर नहीं था, शायद ज़िले स्तर पर भी उसका अच्छा स्थान रहा हो। पर मैय्या को उसके परिणाम से क्या लेना-देना ? मैय्या ने तो फरमान ही ज़ारी कर दिया था, "बहुत ज़िद करके इस्कुलिया पढ़ाई पूरी कर ली। अब तुम्हारा बाहर जाना बंद। कल से चूल्ही-चौके में हमारा हाथ बंटाओ। घर-आंगन की लिपाई पुताई करो...।” छोटके चाचा ने भी मैय्या की बातों पर मुहर लगा दी।
रामदुलारी की आकांक्षा थी कि वह खूब पढ़े। इसके लिए तो शहर जाकर आगे की पढ़ाई करनी होगी। मैय्या और बाबू आंगन में चौकी पर बैठे थे। मैय्या बाबू को पंखा झल रही थी। मझले चाचा एक कोने में चाची से वार्तालाप कर रहे थे। रामदुलारी ने शहर जाने का अपना मंतव्य बाबू के सामने स्पष्ट किया। बाबू ने हंसकर अपनी पत्नी को कहा, "सुन रही हो रामदुलारी की मां, ई रामदुलारी शहर जाएगी। वहां जाकर एम.ए-बी.ए. करेगी। इसको पढ़ाई का भूत चढ़ा है।”
मैय्या ने बाबू का सह पाकर अपना निर्णय दे दिया, "लिखना-पढ़ना जान गई न.. हो गया बहुत। अब घर बैठ जाय। अगले लगन में इसकी भी डोली उठ जाएगी। जादे पढ़-लिख लेगी त बीयाहो नहीं होगा इसका। अपन जात-बिरादरी में बराबर का कोई मिलेगा ही नहीं।”
वार्तालाप सुनकर मझले चाचा भी वहीं आ गए। गिरधारी सांवले रंग के, लंबे कद वाले हैं, चेहरा चौखुटा, चौड़ी नाक और चौड़ा मुंह है। रामदुलारी की अगली पढ़ाई के लिए गोवर्धन बाबू और गिरधारी, दोनों ने एकमत से विरोध किया था। गिरधारी भी लगे बाबू-मैय्या की हां-में-हां मिलाने। "दसवीं तक की पढ़ाई पर हमने कुछ नहीं कहा। अब हमारी मान-मर्यादा ताक पर मत रखो। लोग मुंह पर कहें-न-कहें, पीठ पीछे सब लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं।” ऐसे थे उनके विचार।
रामदुलारी अपनी बातें उन्हें समझाने का प्रयत्न कर रही थी। पर कोई मानने, समझने को तैयार नहीं था। उसकी भाव-धारा अवाध गति से बढ़ रही थी। स्वर में रोष भी प्रकट हो रहा था। रोष का शमन कर नहीं पा रही थी। ... रामदुलारी तैश खा गई। झटके से उठकर खड़ी हो गई। चाचा की ओर देखते हुए बोली, "मैं एक मिसाल क़ायम करके रहूंगी। इस गांव की पहली बेटी बनूंगी जिसने विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई हो और शोधप्रबंध लिखा हो।” मैय्या की फटकार पहले सुनाई दी, ”लुत्ती लागे एकर मुंह में, कैसे बकर-बकर करे जा रही है। सबसे बड़का माथा वाली त इहे है। पढ़ लिख के चुल्ही मे लगेगी, मुंहझौंसी !” मां गुस्से में है, स्पष्ट है। उसे जब गुस्सा आता है तो वह दांत पीस-पीस कर सरापती है।
बाबू उसकी ओर ऐसे घूरे जैसे उसने कोई भारी अपराध किया हो और क्रोध से आंखें निकालकर गरजे, "अच्छा बक-बक बंद कर गंवार लड़की। दू अच्छर क्या सीख लिया , लगी बड़ों से मुंह लगाने ! तू कहीं नहीं जाएगी। घर में ही रहेगी।”
आंगन में निस्तब्धता छा गई।


[क्या अपनों ने ही फेर दिया रामदुलारी के सपनों पर पानी....? या कोई और मोड़ लेगी कहानी....?? जानने के लिए पढिये श्रृंखला की अगली कड़ी ! इसी ब्लॉग पर !! अगले हफ्ते !!!]

त्याग पत्र के पड़ाव

भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||, ॥ 38॥

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

संचार माध्यमों से हिन्दी का भला या बुरा... ?

--- मनोज कुमार
इक्‍कीसवीं सदी की व्‍यावसायिकता जब हिन्‍दी को केवल शास्‍त्रीय भाषा कह कर इसकी उपयोगिता पर प्रश्‍नचिह्न लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने न केवल अपने अस्तित्‍व की रक्षा की, वरण इस घोर व्‍यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्‍पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्‍विक क्रांति दी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए।

विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग “हिंगलिश” की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य हिंदी है।
आज बाज़ारबाद शबाब पर है। उत्‍पादक तरह-तरह से उपभोक्‍ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भूमिका महत्‍वपूर्ण हो जाती है। दिवा-रात्री समाचार चैनल, एफ.एम. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ में बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्‍त शब्‍दों में पूरी रचनात्‍मकता वाली हिन्दी का ही बाज़ार है। इंटरनेट पर भी हिंदी का अभूतपूर्व विकास हो रहा है। इंटरनेट पर हिंदी की कई वेबसाइटें हैं। हिंदी के कई अख़बार नेट पर उपलब्ध हैं। कई साहित्यिक पत्रिकाएं नेट पर पढ़ी जा सकती हैं। हिंदी में ब्लॉग लेखक आज अच्छी रचनाएं दे रहें हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यमों का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ रहा है। यह देश की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के विकास का स्पष्ट संकेत देता है।

यह भी कहा जाता है कि बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से लोग आतंकित हैं। कुछ यह कहते मिल जाएंगे कि “हमें बाज़ार की हिंदी से नहीं बाज़ारू हिंदी से परहेज़ है।” उनका यह मानना है कि “ऐसी हिंदी -- भाषा को फूहड़ और संस्कारच्युत कर रही है। यह अत्यंत दुखद और संकीर्णता से भरी स्थिति है। यह मात्र पान-ठेले के लोगों की समझ में आने वाली भाषा मात्र बन कर रह जाएगी।” जिस बाज़ारू भाषा को बाज़ारवाद से ज़्यादा परहेज़ की चीज़ कहा जा रहा है वह वास्तव में कोई भाषा रूप ही नहीं है। कम से कम आज के मास कल्चर और मास मीडिया के जमाने में। आज अभिजात्य वर्ग की भाषा और आम आदमी और बाज़ारू भाषा का अंतर मिटा है। क्योंकि आम आदमी की गाली-गलौज वाली भाषा भी उसके अंतरतम की अभिव्यक्ति करने वाली यथार्थ भाषा मानी जाती है। उसके लिए साहित्य और मीडिया दोनों में जगह है, ब्लॉग पर भी। आज सुसंस्कृत होने की पहचान जनजीवन में आम इंसान के रूप में होने से मिलती है। दबे-कुचलों की जुबान बनने से मिलती है, गंवारू और बाज़ारू होने से मिलती है। यह हिन्दी उनकी ही भाषा में पान-ठेले वालों की भी बात करती है, और यह पान-ठेले वालों से भी बात करती है, और उनके दुख-दर्द को समझती और समझाती भी है। साथ ही उनमें नवचेतना जागृत करने का सतत प्रयास करती है। अत: यह आम आदमी की हिंदी है, बाज़ारू है तो क्या हुआ। बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है और जो बिकता है वही चलता भी है।

प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का होना चाहिए। तभी तो आज चक दे इंडिया हिट है।
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-- करण समस्तीपुरी
मैं आपसे इत्तेफाक तो रखता हूँ। फिर भी मुझे कुछ कहना है। संचार माध्यमों के विकास के साथ हिन्दी में भी आशातीत विकास हुआ है। आज मूलतः अहिन्दी-भाषी प्रदेशों में भी हिन्दी बोली और समझी जाती है तो इसमे संचार माध्यमों का योगदान ही है। अन्यथा हिन्दी को सुदृढ़ करने के मिशिनरी प्रयास तो आज भी हिन्दी दिवस, हिन्दी समारोह, हिन्दी संस्थान और राजभाषा विभाग तक ही सीमित हैं। पिछले कुछ दिनों से भारत के एक अहिंदीभाषी महानगर में रहते हुए मैं ये बात व्यवहारिक रूप से कह सकता हूँ। इस चर्चा में मैं इस क्षेत्र की स्थानीय भाषा एवं भाषिक सम्पदा व संस्कृति को पृथक करते हुए उन से इतर कहूँ तो यहाँ अखबार अब भी अंग्रेजी के आते हैं लेकिन घरों में छोटे परदे के कार्यक्रम हिन्दी में ही चलते हैं। 'सास-बहु' ने हिन्दी को 'जुबानी घर-घर की' बना दिया। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मेरी महिला सहकर्मी वहुधा 'बालिका-वधु' में 'कल क्या हुआ'पर चर्चा करती हुई मिल जाती हैं। तीन साल पहले तक कतरे हुए नारियल को 'खुजली वाला कोकोनेट' कहने वाले पिल्लई अब न केवल कामचलाऊ बल्कि हिन्दी के विभिन्न भाव और रस के संवाद भी निपुणता से बोल लेते हैं। इसके लिए जनाब धन्यवाद देते हैं मोबाइल फ़ोन पर आने वाले विज्ञापन कॉल का। यहाँ तक तो संचार माध्यम सच में धन्यवाद के पात्र हैं। हम उनसे 'अज्ञेय' वाली हिन्दी की उम्मीद रखें तो भूल हमारी ही है। हाँ, संचार माध्यमों को भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए असाधु भाषा के प्रसार से बचना चाहिए। 'पप्पू कैन'ट डांस तक तो ठीक है लेकिन आगे नही। जहाँ तक 'बाजार की हिन्दी' और 'बाजारू हिन्दी' की बात है तो मैं कहना चाहूँगा 'गुड खाए और गुलगुले से परहेज़'! इस बार चौपाल में इतना ही। धन्यवाद !!!
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बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

देसिल बयना - 3 : जग जीत लियो रे मोरी कानी....

-- करण समस्तीपुरी
हमारे मिथिलांचल में एक कहावत है,
'जग जीत लियो रे मोरी कानी !' हालांकि कहावत का आधा हिस्सा अभी बांकी है लेकिन वो मैं आपको देसिल बयना के इस कड़ी के अंत में कहूँगा। आईये पहले देखें कैसे बनी कहानी...

कमला घाट के एक गाँव में एक लड़की थी। कुलीन। सुशील। किंतु भगवान की माया.... एक दोष था बेचारी में। वो क्या था कि वो कानी थी। बोले तो उसकी एक आँख दबी हुई थी। तरुनाई पार कर के जैसे ही यौवन की देहरी पर पैर रखी, उसके माता-पिता को उसके विवाह की चिंता सालने लगी।

बेटी का ब्याह तो यूँ ही अश्वमेघ यज्ञ के बराबर। युवतियों के सर्वगुण संपन्न होने के बावजूद माँ-बाप को पता नही कितने पापर बेलने पड़ते हैं। नाकों चने चबाने पड़ते हैं। यह तो कानी ही थी। एक दूसरी कहावत भी है, "कानी की शादी मे इकहत्तर वाधा !"

बेचारी की डोली कैसे उठे। माँ-बाप रिश्तेदार सभी लगभग निराश हो चुके थे। लेकिन पंडित घरजोरे ने दूर तराई के गाँव में एक लड़का ढूंढ ही निकला। सगुण टीका हुआ। फिर निभरोस माँ बाप के द्वार पर बारात भी आई। लड़की के भाइयों ने पालकी से उतार कर दुल्हे को काँधे पर बिठा कर मंडप मे लाया। मंत्राचार, विधि-व्यवहार के बीच सिन्दूर-दान हुआ फिर बारी आई फेरों की। तभी पंडिताइन ने गीत की तान छेड़ी, "जग जीत लियो रे मोरी कानी...." लोग हक्का बक्का लेकिन बारात में आए चतुरी हजाम को बात भाँपते देर न लगी। उसने तुरत पंडिताइन के सुर में सुर मिलाया। पंडिताइन आलाप रही थी, "जग जीत लियो रे मोरी कानी !" अगली पंक्ति चतुरी हजाम ने जोड़ी, "वर ठाढ़ होए तो जानी !" अर्थात कन्या कानी है तो पंगु वर जब खड़ा होगा तब सच्चाई पता लगेगी न !!

क्या खूब जोरी मिलाई पंडित घरजोरे ने। कन्या कानी तो वर लंगड़ा। तभी से कहाबत बनी, "जग जीत लियो रे मोरी कानी ! वर ठाढ़ होए तो जानी !!" ये कहावत पंडिताइन सरीखे उन लोगों पे लागू होती है जो हमेशा अपना ही पलड़ा भारी समझते हैं। लेकिन जब उनके नहले पर दहला पड़ता है तब बरबस याद आ जाता है, "जग जीत लियो रे मोरी कानी! वर ठाढ़ होए तो जानी !!"

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

तुम्ही बताओ....

-- करण समस्तीपुरी

इस झूठे चक-मक मे सच का हर्ष कहाँ से लाऊं ?
तुम्ही बताओ बचपन के वो वर्ष कहाँ से लाऊं ??
जिन आंखों के मधुर स्वप्न पर,

मैंने किया सहज विश्वास !
आज उन्ही आँखों से कैसे,
बरस रहा निर्मम उपहास !
इस मिथ्या में सपनों का उत्कर्ष कहाँ से लाऊं ?
तुम्ही बताओ बचपन के वो वर्ष कहाँ से लाऊं ??

मेरा मूक निवेदन, हाये !
अंश मात्र भी समझ ना पाए !!
जब-जब अधर खुले मेरे,
तुम केवल कल्पित कथा बताये !
संप्रेषण के संकट मे विमर्श कहाँ से लाऊं ?
तुम्ही बताओ बचपन के वो वर्ष कहाँ से लाऊं ??

समय और सरिता की धारा,
आगे बढ़ती जाती !
आज सफलता चरण चूमती,
गीत मेरे है गाती !!
किन्तु सफलता में सच्चा संघर्ष कहाँ से लाऊं ?
तुम्ही बताओ बचपन के वो वर्ष कहाँ से लाऊं ??

गांधी और गांधीवाद

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

बंदी

-- --- मनोज कुमार

भोलू प्रतिदिन की भांति उस दिन भी अपने ईष्ट देव पर चढ़ाने के लिए फूल लेने घर से निकला था। आहाता पार कर सड़क के पास पहुंचा ही था कि उसे सड़क के इस पार काफी भीड़ दिखाई दी। उस पार फुटपाथ पर मालन बैठती है, जिससे वह फूल लेता है। उसका यह प्रतिदिन का नियम है। पर आज वह जाए तो कैसे जाए ? सड़क के किनारे की भीड़ तो रास्ता रोके खड़ी है ही ऊपर से पुलिस भी डंडा लिए लोगों को सड़क पार जाने नहीं दे रही है। भोलू ने वहां खड़े एक व्यक्ति से पूछा, “माज़रा क्या है...।” वह व्यक्ति भी थोड़ी ठिठोली करने के मूड में था, .... बोला “हमारे माई-बाप, मतलब...मेरे कहने का मंतरी जी आ रहें हैं। उहे से रास्ता रोक दिया गया है।” भोलू को लगा अब तो जब रास्ता साफ होगा तभी वह सड़क पार कर सकेगा। वह पास के चबूतरे पर बैठ गया। इंतज़ार करने लगा। थोड़ी देर बाद उसे सायरन की आवाज़ सुनाई देने लगी, फिर गाड़ियों का काफिला दिखा। सबसे आगे पुलिस की गाड़ी, बंदुकों से लैस जवान। फिर सफेद लाल बत्ती वाली गाड़ी। उसके पीछे फिर से पुलिस और बंदूक वाले जवानों की गाड़ियां। तेज़ी से चिल्ल-पों करते हुए काफिला गुज़र गया।
भोलू सड़क की ओर बढ़ा। पर भीड़ अभी-भी टस-से-मस नहीं हुई थी। पुलिस वाले अब भी लोगों को जाने नहीं दे रहे थे। भोलू ने फिर उसी, भीड़ और सारे माज़रे का मज़ा ले रहे व्यक्ति से पूछा, “अब क्या है...जाने क्यों नही दे रहे?” इस बार बग़ैर किसी ठिठोली के वह बोला, “एक दुर्दांत अपराधी पकड़ा गया है। उसने पूरे राज्य में तबाही मचा रखी थी। उसे ही अपराध शाखा के मुख्यालय ले जाया जा रहा है...।”
भोलू चबूतरे पर आकर खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद फिर सायरन, फिर पुलिस और बंदुकों से लैस जवान की गाड़ियां, फिर बरबख़्तबंद गाड़ी, उसके पीछे फिर से पुलिस और बंदूक वाले जवानों की गाड़ियां। भोलू को लगा फ़र्क सिर्फ लाल बत्ती के होने-न-होने का था। बांक़ी सब तो समान ही था।
.... काफिला गुज़र गया था। भीड़ छंट चुकी थी। रोड पर सन्नाटा पसरा था। सड़क के उस पार फुटपाथ पर मालन फूल की दुकान सजा चुकी थी। पर पता नहीं क्यों भोलू के मन पर एक अवसाद सा छाया था। वह अपने घर की तरफ लौट चला। सोच रहा था आज ईष्ट देव को बिना फूल-माला के ही पुजूंगा। ... ...

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शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

लोक आस्था का महापर्व छठ

--- मनोज कुमार
बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में महापर्व के नाम से प्रसिद्ध “छठ पर्व” श्रद्धा, विश्वास एवं आस्था के साथ मनाया जाता है। श्रद्धालुओं का मानना है कि छठ से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। वैसे तो कहावत है कि लोग उगते सूर्य की पूजा करते हैं, किन्तु इस पर्व में अस्त एवं उदय होते हुए दोनों रूपों में भगवान भास्कर की पूजा-अर्चना की जाती है। छठ का महापर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से शुरु हो जाता है।
चतुर्थी को छठ पूजा करने वाले छठव्रती, नहाए-खाय करते हैं। फिर पंचमी को खरना, जिसमें शाम के समय छठव्रती इष्टदेव की पूजा कर भोग आदि लगाते हैं। षष्ठी को डूबते हुए सूर्य को तालाब, पोखर या नदी में खड़े होकर अर्घ्य देकर विशेष प्रकार के प्रसाद ठेकुआ, खजुर, फल, आदि जिसमें गन्ने, नारियल आदि का विशेष महत्व है, चढ़ाया जाता है। सप्तमी को उगते सूर्य को अर्घ्य, नैवेद्य से पूजा की जाती है जिसे स्थानीय भाषा में हाथ उठाना कहते हैं। हाथों में नैवेद्य, नयनो में प्रतीक्षा, "उगा हो सुरुज देव अरघ के'र बेर...." और मन में अनुनय "ले हो न अरघ हमार हे छट्ठी मैय्या...!" इस व्रत का समापन सप्तमी को होता है।
चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व के प्रति श्रद्धालुओं में श्रद्धा के साथ उमंग व्याप्त रहता है। इस पर्व की एक और विशेषता जो क़ाबिले तारीफ़ है, वह है साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाना। कई जगह तो पूरा-का-पूरा शहर ही विशेष अभियान द्वारा साफ-सुथरा कर दिया जाता है। अन्यथा तालाब, पोखर या नदी के उन स्थलों की तो पूरी सफाई की ही जाती है जहां पर्व मनाने श्रद्धालु एकत्रित होते हैं।
छठ पर्व के अवसर पर मंगल गीत गाने का प्रचलन है। इन लोकगीतों की मिठास और संवेदना से इस पर्व की छटा और निखर जाती है। एक छठगीत आपके लिए प्रस्तुत
"केलबा के पात पर उगेलन सुरुजदेव झांके झुके ...


हे करेलू छठ बरतिया से झांके झुके... !


हम तोह से पूछीं बरतिया हे बरतिया से किनका लागी... ?


हम तोह से पूछीं बरतिया हे बरतिया से किनका लागी... ?


हे करेलू छठ बरतिया से किनका लागी .... ?


हमरो जे स्वामी तोहरे ऐसन स्वामी से हुनके लागी...


हे करेलू छठ बरतिया से हुनके लागी.... !!"


व्रती इस गीत में आगे बताती हैं कि वो छठ का महाव्रत अपने पति, पुत्र, घर एवं परिवार के लिए करती हैइस प्रकार यह मान्यता पुष्ट हो जाती है कि छठ महाव्रत के प्रसाद से धन, वैभव, संतान मान, यश और मोक्ष की प्राप्ति होती है। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार, जुए में सभ कुछ गंवा कर पांडव जब बनवास में थे, तभी दुर्योधन प्रेरित महर्षि दुर्वाषा पहुँच गए, पांडवों के पर्ण कुटीर। "अतिथिदेवो भवः !" परन्तु वनवासी याचक पांडव आतिथ्य धर्म का निर्वाह करें तो कैसे घर में अन्न का केवल के दाना और अठासी ब्रह्मन। धर्मसंकट। द्वार पर आये ब्रह्मन और असहाय पतियों को देख द्रौपदी ने भगवन कृष्ण को याद किया और भक्तवत्सल गोपाल के अनुग्रह से ब्रह्मणों का परितोष रखने में सफल रही। द्रौपदी की सेवा-निष्ठा से प्रसन्न महर्षि दुर्वाषा ने आशीष के साथ 'कार्तिक शुक्ल षष्ठी' को भगवान् भाष्कर का व्रत करने की सलाह दिया। द्रौपदी ने वन में ही उक्त तिथि को सूर्योपासना किया और छट्ठी मैय्या के प्रताप से एक वर्ष सफल अज्ञातवासोपरांत पांडवों को महाभारत युद्ध में विजय और खोया राज-पाट ऐश्वर्या व यश प्राप्त हुआ। तो ऐसी है भगवान् भुवन भाष्कर की महिमा और छठ महापर्व का महातम्य !!! बोलो छट्ठी मैय्या की जय !!!

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

त्याग पत्र

"शहर के कई सार्वजनिक महोत्सवों में उन्होंने अपने भाषण की मौलिकता और वक्पटुता से श्रोतागण को सदा ही मुग्ध किया है। किन्तु साहित्य और खासकर हिन्दी साहित्य से उन्हें दूर-दूर का संबंध नहीं था, सिवाय इसके कि उनकी होनेवाली अर्द्धांगिनी हिन्दी से स्नातकोत्तर कर चुकी थी और हिन्दी साहित्य पर उसका शोधग्रंथ पूरा हो चुका था।"
-- मनोज कुमार

धनाढ्य और प्रतिष्ठत परिवार है ठाकुर बचन सिंह का। उनकी इकलौती संतान बांके बिहारी अट्ठाइस वर्ष का हो चुका था। अपने पैरों पर खड़ा होने की जिद और घर में कुछ और सामान आ जाए तब विवाह करूंगा की इच्छा से उनका लड़का विवाह टालता रहा। ठाकुर जी ने बड़े चाव से उसे पढ़ाया था। अभियंता की पढ़ाई पूरी कर वह सी.पी.डब्ल्यू.डी. में लग भी गया था। अब पिछले एक वर्ष से वे बांके के लिये एक सुयोग्य कन्या ढ़ूंढ़ रहे थे। लड़के की इच्छा थी कि पढ़ी लिखी बहू हो। तिरहुत के उस क्षेत्र में अपनी जात बिरादरी की कोई कन्या जंचती नहीं थी उन्हें, जिसमें रूप और गुण दोनों विद्यमान हो। जब उन्होंने रघोपुर के गोवर्धन बाबू की कन्या के बारे में सुना तो उसे अपने घर की बहू बनाने के लिए लालायित हो गए। बांके से इसकी बात की तो वह भी झट राज़ी हो गया। क्यों न होता, एम.ए. पास शोधार्थी का प्रस्ताव उसके सामने था! दूर के एक रिश्तेदार से ठाकुर जी ने गोवर्धन बाबू के परिवार के बारे में अता-पता भी लगवा लिया था। उन्हें यह जोड़ी ख़ूब जम रही थी।
सी.पी.डब्ल्यू.डी. के अभियंताओं में सबसे रोचक, आकर्षक और अद्भुत व्यक्तित्व बांके बिहारी सिंह का था। सांवले, कद्दावर, मझोले कद, स्थूल काया, कुशाग्र बुद्धि का तेजस्। अंग-अंग में फूर्ति, हल्की और गंभीर बातें, सब जैसे जबान पर। ज़ोरदार, खनकदार हंसी। उनकी हंसी जब निकलती थी तो बेलगाम, बेतकल्लुफ़, हरपल आनन्द उठानेवाली होती थी। हिन्दी भाषा के प्रति कोई मोह माया या आस्था नहीं थी उनमें। हां, अंग्रेजी का बड़े ही फर्राटेदार प्रयोग वे किया करते थे। और उसमें शालीनता एवं मधुरता टपकती थी। हिन्दी साहित्य में उनकी कोई रुचि हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता था। अंग्रेजी में भाषण देने की कला में उन्हें प्रवीणता हासिल है। शहर के कई सार्वजनिक महोत्सवों में उन्होंने अपने भाषण की मौलिकता और वक्पटुता से श्रोतागण को सदा ही मुग्ध किया है। किन्तु साहित्य और खासकर हिन्दी साहित्य से उन्हें दूर-दूर का संबंध नहीं था, सिवाय इसके कि उनकी होनेवाली अर्द्धांगिनी हिन्दी से स्नातकोत्तर कर चुकी थी और हिन्दी साहित्य पर उसका शोधग्रंथ पूरा हो चुका था।
उनकी होनेवाली अर्द्धांगिनी का नाम रामदुलारी है। बचपन से ही उस पर पढ़ने और कुछ बनने की धुन सवार रही है। ग्रामीण वातावरण में उसने जीवन के शैशव काल बिताए। युवावस्था के द्वार पर भी पहला पग गांव में ही रखा। पर जीवन का सबसे परिवर्तनकारी समय तब आया जब उसने महाविद्यालय में पढ़ाई करने का मन बनाया। घर के सदस्यों की राय उसकी इच्छा के विपरित थी।
***** अगले अंक में जारी .....


[रामदुलारी आगे पढ़ पायी.... क्या संबंधो की बली बेदी पर चढ़ गए उसके सपने... चारदिवारी में कैद तो नही हुए उसके अरमान... ? पढने के लिए आते रहिये ! इसी ब्लॉग पर ]

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

कब टूटेगी ये बेरी !

नमस्कार मित्रों !

फिर जम गयी है चौपाल। आज चौपाल में हम बात करेंगे हमारी बेरियों की। बेरी जो कब से जकर रक्खी हमें। हमारी संस्कृति को। हमारी अभिव्यक्ती को। जी हाँ ! हम कर रहे हैं, भाषिक बेरी का। वो बेरी जिसमें आजादी के दशकों बाद भी हमारी रोज मर्रा की जिंदगी सिसक रही है॥ आख़िर कब तक करते रहेंगे हम विदेशी भाषा की गुलामी ? कुछ दोस्त दे रहे हैं चौपाल में अपनी बेबाक राय। आप भी चाहें तो टिपण्णी के माध्यम से इस बहस में शामिल हो सकते हैं। चौपाल में आपका स्वागत है॥


भारत सरकार के अधीनस्थ कार्यालयों में `ग` क्षेत्र के लिए 55 प्रतिशत हिंदी में पत्राचार करने का लक्ष्य है। ‘ग’ क्षेत्र यानी हिंदीतर भाषी क्षेत्र। ‘क’ और ‘ख’ क्षेत्र के लिए यह लक्ष्य और भी ज़्यादा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के प्रति केन्द्र सरकार के कार्यालयों में काम करने वाले अधिकारी और कर्मचारी कितने गंभीर हैं ? 1949 में केन्द्रीय सरकार द्वारा यह तय किया गया था कि सरकारी काम काज में हिंदी का उपयोग किया जाएगा, 60 वर्षों बाद कितने सफल हुए हैं, सबको पता है। और वे इसकी प्राप्ति के प्रति कितने समर्पित हैं – उनका दिल गवाही देगा।

कितने आश्‍चर्य की बात है कि विश्‍व में एकमात्र हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसमें शब्द जैसा लिखा जाता है, उसे, ठीक वैसा ही पढ़ा जाता है। भारत में यद्यपि प्रान्तीय भाषाओं का प्रचलन काफी अधिक है परन्तु पूरे देश में एकमात्र हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसे सभी प्रान्तों के लोग अच्छी तरह समझ और बोल पाते हैं। वैसे तो भारतीय साहित्य की प्रांजलता, विविधता में एकता और सरसता, भारतवर्ष जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में प्रचलित विभिन्न भाषाओं के अमूल्य योगदान में निहित है, फिर भी जन सामान्य द्वारा बोली, पढ़ी और लिखी जाने वाली भाषा हिन्दी को ही केन्द्रीय सरकार ने राजकाज की भाषा का दर्ज़ा प्रदान कर उसे एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है। राजभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के पीछे सबसे बड़ा कारण हिन्दी का सरल, सुबोध और प्रचलित होना था। केन्द्र सरकार के स्तर पर राजभाषा हिन्दी को सरकारी कामकाज में प्रचलित करने के लिए अब तक अनेक प्रयास किए जा चुके हैं। क्या ये प्रयास नाकाफ़ी हैं?

इसी से जुड़ा एक पहलू यह भी है कि जब एक विदेशी पॉप गायक दिवंगत होता है तो हम दुखी होते हैं, हमें लगता है यह अपूरनीय क्षति है। टीवी और अखबारों में वह प्रमुखता पाता है और उसकी मौत के कारणों पर घंटों बहस होती है। उसके पेट में दाने की जगह दवा / ड्रग्स हैं उस पर तवज्जो दी जाती है। हमारा दिल रोता है कि अब कौन हमें दिखाएगा मून वॉक। एक पहलू यह है। एक पहलू यह भी है कि जब कोई हबीब तनबीर हमसे दूर हो जाता है तो किसी अख़बार के कोने में थोड़ी सी जगह पाता है। क्योंकि वह आगरा बाज़ार के ककड़ी, मूली, तरबूज वालों के लिए लिखता था, क्योंकि वह चरनदास चोर की बात करता था।

स्वतंत्रता प्राप्ति के 63 वर्षों पश्‍चात् भी हिन्दी को वह दर्ज़ा नहीं मिल पाया है, जिसकी वह हक़दार है। इसके पीछे बड़ी बाधा है --- हमारी मानसिकता। हममें से अधिकांश व्यक्ति अंग्रेज़ी बोलने में गर्व महसूस करता है और हिन्दी बोलते समय उसे हीनता का अनुभव होता है। क्योंकि, हमारी दृष्टि में प्रत्येक विदेशी वस्तु श्रेष्ठ है, भले वह कोई उपभोक्ता सामग्री हो, पॉप गीत या फिर भाषा। पश्‍चिमी देशों की संस्कृति, भाषा, लोक-व्यवहार का अंधानुकरण करने में ही हमें आधुनिकता दिखाई देती है। आप आज के बच्चों से हिंदी में कुछ पूछिए तो जवाब अंग्रेजी में मिलेगा। यह एक सच्चाई है। मेट्रोशहरों में तो अभिजात्य वर्ण के लोग हिंदी का व्यवहार शायद तभी करते होंगे जब वे सब्जी ख़रीदने जाते होंगे।
मेंडरिन के बाद दुनिया भर में हिंदी सबसे ज़्यादा लोगों द्वारा बोली जाती है। इनमें भारतीय मूल के लोगों के अलावा विदेशी भी हैं। हिंदी बोलने वाले विदेशियों की संख्या 24 लाख से भी ज़्यादा है। हिंदी अब विश्‍वस्तरीय हो चुकी है। पश्चिम के लोगों में हिंदी पढ़ने और लिखने में दिलचस्पी काफी बढ़ी है। कैसी विडंबना है कि विदेशों में हिन्दी को विश्‍वभाषा का सम्मान प्राप्त है और भारत में उसे राजभाषा का सम्मान दिलाने के लिए कठोर नीतियां अपनानी पड़ती है। पश्‍चिमी देशों के लोग हिन्दी को अपनाकर भारत की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को जानना और समझना चाह रहे हैं और हम हैं कि विदेशी चकाचौंध के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे।
-- मनोज कुमार

तो आज की चौपाल में ये थे मनोज कुमार के शब्द। आगे परिचर्चा को जारी कर रहे हैं दिल्ली से युवा पत्रकार शुभाष चंद्र ॥



हम हिंदुस्तानी अपने धुरी से छिटकते जा रहे हैं। कभी सामाजिक स्तर पर, कभी सांस्कृति स्तर पर तो कभी भाषाई स्तर पर। अनेकता में एकता का दंभ भरने वाला हमारा समाज अपने इस अलगाव को कोई न कोई नाम दे ही देता है। अपनी सुविधा के लिए। भाषा के स्तर पर तो और भी। नतीजन ? हमारी नई पौध भाषाई स्तर पर हमारे संस्कारों से अलग दिख रही है। हिंदुस्तानी में हिंदी का 'के्रज' नहीं रह गया। कारण साफ है, रोजगार के अवसर। यही जबाव होंगे एक सौ में से नब्बे लोगों के ।
याद करना होगा नब्बे का दशक, जब भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक बाजार के लिए खोली गई। हमारे देश में संसाधन तो आए और साथ में भाषाई गुलामी की ओर हम बढ़ते गए। हर हिंंदुस्तानी को लगने लगा कि यदि अंग्रेजी नहीं सीखी तो गए काम से। बहुराष्टï्रीय कंपनियों में काम करने का यह अनिवार्य शर्त तो ठहरा। सो, दुर्दशा होती गई हिंदी साहित्य। कहीं न कहीं हम सभी लोग भी जिम्मेदार हैं। आज हम लोग भी अपने हिंदी भाषा के किसी भी स्रोत या साहित्य पर विश्वास नहीं करते हैं और अन्य पर जरूरत से ज्यादा। अगर विश्व के बडे बडे देश और संगठन हिंदी भाषा में काम कर रहे हैं और उसे मान्यता प्रदान कर रहे हैं तब अपने ही देश में अलग अलग प्रांतो में हिंदी पर इतना विवाद क्यों? सोचना हेागा। देश की राष्टभाषा होने के बावजूद इसके साथ किया जा रहा भेदभाव उचित नहीं है और सभी हिंदी प्रेमियों को इसके लिए सोचना होगा नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी को भी दोयम दर्जे की भाषा बना दिया जायेगा। यहां यह बताता चलूं कि केवल कहने-सुनने के लिए हिंदी हिंदुस्तान की राष्टभाषा है, जबकि भारतीय संविधान में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता।
विदेशी भाषा विशेषकर अंग्रेजी की महिमा के संदर्भ में स्मरण हो आता है यह कथन। छात्र-छात्राओं को पढ़ाई करते समय अपनी मातृभाषा के प्रति ध्यान देना चाहिए, लेकिन इसके साथ-साथ अंग्रेजी को भी काफी अहमियत देना चाहिए। क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस भाषा की अहमियत काफी है। यह बात पूर्व पुलिस महानिदेशक तथा ओडि़शा लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष गोपालचन्द्र नंद एक स्कूल के वार्षिक उत्सव के दौरान कही।
सच तो यही है कि हर भाषा अपने समाज का आईना होती है। जिस भाषा को बोलने वाले ही उसकी उपेक्षा करते हो, उसकी स्थिति बद से बदतर होती जाती है और यह बात हिंदी पर भी लागू होती है। भाषा में वर्तनी की अनेकरूपता आदि को एक हद तक स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन जब भाषा की अशुद्धियाँ अराजकता का रूप लेने लगे तो यह चिंता का विषय बन जाता है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हिंदी के ऐसे प्रयोग देखने को मिलते हैं जिन्हें देखकर गहरी निराशा होती है।
कुछ उदाहरण देखें :
... में हम समझ सकते हैं कि आप के बच्चे से आप कितना प्यार करते हैं, उससे कितनी उम्मीदें रखते हैं उनकी पूर्ती के लिए आप सारी जिम्मेदारियाँ हँसकर उठाते हैं. (आउटलुक के मार्च अंक में प्रकाशित एक विज्ञापन से)
उपर्युक्त वाक्य में 'आप के बच्चे के बदले 'आप अपने बच्चे लिखना चाहिए था। 'पूर्ती' की वर्तनी भी गलत है। सही वर्तनी है 'पूर्ति।
दरअसल, औपचारिक समारोह का प्रतीक बनकर रह गया है-हिन्दी दिवस, यानि चौदह सितम्बर का दिन। सरकारी संस्थानों में इस दिन हिन्दी की बदहाली पर मर्सिया पढऩे के लिए एक झूठ-मूठ की दिखावे वाली सक्रियता आती है। एक बार फिर वही ताम-झाम वाली प्रक्रिया बड़ी बेशर्मी के साथ दुहरायी जाती है। दिखावा करने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता है। कहीं 'हिन्दी दिवस मनता है, कहीं 'सप्ताह' तो कहीं 'पखवाड़ा'। भाषा के पंडित, राजनीतिज्ञ, बुद्विजीवी, नौकरशाह और लेखक सभी बढ़-चढ़कर इस समारोह में शामिल होकर भाषणबाजी करते हैं। मनोरंजन के लिए कवि सम्मेलन एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। पर्व-त्यौहार की तरह लोग इस दिवस को मनाते हैं। कहीं-कहीं तो इस खुशी के अवसर को यादगार बनाने के लिए शराब और शबाब का भी दौर चलता है। कुछ सरकारी सेवक पुरस्कार या प्रशस्ति पत्र पाकर अपने को जरूर कृतार्थ या कृतज्ञ महसूस करते हैं। खास करके राजभाषा विभाग से जुड़े लोग, कामकाज में हिन्दी को शत-प्रतिशत लागू करने की बात हर बार की तरह पूरे जोश-खरोश के साथ दोहराते हैं। सभी हिन्दी की दुर्दशा पर अपनी छाती पीटते हैं और चौदह सितम्बर की शाम खत्म होते ही सब-कुछ बिसरा देते हैं। आजादी से लेकर अब तक 'हिन्दी दिवस' इसी तरह से मनाया जा रहा है। दरअसल वार्षिक अनुष्ठान के कर्मकांड को सभी को पूरा करना है।
पर इस तरह के भव्य आयोजनों से क्या होगा ? क्या इससे हिन्दी का प्रचार -प्रसार होगा या हिन्दी को दिल से आत्मसात करने की जिजीविषा लोगों के मन-मस्तिष्क में पनपेगी ? हिन्दी की दशा - दिशा के बरक्स में यह कहना उचित होगा कि इस तरह के फालतू और दिशाहीन कवायदों से हिन्दी आगे बढऩे की बजाए, पीछे की ओर जायेगी।
अब समय की मांग यह है कि शासक वर्ग , नव धनाढ्य वर्ग , नौकरशाह, बाबू तबका, और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिन्दी विरोधी रवैयों को नेस्तनाबूद किया जाये और हिन्दी के विकास के लिए क्षेत्रीयता की भावना से उपर उठकर सभी भाषाओं के बीच समन्वय एवं संवाद कायम करते हुए राष्ट्रव्यापी सक्रियता के साथ मानसिक रुप से हिन्दी को स्वाधीन बनाया जाए। इस दिशा में आवश्यकता है, सरकार की ढृढ़ इच्छा शक्ति की। क्योंकि इस विषय पर उसी की भूमिका निर्णायक है। इसके अलावा सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक स्तर पर भी प्रयास करने की जरुरत है, अन्यथा प्रतिवर्ष 'हिन्दी दिवस' आयेगा और हम वही होंगे, जहाँ हैं।
-- शुभाष चंद्र
(लेखक 'प्रथम इम्पैक्ट' पत्रिका में वरिष्ठ संवाददाता हैं। पत्रकारिता के साथ साथ हिन्दी एवं मैथिलि साहित्य में भी सक्रीय हैं। http://dekhkabira.blogspot.com पर अपना ब्लॉग भी लिखते हैं। इनका ई-मेल पता है, subhashinmedia@gmail.com)

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

देसिल बयना -2 : जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे..

गंगा, कमला, बागमती, कोशी और गंडक के प्रसस्त अंचल तिरहुत में एक कहावत है, "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!" अब भी कहावत है तो यूँ ही नहीं है ! कैसे बनी कहावत... क्या है इसका मतलब... यह सब जानने के लिए आपको चलना पड़ेगा मेरे साथ रेवाखंड !
-- करण समस्तीपुरी


तिरहुत के गण्डकी पुर में एक मनोरम गाँव है, रेवाखंड ! उसी गाँव में एक किसान रहता है! उसने एक
कुत्ता और एक गधा पाल रक्खा था ! वो अपने जानवरों को बहुत प्यार करता था . जानवर भी अपने मालिक को बहुत चाहते थे. एक दिन किसान की घरवाली कुत्ते को खाना देना भूल गयी ! कुत्ता नाराज़ हो गया !

संयोग से उसी रात किसान के घर में कुछ चोर घुस आये ! पर नाराज़ कुत्ता बोला ही नहीं! गधे ने उसे भौंकने को कहा तो उसने जवाब दिया कि उसे खाना नहीं मिला है इसीलिए वह काम नहीं करेगा. लेकिन गधे ने सोचा, "अगर शोर नहीं किया तो मालिक के घर चोरी हो जायेगी. सो वह खुद जोर-जोर से ढेंचू ढेंचू करने लगा. दिन भर का थका मांदा किसान सो रहा था. बेचारा चिढ कर उठा और गधे को दे दना दन... दे दना दन... पीट दिया. गधा चुप हो गया.

सुबह किसान सो कर उठा तो घर का सारा सामान गायब पा कर उसे समझते देर न लगी कि रात गधा क्यूँ ढेंचू ढेंचू कर रहा था. लेकिन अब उसे गुस्सा कुत्ते पे आया ! अगर कुत्ते ने भौंका होता तो चोरी भी नहीं होती और बेचारे गधे को मार भी नहीं पड़ती ! गुस्से में बौखलाया किसान वही रात बाला डंडा उठाया और कुत्ते पर भी दोहरा बजा दिया. गधा समझ नहीं पाया लेकिन आप तो समझदार हो ! तो समझे कि नहि ??? अजी ! भौंकना कुत्ते का काम था लेकिन गधे ने वो किया इसीलिये उस पर डंडे बजे और कुत्ते ने गधे वाला काम किया इसीलिये उसे भी डंडे पड़े ! इसीलिए कहते हैं, “जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे” !! हा... हा... हा... … !!!

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

एक गहरी श्‍वांस लेकर

मित्रों !
आपका प्यार और आपकी प्रतिक्रया ही हमारी रचनात्मक ऊर्जा का संबल है। 'एक गहरी श्वांस ले कर' ब्लॉग जगत में आगे बढ़ने के लिए एक बार फिर हम तैयार हैं। प्रतीक्षा है आपके सहयोग और सुझाव की !

--- मनोज कुमार


एक गहरी श्वांस लेकर !

मैं अंधेरे में खड़ा था,
रोशनी की आस लेकर !

मिट गया गहन-तिमिर,
जल गया जब दीप कोई।
दे गया मोती धवल,

पड़ा तट पर सीप कोई।
उतर आए लो! सितारे झील में आकाश लेकर।
एक गहरी श्वांस लेकर !!


मन कहीं उलझा हुआ था,
मकड़ियों सा जाल बुनकर।
झँझड़ियों की राह आती,
स्वर्ण किरण एकाध चुनकर।
उठा गहरी नींद से मैं, इक नया विश्वास लेकर।
एक गहरी श्वांस लेकर !!


छोड़ दी बैसाखियाँ जब,
चरण ख़ुद चलने लगे।
हृदय में नव सृजन के
भाव फिर पलने लगे।
भावनाओं का उमड़ता, वेगमय उल्लास लेकर।
समय देहरी पर खड़ा है हाथ में मधुमास लेकर।
एक गहरी श्वांस लेकर !!

*** ***

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

रखवाला

लघुकथा

--- मनोज कुमार


सात वर्ष हो गए, दोनों अब भी द्वारका के उसी छोटे से फ्लैट में रहते हैं। शादी के कुछ ही दिनों के बाद गांव से पल्लवी के साथ वह आ गया था यहां रहने। दो बेडरूम का डीडीए फ्लैट है। मां और पिताजी गांव में ही रहते थे। सुख-चैन से। पिताजी के गुज़रने के बाद मां अकेले रह गई थी, पर वह दिल्ली के वजाए दुधबा गांव में ही रहना पसंद करती है। वहां की ताजी हवा और अड़ोस-पड़ोस के लोगों के साथ मिलना-जुलना, ... समय अच्छी तरह से कट जाता है। दिल्ली के उस घर में तो जीवन पिंजरे में क़ैद पंछी की तरह लगता था।


दोनों, हसबैंड-वाइफ, दिल्‍ली में जॉब करते हैं। ... वर्किंग कपल। सौरभ मां को हर महीने तीन हज़ार का चेक तो भेज ही दिया करता है, हां साल-दो-साल में एक-आध बार जाकर भेंट मुलाक़ात भी कर लिया करता है। दिल्ली में उनका गुज़ारा किसी तरह चल रहा है, पर ठीक-ठाक।


आज समस्या विकट हो गई है। ढ़ाई साल की निक्की की देखभाल के लिए जिस आया को रखा था, उसने काम छोड़ दिया है। पल्लवी को दफ़्तर से अधिक एबसेंट रहने पर नौकरी जाने का ख़तरा दिख रहा है। सौरभ ने सब तरफ हाथ पैर मार लिए पर कोई ढ़ंग की आया मिलती ही नहीं है। जो मिल भी रही है वह काफी पैसे मांग रही है। अफोर्ड करना मुश्किल है। पल्लवी ने उसे सलाह दी, “मांजी तो गांव में अकेले ही हैं। उन्हें बुला लो। निक्की की देखभाल, ... परवरिश भी हो जाएगी, मां का यहां मन भी लगा रहेगा”।


सौरभ ने मां को एसएमएस कर दिया, “मैं आ रहा हूं। तुम्हें लेने। तुम यहीं दिल्ली में हमारे साथ रहना। सोम को पहुंचूंगा। वापसी मंगल का है। तैयार रहना”।


... और शाम की गाड़ी से सौरभ गांव के लिए प्रस्थान कर गया। रास्ते में वह सोच रहा था... ‘अब हर महीने मां को तीन हज़ार का चेक नहीं भेजना पड़ेगा, ... साथ ही आया के तीन हज़ार भी बचेंगे’ ... ! !

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

शोधग्रंथ फुटपाथ पर

मित्रों हम ब्लॉग की दुनिया में नया-नया आए हैं। अभी एक महीना भी नहीं हुआ है। हमने सोम से शुक्र तक का ब्लॉग पर प्रकाशित करने का एक रुटीन बना लिया है। शनिवार-रविवार को फुर्सत में ... कुछ सोचने, कुछ रचने के लिए रखा है। कल के दिवाली के धूम-धड़ाके के बाद आज जब फुर्सत में बैठा तो अपनी एक पुरानी डायरी को उलटने-पलटने लगा। एक पन्ने पर नज़र रुक गई। एक घटना और उस पर मेरे उन दिनों के विचार थे। उसे ही प्रस्तुत कर रहा हूं। अगर सम-सामयिक लगे तो मेरा क़सूर नहीं। वैसे वाकया प्रंदह वर्ष पूर्व जनवरी 1994 का है।

--- मनोज कुमार

एक समाचार पत्र में प्रकाशित एक ख़वर पढ़कर मन व्यथित हो उठा है। खबर का शीर्षक है – “फुटपाथ पर बिकता शोधग्रंथ”। मुझे शोधार्थी के रूप में बिताए अपने दिन याद आ गए। हालाकि मैं अपना शोधग्रंथ लिख नहीं पाया। उस पर चर्चा फिर कभी। आज इस प्रकाशित समाचार की चर्चा कर लूं। समाचार से पता चला कि एसएम कॉलेज, भागलपुर की एक व्याख्याता-शोधार्थी का शोध प्रबंध, “हिस्ट्री ऑफ द फ्रिडम स्ट्रगल इन बिहार फ्राम 1912-1947” कलकत्ता के फुटपाथ पर कबाड़ी के पास था। वहां से एक सज्जन इसे ख़रीदकर शोधार्थी तक वापस पहुंचाने का पुनीत काम करना चाह रहे हैं। आशंका यह जताई जा रही है कि या तो यह ग्रंथ शोधार्थी के यहां से अनजाने में बिक गया, या चोरी हुआ या फिर किसी अधिकारी, जिसे वह शोधग्रंथ दिखाया गया, उसके हाथ से होता हुआ कबाड़ी तक पहुंचा।
इस शोधग्रंथ में बिहार का 1947 तक का इतिहास है, उसके बाद का वर्तमान नहीं। बिहार का 1947 के बाद से आज तक का जो वर्तमान है, वह उस शोधग्रंथ के शोधार्थी की लाइब्रेरी से फुटपाथ तक पहुंच जाने के यथार्थ में दिखाई देता है। यदि यह ग्रंथ व्याख्याता-शोधार्थी के यहां से गाएब हुआ है, तो उसमें उसकी किसी विवशता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार के कॉलेजों का जो हाल है उसमें शिक्षकों को महीनों वेतन नहीं मिलता, उस पर से शोध कर्य के संपादन में काफी व्यय आता है, ऐसे में यदि किसी आर्थिक मज़बूरी ने इस शोधार्थी को अपना शोध प्रबंध बेच देने पर विवश किया हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जहां तक चोरी वाली संभावना की बात है, तो जिस राज्य में साल भर में 25-30 हज़ार चोरियों के मामले दर्ज़ होते हों, वहां इस एक ग्रंथ की चोरी कोई अनहोनी नहीं है। अगर ग़ौर किया जाए तो यह बड़ा साधारण सा मामला लगता है। चोर ने फक्कड़ व्याख्याता के घर हाथ डाला होगा और कुछ खास क्या कुछ भी न पा पुस्तकों पर ही हाथ साफ कर लिया होगा। उनमें यह शोधग्रंथ भी रहा होगा। अब पुस्तकें भला उसके किस काम की। बेच डाला होगा कब्बाड़ी के हाथ।
बिहार में शिक्षा का क्षेत्र भारी उपेक्षा का शिकार रहा है। शिक्षक, छात्र, अभिभावक, गैर शिक्षक कर्मचारी, सभी एक या दूसरे प्रकार के शोषण के शिकार हैं और उनमें व्यापक असंतोष फैला हुआ है। इसी उपेक्षा के कारण से, यद्यपि शोधग्रंथ लिखे तो जाते हैं, फिर भी उसे सहेज कर, संभालकर, उसकी उचित इज़्ज़त नहीं की जाती। शोधग्रंथ कबाड़ी तक कैसै पहुंचा, यदि इस पर ही कोई शोध करे तो उसके प्रबंध में जब इसके कारणों पर प्रकाश डाला जाएगा तो सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व समाजशास्त्रीय कारणों की व्याख्या ज़रूर होगी। बिहार का सामाजिक परिवेश ऐसा है कि सामंती प्रवृत्तियां आज भी बरकरार हैं और शोधार्थी अपने मार्गदर्शक के चंगुल में ऐसा फंसता है कि कौन सा कर्म नहीं करना पड़ता ? आर्थिक दृष्टि से बिहार सबसे पिछड़ा तो है ही, इस राज्य के शोधार्थी की भी, काफी खर्चीले हो चुके शोधकार्य को पूरा करने में, कमर ही टूट जाती है। और राजनीति ने तो यहां सब चौपट कर दिया है। शिक्षा के क्षेत्र का भी भरपूर राजनीतिकरण हो चुका है, जिससे रही-सही कसर भी पूरी हो गई है। यदि शोधग्रंथ के फुटपाथ पर पहुंचने के कारण की समाजशास्त्रीय व्याख्या की जाए तो हम पाएंगे कि बिहार में धर्म समाज सुधारक आंदोलन (रेनेसां) काफी देरी से आया और वह यहां के संदर्भ मे आज भी अधूरा ही है। नतीजा यह है कि बिहार पिछड़ा का पिछड़ा ही रह गया और इसी लिए उसके जन्म से लेकर देश की आज़ादी पाने तक के इतिहास के ऊपर लिखा शोध प्रबंध फुटपाथ पर कबाड़ी के पास पड़ा होता है। धन्यवाद ब्लॉग !!! कम से कम फुर्सत में.... मेरी गप्पबाजी तो कबाड़ में नहीं ही जायेगी !!! क्या कहते हैं आप ??

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

दीपावली तेरा अभिनंदन !!


तोड़ कर तम के सारे बंधन,
आ .. दीपावली तेरा अभिनंदन !!

तिमिर घृणा का नहीं हो,
हर ह्रदय मे बस ख़ुशी हो।
हो चतुर्दिक शांति और शुभ,
प्यार में नित समृद्धि हो।

फिर तेरा करूं मैं वंदन !
दीपावली तेरा अभिनंदन !!

घिसी पिटी बेमानी रस्में,
भारत से उठ जाएं बिलकुल।
जाति-धर्म का भेद मिटा कर,
रहें देश में हम सब मिलजुल।।

तब तेरा हो शुभ नीराजन।

दीपावली तेरा अभिनंदन !!

दूर हो जग की मलिनता,
आओ मन ऐसे बुहारें।
सीख सद्गुण रह सरल चित्त,
उर से दुर्गुण को बिसारें॥

पुष्पांजलि तब करूं मैं अर्पण।
दीपावली तेरा अभिनंदन !!


दीपोत्सव की शुभ-कामनाएं
- मनोज कुमार

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

आओ दीप जलायें आली !

नमस्कार मित्रों,

ज्योति-पर्व पर अपनी एक पुरानी रचना ले कर आपकी सेवा में उपस्थित हूँ! पूर्व मे यह कविता हिंद युग्म पर प्रकाशित हो चुकी है! काव्य-पथ पर निरंतर अग्रसर होने के लिए आपका प्रोत्साहन और मार्ग-दर्शन अपेक्षित है! दीया-बाती की शुभ कामनाओं के साथ,

- करण समस्तीपुरी
आओ दीप जलायें आली !
खुशियाँ ले कर आयी दिवाली !!
सब पर्वों में प्रिय पर्व यह,
इसकी तो है बात निराली !
आओ दीप जालायें आली !!

बंदनवार लगे हैं घर-घर !
रात सजी है दुल्हन बन कर !!
दीपक जलते जग-मग-जग-मग !
रात चमकती चक-मक-चक-मक !!
झिल-मिल दीपक की पांति से,
रहा न कोई कोना खाली !
आओ दीप जलायें आली !!

दादू लाये बहुत मिठाई,
लेकिन दादी हुक्म सुनाई !!
पूजा से पहले मत खाना,
वरना होगी बड़ी पिटाई !
मोजो कहाँ मानने वाली,
छुप के एक मिठाई खा ली !
आओ दीप जालायें आली !!

अब देखें आँगन में क्या है,
अरे यहाँ तो बड़ा मजा है !
भाभी सजा रही रंगोली !
उठ कर के भैय्या से बोली,
सुनते हो जी ! किधर गए ?
ले आओ दीपक की थाली !
आओ दीप जलायें आली !!

अवनी एक पटाखा छोड़ी !
आद्या डर कर घर में दौड़ी !!
झट पापा ने गोद उठाया!
बड़े प्यार से उसे बुझाया !!
देखो कितने दीप जले हैं !
एक दूजे से गले मिले हैं !!
नन्हें दीपक ने मिल जुल कर,
रोशन कर दी रजनी काली !!
आओ दीप जालायें आली !!

-:शुभ दीपावली:-

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

"हजारों साल नर्गिस अपनी बेनुरी पे रोती है !

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर कोई पैदा !!"

पश्चिम बंगाल के छोटे से जिले मिदने पुर में जन्म लेकर साहित्याकाश में शुभ्र नक्षत्र की भाँती दीप्त निराला की संवेदना का क्षेत्र इतना विशाल था कि इसमे एक तरफ़ उनकी प्यारी पुत्री रोज है तो दूसरी तरफ चतुरी चमार। जिन आंखों से वे जूही की कली देखते हैं उन्ही से उन्हें 'वह तोड़ती पत्थर' दिखाई देती है। निराला सच्चे अर्थों में महामानाव थे। निर्बंध छंद के पुरोधा और कल्प्लोक में विचरण करने वाली कविता कामिनी को 'कुकुरमुत्ते' के आँगन में उतारने का श्रेय भी निराला को ही है। काव्य में शब्दालंकार को गौण कर नाद सौंदर्य की प्रतिष्ठा निराला के अहम् योगदानों में से एक है। आईये इस महाकवि की पुण्यतिथि पर हम भी श्रद्धा के दो फूल अर्पण करें।
- मनोज कुमार

महाकवि सूर्यकांतत्रिपाठी निराला का जन्‍म पश्चिमी बंगाल के मेदिनीपुर ज़िले के महिषादल रियासत में 21 फरवरी, 1899 को हुआ था। मूलतः वे उत्तर प्रदेश के उन्‍नाव जिले के बांसवाड़ा जनपद के रहने वाले थे पर बंगाल उनकी कर्मभूमि थी। निराला की आरंभिक शिक्षा महिषादल में ही हुई थी। निराला का बंगाल से जितना गहरा संबंध था, उतना ही अंतरंग संबंध बांसवाड़ा से भी था। इन दोनों संबंधों को जो नहीं समझेगा वह निराला की मूल संवेदना को नहीं समझ सकता। इन दो पृष्‍ठभूमियों की अलग-अलग प्रकार के सांस्‍कृतिक परिवेश का उनके व्‍यक्तित्‍व पर गहरा असर पड़ा जिसका स्‍पष्‍ट प्रभाव हम उनकी रचनाओं में भी पाते हैं, जब वे बादल को एक ही पंक्ति में कोमल गर्जन करने हेतु कहते हैं, वहीं वे दूसरी ओर घनघोर गरज का भी निवेदन करते हैं।
“झूम-झूम मृद गरज-गरज घन घोर!
राग अमर! अम्‍बर में भर निज रोज !”

निराला ने बंगाल की भाषिक संस्‍कृति को आत्‍मसात किया था। उन्‍होंने संस्‍कृत तथा अंग्रेजी घर पर सीखी। बंगाल में रहने के कारण उनका बंगला पर असाधारण अधिकार था। उन्‍होंने हिंदी भाषा ‘सरस्‍वती’ और ‘मर्यादा’ पत्रिकाओं से सीखी। रवीन्‍द्र नाथ ठाकुर, नजरूल इस्‍लाम, स्‍वामी विवेकानंद, चंडीदास और तुलसी दास के तत्‍वों के मेल से जो व्‍यक्तित्‍व बनता है, वह निराला है।
चौदह वर्ष की आयु में उनका विवाह संपन्‍न हो गया। उनका वैवाहिक जीवन सुखी नहीं रहा। युवावस्‍था में ही उनकी पत्नी की अकाल मृत्‍यु हो गई। उन्‍होंने जीवन में मृत्‍यु बड़ी निकटता से देखी। पत्नी की मृत्यु के पश्‍चात् पिता, चाचा और चचेरे भाई, एक-के-बाद-एक उनका साथ छोड़ चल बसे। काल के क्रूर पंजो की हद तो तब हुई जब उनकी पुत्री सरोज भी काल के गाल में समा गई। उनका कवि हृदय गहन वेदना से टूक-टूक हो गया।
निराला ने नीलकंठ की तरह विष पीकर अमृत का सृजन किया। जीवन पर्यन्‍त स्‍नेह के संघर्ष में जूझते-जूझते 15 अक्तूबर 1861 में उनका देहावसान हो गया।
निराला जी छायावाद के आधार-स्‍तम्‍भों में से एक हैं। गहन ज्ञान प्रतिभा से उन्‍होंने हिंदी को उपर बढ़ाया। वे किसी वैचारिक खूंटे से नहीं बंधे। वे स्‍वतंत्र विचारों वाले कवि हैं। विद्रोह के पुराने मुहावरे को उन्‍होंने तोड़ा वे आधुनिक काव्‍य आंदोलन के शीर्ष व्‍यक्ति थे। सौंदर्य के साथ ही विद्रूपताओं को भी उन्‍होंने स्‍थान दिया। निराला की कविताओं में आशा व विश्‍वास के साथ अभाव व विद्रोह का परस्‍पर विरोधी स्‍वर देखने को मिलता है।

उन्‍होंने प्रारंभ में प्रेम, प्रकृति-चित्रण तथा रहस्‍यवाद से संबधित कविताएं लिखी। बाद में वे प्रगतिवाद की ओर मुड़ गए। आधुनिक प्रणयानुभूति की बारीकियां निराला की इन पंक्तियों से झलकती हैं
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय संभाषण,
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन।
पर विद्रोही स्वभाव वाले निराला ने अपनी रचनाओं में प्रेम के रास्ते में बाधा उत्पन्न करने वाले जाति भेद को भी तोड़ने का प्रयास किया है। “पंचवटी प्रसंग” में निराला के आत्म प्रसार की अकांक्षा उभर कर सामने आई है।
"छोटे-से घर की लघु सीमा में
बंधे हैं क्षुद्र भाव
यह सच है प्रिये
प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है
सदा ही निःसीम भू पर ॥ "

प्रगतिवादी साहित्‍य के अंतर्गत उन्‍होंने शोषकों के विरूद्ध क्रांति का बिगुल बजा दिया। “जागो फिर एक बार”, “महाराज शिवाजी का पत्र”, “झींगुर डटकर बोला”, “महँगू महँगा रहा” आदि कविताओं में शोषण के विरूद्ध जोरदार आवाज सुनाई देती है। “विधवा” “भिक्षुक” और “वह तोड़ती पत्‍थर” आदि कविताओं में उन्‍होंने शोषितों के प्रति करूणा प्रकट की है। निराला के काव्‍य का विषय जहां एक तरफ श्री राम है वहीं दूसरी तरफ दरिद्रनारायण भी।
वह आता-
"दो टूक कलेजे के करता, पछताता
पथ पर आता । ......
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए ।
"
जहों एक ओर जागो फिर एक बार कविता के द्वारा निराला ने आत्म गौरव का भाव जगाया है वहीं दूसरी ओर निराला ने विधवा को इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी पवित्र कहा है।
उनकी प्रकृति संबंधी कविताएं अत्‍यंत सुंदर और प्रभावशाली हैं। निराला की सांध्य सुंदरी जब मेघमय आसमानसे धीरे-धीरे उतरती है तो प्रकृति की शांति, नीरवता और शिथिलता का अनुभव होता है। वहीं उनकी “बादल राग” कविता में क्रांति का स्‍वर गूंजा है।
“अरे वर्ष के हर्ष !
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको,
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-गौरव संसार!
उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल-
चल रे चल-”
निराला ने भाव के अनुसार शिल्‍प में भी क्रांति की। उन्‍होंने परंपरागत छंदो को तोड़ा तथा छंदमुक्‍त कविताओं की रचना की। पहले उनका बहुत विरोध हुआ। परंतु बाद में हिंदी साहित्‍य मानों उनकी पथागामिनी हुई। भाषा के कुशल प्रयोग से ध्‍वनियों के बिंब उठा देने में वे कुशल हैं।
“धँसता दलदल
हँसता है नद खल् खल्
बहता कहता कुलकुल कलकल कलकल ”
उनका भाषा प्रवाह दर्शनीय है। उनकी अनेक कविताओं के पद्यांश शास्‍त्रीय संगीत और तबले पर पड़ने वाली थाप जैसा संगीतमय हैं। भाषा अवश्‍य संस्‍कृतनिष्‍ठ तथा समय-प्रधान होती है। पर कविता का स्‍वर ओजस्‍वी होता है। निराल के साहित्‍य में कहीं भी बेसुरा राग नहीं है। उनके व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व में कोई भी अंतरविरोध नहीं है। निराला जी एक-एक शब्‍द को सावधानी से गढते थे वे प्रत्‍येक शब्‍द के संगीत और व्‍यंजना का पूरा ध्‍यान रखते थे।
बंगाल की काव्‍य परंपरा का उन पर प्रभाव है। निराला में संगीत के जो छंद हैं, वे किसी अन्‍य आधुनिक कवि में नहीं है। वे हमारे जीवन के निजी कवि हैं। हमारे दुःख-सुख में पग-पग पर साथ चलने वाले कवि हैं। वे अंतरसंघर्ष, अंतरवेदना, अतंरविरोध के कवि हैं। बादल निराला के व्‍यक्तित्‍व का प्रतीक है जो दूसरों के लिए बरसता है।
आंचलिक का सर्वाधिक पुट निराला की रचनाओं में मिलता है, जबकि इसके लिए विज्ञप्‍त हैं फणीश्‍वर नाथ रेणु। सर्वप्रथम आंचलिकता को कविता व कहानी में स्‍थान देने का श्रेय भी निराला को ही दिया जा सकता है। निराला की रचनाओं में बंगला के स्‍थानीय शब्‍दों के अलावा “बांसवाड़ा” के शब्‍द भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आंचलिकता के जरिए उन्‍होंने हिंदी की शब्‍द शक्ति बढ़ाई।
निराला की मूल संवेदना राम को ही संवेदना हैं। डा. कृष्‍ण बिहारी मिश्र का कहना है कि “निराला के समग्र व्‍यक्तित्‍व को देखें तो निराला भारतीय आर्य परंपरा के आधुनिक प्रतिबिंब नजर आएंगे। ” आज जब संवेदना की खरीद-फरोख्‍त हो रही है , बाजार संस्‍कृति अपने पंजे बढ़ा रही है, ऐसे समय महाप्राण निराला की वही हुंकार चेतना का संचार कर सकती है।
“आज सभ्‍यता के वैज्ञानिक जड़ विकास पर गर्वित विश्‍व
नष्‍ट होने की ओर अग्रसर.........
"फूटे शत-शत उत्‍स सहज मानवता-जल के
यहां-वहां पृथ्‍वी के सब देशों में छलके..... ”

निराला के व्‍यक्तित्‍व में ईमानदारी व विलक्षण सजगता साफ झलकती थी। जो भी व्‍यक्ति ईमानदार होगा, उसकी नियति भी निराला जैसी ही होगी। उनमें वह दुर्लभ तेज था, जो उनके समकालीन किसी अन्‍य कवि में नहीं दिखता। निराला ने अपने जीवन को दीपक बनाया था, वे अंधकार के विरूद्ध आजीवन लाड़ने वाले व्‍यक्ति थे। निराला ने कभी सर नहीं झुकाया, वे सर ऊँचा करके कविता करते थे। तभी उनका कुकुरमत्ता गुलाब को फटकार लगाने की हैसियत रखता है।
“सुन बे गुलाब !
पाई तूने खुशबू-ओ-आब !
चूस खून खाद का अशिष्‍ट
डाल से तना हुआ है कैप्‍टलिस्‍ट !"

वे अनलक्षितों के कवि थे ।
“वह तोड़ती पत्‍थड़
इलाहाबाद के पथ पर ।”

निराला की दृष्टि वहां गयी जहां उनके पहले किसी की दृष्टि नहीं पहुंची थी। सरोज स्मृति में जिस वात्सल्य भाव का चित्रण हुआ है वह कहीं और नहीं मिलता। निराला ने अपनी पुत्री सरोज की स्मृति में शोकगीत लिखा और उसमें निजी जीवन की अनेक बातें साफ-साफ कह डाली। मुक्त छंद की रचनाओं का लौटाया जाना, विरोधियों के शाब्दिक प्रहार, मातृहीन लड़की की ननिहाल में पालन-पोषण, दूसरे विवाह के लिए निरंतर आते हुए प्रस्ताव और उन्हें ठुकराना, सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए एक दम नए ढ़ंग से कन्या का विवाह करना, उचित दवा-दारू के अभाव में सरोज का देहावसान और उस पर कवि का शोकोद्गार। कविता क्या है पूरी आत्मकथा है। यहां केवल आत्मकथा नहीं है, बल्कि अपनी कहानी के माध्यम से एक-एक कर सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया गया है।
"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद
इके कर कन्या, अर्थ खेद,
यह निराला ही हैं, जो तमाम रूढ़ियों को चुनौती देते हुए अपनी सद्यः परिणीता कन्या के रूप का खुलकर वर्णन करते हैं और यह कहना नहीं भूलते कि ‘पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची!’ । है किसी में इतना साहस और संयम।
चुनौती देना और स्वीकार करना निराला की विशेषता थी। विराट के उपासक निराला की रचनाओं में असीम-प्रेम के रहस्यवाद की भावना विराट प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होती है। निराला के साहित्‍य में गहरी अध्यात्‍म चेतना, वेदांत, शाक्‍त, वैष्‍णवधारा का पूर्ण समावेश है । जीवन की समस्‍त जिज्ञासाओं को निराला ने एक व्‍यावहारिक परिणति दी। एक द्रष्‍टा कवि की हैसियत से निराला ने मंत्र काव्‍य की रचना की है। विराट के उपासक निराला की रचनाओं में असीम-प्रेम के रहस्यवाद की भावना विराट प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होती है। निराला के जीवन में अपने व्‍यक्तिगत दुःख तो सहे ही, उन्‍होंने दूसरों के दुःखों को भी सहा। वे दूसरों की पीड़ाओं से स्‍वयं दुःखी हुए। इसलिए संसार-भर की व्‍यथाओं ने उन्‍हें तोड़ डाला। वे अपनी पीड़ाओं से अधिक दूसरों की पीड़ाओं से व्‍यथित थे। वे केवल महान साहित्‍यकार ही हनहीं थे, वे उससे भी बड़े मनुष्‍य थे। उनकी मानवता कला से ऊपर थी। वे कला और साहित्‍य का चाहे सम्‍मान न करें , किंतु मानवता का अवश्‍य सम्‍मान करते थे। उनकी महानता इस बात में थी कि वे छोटों का खूब सम्‍मान करते थे। उनका कहना था कि गुलाम भारत में सब शुद्र हैं। कोई ब्राह्मण नहीं है। सब समान हैं। यहां ऊंच नीच का भेद करना बेकार है। हमें जाति के आधार पर ऊँचा कहलाने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उनके इन्‍ही विचारों के कारण भारत के परंपरावादी, जातीवादी, ब्राह्मणवादी लोग उनसे चिढ़ते थे। वे निराला को धर्म-भ्रष्‍टक मानते थे। परंतु दूसरी ओर, गरीब किसान और अछूत माने जाने वाले लोग उन्‍हें बहुत चाहते थे। उनकी सरलता के कारण जहां पुराणपंथी उनसे कटते थे, वहीं गरीब किसान और अछूत उन पर जान देते थे। वे चतुरी चमार के लड़के को घर पर पढ़ाते थे। इसी प्रकार वे फुटपाथ के पास बैठी पगली भिखारिन से बहुत सहानुभूति रखते थे।
जैसे गांधीजी में कहीं बेसुरापन नहीं मिलता वैसे ही साहित्‍य के क्षेत्र में निराला में भी कहीं बेसुरापन नहीं था। जिन्‍हें भारतीय धर्म, दर्शन व साहित्‍य का पता है वह निराला को समझ सकते हैं। मनुष्‍य को नष्‍ट तो किया जा सकता है किन्‍तु पराजित नहीं किया जा सकता। निराला के साहित्‍य में हमें यही संदेश मिलता है। वे हिंदी साहित्‍य प्रेमियों के हृदय सम्राट हैं। वे बड़े साहित्‍यकार अवश्‍य थे,‍ किंतु उससे भी बड़े मनुष्‍य थे।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

देसिल बयना - 1 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !'

कवि कोकिल विद्यापति के लेखिनी की बानगी, "देसिल बयना सब जन मिट्ठा !" दोस्तों हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहा हूँ। प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी !!

- करण समस्तीपुरी



आइये, आज मैं आपको लिए चलता हूँ वृंदा-वन ! ये कहानी है, राधा-कृष्ण और व्रज-वनिताओं की। कृष्ण तो अपनी मधुर रास लीला के लिए प्रसिद्ध हैं ही ! गोकुल के ग्वाल बाल और बालाओं को कृष्ण से बहुत प्यार था। कृष्ण भी इन के साथ गोकुल की गलियों में खूब धूम मचाते थे। हाँ तो मैं कह रहा था कि इधर श्री कृष्ण अपने बाल सखाओं सहित गो चारण को जाते थे, उधर से व्रज बालाएं पानी भरने या दही बेचने के बहाने चल पड़ती थीं यमुना तट। फिर कालिंदी के कूल कदम्ब के डारन और हरे भरे वृन्दावन में शुरू होती थी गोपी-किशन की अलौकिक रास लीला। गोपियाँ कृष्ण- प्रेम की बावली थी। और राधा तो सबसे ज्यादा। कृष्ण भी राधा से उतना ही प्यार करते थे। पीताम्बर धारी सांवरे जैसे ही अपने अरुण अधर से हरित बांस की बांसुरी लगाते थे तो "इन्द्रधनुष दुति" हो जाती थी। इतना प्रकाश होता था मानो
नौ मन घी के दिए जल रहे हों। फिर क्या मुरली की मनोहर धुन एवं दिव्य प्रकाश में गोपियाँ सुध-बुध बिसरा कर नाचने लगती थी। किंतु एक दिन ऐसा आ ही गया, जब कृष्ण को अपने जन्म का हेतु पूरा करने जाना पड़ा मथुरा.... !! गोकुल की गलियाँ सूनी। वृन्दावन में पतझर। यमुना का जल उष्ण। मनुष्य तो मनुष्य गायें भी बेहाल। अतिमलीन वृषभानु कुमारी राधा तो आधा भी नही रही। चन्द्रवदनी का हँसना बोलना सब बंद। सब तो सामान्य हुए या होने की कोशिश करते रहे। लेकिन राधा बेचारी क्या करे? सबो ने समझाया लेकिन राधा नाचे कैसे... ? उसमे तो नृत्य की ऊर्जा आती है श्री कृष्ण के वेनुवादन से निःसृत प्रकाश से। अन्यथा उतने प्रकाश के लिए नौ मन घी के दिए जलाने पड़ेंगे। इसीलिये लोग कहने लगे “न राधा को नौ मन घी होगा, न राधा नाचेगी ” !!! कालांतर में उक्ति किसी कार्य के लिए अपर्याप्त सामर्थ्य या संसाधनहीनता के लिए रूढ़ हो गयी।

मैं भी सोच रहा था किताब निकाल कर ही आप को ये बात बताऊँ। लेकिन फिर सोचा कि "न राधा को नौ मन घी होगा न राधा नाचेगी।" सो ब्लॉग पर ही ले कर आ गया॥

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

ठहाके

"इक्कीसवीं सदी की घोर भौतिकता में हम कितने लाचार हो गए हैं कि सहज मानवीय संवेदनाओं को भी तराजू में तौल रहे हैं। उर के उदगार भी बाज़ार के मोहताज हैं ! पढिये एक अभिव्यक्ति !!"

-- मनोज कुमार


शर्माजी और वर्माजी में गहरी दोस्ती है। दोनों एक साथ एक ही दफ़्तर में काम करते थे। तीन दशक से भी अधिक की नौकरी करने के बाद दोनों एक साथ ही दो वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हुए। उनकी मित्रता आज भी यथावत बनी हुई है। वे रोज़ मॉर्निंग वाक के लिए साथ ही जाते हैं। घर के समीप ही एक पार्क है, गोल्डन पार्क। प्रतिदिन उस पार्क में गप-शप करते, हँसी-ठहाके लगाते हुए वे सैर करते हैं और टहलना सबसे अच्छा व्यायाम है को चरितार्थ करते हैं। पार्क के कोने में लाफ्टर क्लब के कुछ सदस्य एकत्रित होते हैं। शर्माजी-वर्माजी को यह क्लब रास नहीं आता। ‘इस अर्टिफिशियल हँसी के लिए कौन इसका सदस्य बने। हम तो नेचुरल ठहाके लगाते ही हैं।’


उस दिन पार्क के कोने वाले हिस्से से गुज़रते हुए उन्हें ठहाकों की आवाज़ सुनाई नहीं दी। विस्मय हुआ। शर्माजी ने वर्माजी से पूछा, “बंधु, इन्हें क्या हुआ? आज इनके ठहाके नहीं गूंज रहे !”


वर्माजी ने कहा, “रेसेशन का दौर है। मंहगाई आसमान छू रही है।”
शर्माजी ने कहा, “उसका ठहाकों से क्या लेना देना?”


वर्माजी ने समझाया, “शर्माजी ये नया युग है। हमारा ज़माना थोड़े ही रहा। हम तो फाकामस्ती में भी ठहाके लगाते रहें हैं। आज तो हर चीज़ में कटौती करनी पड़ रही है। लोग अब ठहाकों की जगह छोटी सी मुस्कान से ही काम चला ले रहें हैं।”
*** *** ***

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

स्लम का मिल्‍यनेयर

--- --- मनोज कुमार
वो हमें
स्लम में रहने वाला
डॉग बता कर
मिलियन में कमा रहें हैं।
और हमें
मिल्‍यनेयर बनने के
सिर्फ़ रंगीन सपने दिखा रहें हैं।।
उनकी इस
गोल्डन ग्लोब
और
ऑस्कर वाली कोशिश पर ,
हमारे मीडिया वाले
कितना मचल रहें हैं
इतरा रहें हैं।
वो हमें स्लम में रहने वाला डॉग बता कर मिलियन में कमा रहें हैं।।
जय हो की तान पर
सब अपनी-अपनी दुकान सजा रहे हैं,
और पास आए
स्लम के डॉग को
अपने से दूर भगा रहे हैं।
वो हमें स्लम में रहने वाला डॉग बता कर मिलियन में कमा रहें हैं।।
*** ***

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

पादप यहां न कोई तेरा

--- मनोज कुमार
पादप ! यहां न कोई तेरा !

तरु- तरु लिपट रहीं वल्लरियां,
भंवरों से चुम्बित मधु कलियां,
और अकेला खड़ा विजन में,
नित देखे तू सांझ – सवेरा ।
पादप ! यहां न कोई तेरा !

सरसिज पर क्रीड़ा मराल की,
लहरें चूमें तृषा डाल की।
तुमको मिला न कोई साथी,
करे रात जो यहां बसेरा।
पादप ! यहां न कोई तेरा !

सबके साथी अपने-अपने,
देख रहे सब सौ-सौ सपने
तेरे भी कुछ सपने होंगे
साथी प्रिय हो कोई मेरा।
पादप! यहां न कोई तेरा!
*** ***

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

गुरु की महत्ता

---मनोज कुमार

"गुरुतर महत्ता का प्रतीयमान 'गुरु' शब्द स्वयं में ही अलौकिक श्रद्धा का प्रतीक है । विश्वगुरु भारत की समृद्ध गुरु-शिष्य परम्परा पर समय समय आर अपसंस्कृति की धूल जमने का प्रयास करती रही है किंतु इसकी शाश्वत उज्ज्वलता आज भी विद्यमान है। अब तो गुरु-वंदना में अखिल विश्व भारत का अनुसरण कर रहा है। मासपूर्व भारत ने शिक्षक दिवस मनाया तो आज, ५ अक्टूबर को 'विश्व शिक्षक दिवस' है। जो अखंड ब्रह्माण्ड रूप में चर और अचर सब में व्याप्त है, जो ब्रह्मा, विष्णु और देवाधि देव महेश हैं, उन्हें हमरा सत सत नमन ! "

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पांव़।
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो मिलाये।।
संत कबीर दास की ये पंक्तियां हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति में गुरु के महत्व को अभिव्यक्त करती हैं।
देश के दूसरे राट्रपति डॉ एस राधाकृष्णन के जन्म दिन 5 सितंबर को भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। सन् 1994 से यूनेस्को द्वारा 5 अक्तूबर को विश्व शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
किसी भी राष्ट्र के शिक्षा और विकास में शिक्षकों के अमूल्य योगदान को जताने का आज सुअवसर है। भविष्य की पीढ़ियों के लिए शिक्षक की ज़रूरत को समझा और समझाया जा सके विश्व शिक्षक दिवस का यही मकसद है। आज दुनिया भर के 108 से अधिक देश विश्व शिक्षक दिवस मनाते हैं।
आज सारे संसार में तरह-तरह के बदलाव आ रहे हैं। हर तरफ परिवर्तन की आंधी है। ऐसे समय में शिक्षकों के समक्ष चुनौतियां और बढ़ गई है। आज शिक्षक का काम किसी विद्यार्थी को केवल विषय में निपुण बनाना भर नहीं रह गया है बल्कि देश और दुनिया के जिम्मेदार नगरिक भी बनाना है।

हमारे देश में जहां एक ओर शिष्यों के गुरु की प्रति निष्ठा और समर्पण की भावना में ह्रस हुआ है वहीं दूसरी ओर शिक्षकों की गुणवत्ता में कमी आई है। आज हमें प्रशिक्षित ही नहीं बल्कि शिक्षा के प्रति समर्पित शिक्षकों की बहुत ही अधिक आवश्यकता है। हमें ऐसे शिक्षक चाहिए जो भारतीय संस्कृति के अनुरुप शिक्षक की परिभाषा को सही साबित करते हुए देश को विकास के पथ पर आगे ले जा सकें।